ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 95/ मन्त्र 8
ऋषिः - कुत्सः आङ्गिरसः
देवता - सत्यगुणविशिष्टोऽग्निः शुद्धोऽग्निर्वा
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
त्वे॒षं रू॒पं कृ॑णुत॒ उत्त॑रं॒ यत्स॑म्पृञ्चा॒नः सद॑ने॒ गोभि॑र॒द्भिः। क॒विर्बु॒ध्नं परि॑ मर्मृज्यते॒ धीः सा दे॒वता॑ता॒ समि॑तिर्बभूव ॥
स्वर सहित पद पाठत्वे॒षम् । रू॒पम् । कृ॒णुते॒ । उत्ऽत॑रम् । यत् । स॒म्ऽपृ॒ञ्चा॒नः । सद॑ने॒ । गोऽभिः॑ । अ॒त्ऽभिः । क॒विः । बु॒ध्नम् । परि॑ । म॒र्मृ॒ज्य॒ते॒ । धीः । सा । दे॒वता॑ता । सम्ऽइ॑तिः । ब॒भू॒व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वेषं रूपं कृणुत उत्तरं यत्सम्पृञ्चानः सदने गोभिरद्भिः। कविर्बुध्नं परि मर्मृज्यते धीः सा देवताता समितिर्बभूव ॥
स्वर रहित पद पाठत्वेषम्। रूपम्। कृणुते। उत्ऽतरम्। यत्। सम्ऽपृञ्चानः। सदने। गोऽभिः। अत्ऽभिः। कविः। बुध्नम्। परि। मर्मृज्यते। धीः। सा। देवताता। सम्ऽइतिः। बभूव ॥ १.९५.८
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 95; मन्त्र » 8
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स किं करोतीत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
मनुष्यैर्यद्यः संपृञ्चानः कविः कालसदने गोभिरद्भिरुत्तरं त्वेषं बुध्नं रूपं कृणुते या धीः परिमर्मृज्यते सा च देवताता समितिर्बभूव तदेतत्सर्वं विज्ञाय प्रज्ञोत्पादनीया ॥ ८ ॥
पदार्थः
(त्वेषम्) कमनीयम् (रूपम्) स्वरूपम् (कृणुते) करोति (उत्तरम्) उत्पद्यमानम् (यत्) यः (संपृञ्चानः) संपर्कं कुर्वन् कारयन् वा (सदने) भुवने (गोभिः) किरणैः (अद्भिः) प्राणैः (कविः) क्रान्तदर्शनः (बुध्नम्) प्राणबलसम्बन्धि विज्ञानम्। इदमपीतरद्बुध्नमेतस्मादेव बद्धा अस्मिन्धृताः प्राणा इति। निरु० १०। ४४। (परि) सर्वतः (मर्मृज्यते) अतिशयेन शुध्यते (धीः) प्रज्ञा कर्म वा (सा) (देवताता) देवेनेश्वरेण विद्वद्भिर्या सह। अत्र देवशब्दात्सर्वदेवात्तातिल् (अ० ४। ४। १४२। इति तातिलि कृते सुपां सुलुगिति तृतीया स्थाने डादेशः। (समितिः) विज्ञानमर्यादा (बभूव) भवति ॥ ८ ॥
भावार्थः
मनुष्यैर्न खलु कालेन विना कार्य्यस्वरूपमुत्पद्य प्रलीयते नैव ब्रह्मचर्यादिकालसेवनेन विना सर्वशास्त्रबोधसम्पन्ना बुद्धिर्जायते तस्मात्कालस्य परमसूक्ष्मस्वरूपं विज्ञायैष व्यर्थो नैव नेयः किन्त्वालस्यं त्यक्त्वा समयानुकूलं व्यावहारिकपारमार्थिकं कर्म सदानुष्ठेयम् ॥ ८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह काल क्या करता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
मनुष्यों को चाहिये (यत्) जो (संपृञ्चानः) अच्छा परिचय करता-कराता हुआ (कविः) जिसका क्रम से दर्शन होता है यह समय (सदने) भुवन में (गोभिः) सूर्य्य की किरणों वा (अद्भिः) प्राण आदि पवनों से (उत्तरम्) उत्पन्न होनेवाले (त्वेषम्) मनोहर (बुध्नम्) प्राण और बल सम्बन्धी विज्ञान और (रूपम्) स्वरूप को (कृणुते) करता है तथा जो (धीः) उत्तम बुद्धि वा क्रिया (परि) (मर्मृज्यते) सबप्रकार से शुद्ध होती है (सा) वह (देवताता) ईश्वर और विद्वानों के साथ (समितिः) विशेष ज्ञान की मर्यादा (बभूव) होती है, इस समस्त उक्त व्यवहार को जानकर बुद्धि को उत्पन्न करें ॥ ८ ॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि काल के विना कार्य्य स्वरूप उत्पन्न होकर और नष्ट हो जाय यह होता ही नहीं और न ब्रह्मचर्य्य आदि उत्तम समय के सेवन विना शास्त्रबोध करानेवाली बुद्धि होती है। इस कारण काल के परमसूक्ष्म स्वरूप को जानकर थोड़ा भी समय व्यर्थ न खोवें किन्तु आलस्य छोड़ के समय के अनुकूल व्यवहार और परमार्थ काम का सदा अनुष्ठान करें ॥ ८ ॥
विषय
सशक्त इन्द्रियाँ , शुद्ध मन , प्रभु से मेलवाली बुद्धि
पदार्थ
१. (यत्) = जब मनुष्य (सदने) = इस शरीररूप गृह में (गोभिः) = इन्द्रियों से तथा (अद्भिः) = [आपः = रेतः] रेतः शक्ति से (संपृञ्चानः) = सम्यक् सम्पर्कवाला होता है अथवा (गोभिः) = ज्ञान की वाणियों से तथा (अद्भिः) = [आपः = कर्माणि] कर्मों से युक्त होता है तब (त्वेषम्) = दीप्त (उत्तरम्) = उत्कृष्ट (रूपम्) = रूप को (कृणुते) = करता है । गो शब्द जब इन्द्रियों का वाचक है तब ‘आपः’ रेतः कणों को कहता है । इन रेतः कणों से ही इन्द्रियाँ शक्तिसम्पन्न बनकर सुख देनेवाली होती हैं । गो शब्द का भाव ज्ञान की वाणियों से हो तो ‘आपः’ कर्म का वाचक है । ज्ञान के अनुसार कर्म करने से ही कल्याण है । ज्ञान कर्मों को पवित्र बना देता है । ये पवित्र कर्म शक्ति के वर्धक होते हैं और इस प्रकार इस ज्ञानपूर्वक कर्म करनेवाले को दीप्त रूप प्राप्त होता है । तेजस्विता से वह चमक उठता है ।
२. (कविः) = यह क्रान्तदर्शी बनता है , वस्तुओं के तत्त्व को समझनेवाला होता है । यह (बुध्नम्) = शरीर के मूल को परि (मर्मृज्यते) = सब ओर से शुद्ध कर लेता है । मन ही ब
बुध्न है । इसके एक ओर अन्नमय और प्राणमयकोश हैं , दूसरी ओर विज्ञानमय और आनन्दमय । मध्य में यह मनोमयकोश है । यही हमारे शरीर का मूल है । इसी कोश को निर्मल बनाने पर अन्य कोशों का नैर्मल्य निर्भर है । ‘वि कोशं मध्यमं युव’ - इस मध्यमकोश को तू निर्मल बनाने का प्रयत्न कर । यह मन ही बन्धन व मोक्ष का कारण है । इसकी दृढ़ता में ही विजय है , इसकी हार में हार है ।
३. इस दीप्तरूपवाले पुरुष की (धीः) = जो बुद्धि है (सा) = वह (देवताता) = दिव्यगुणों का विस्तार करनेवाली होती है और यह बुद्धि (समितिः बभूव) = [सम् इतिः = गतिर्यया] उत्तम गति व आचरणवाली होती है अथवा प्रभु के साथ मेलवाली होती है । दिव्यगुणों के विस्तार के द्वारा यह उस महादेव को प्राप्त करानेवाली होती है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम रेतः कणों के रक्षण द्वारा शरीर में इन्द्रियों को सशक्त बनाएँ मन को निर्मल बनाएँ तथा बुद्धि को दिव्यगुणों का विस्तार करनेवाली बनाकर प्रभु के साथ मेलवाला करें ।
विषय
सूर्य के समान राजा का तेजस्वी होना।
भावार्थ
सूर्य जिस प्रकार ( गोभिः अद्भिः) किरणों और जलों से युक्त होकर अपने ( उत्तरं त्वेषं कृणुते ) प्रदीप्त तेज को और अधिक उत्कृष्ट कर लेता है और ( कविः ) दूर तक प्रकाश फेंकने हारा ( बुध्नं परि मर्मृज्यते ) अन्तरिक्ष को भी स्वच्छ कर देता है तब ( देवताता समितिः बभूव ) प्रकाशमान किरणों की एकत्र स्थिति होती है उसी प्रकार राजा (यत्) जब (सदने) एक ही सभा-भवन में (गोभिः) ज्ञानी पुरुषों और ( अद्भिः ) आप्त जनों या (गोभिः) भूमि निवासी प्रजाओं और विद्वान् आप्त जनों सहित ( सं पृञ्चानः ) समान रूप से संगत होकर भी अपने ( त्वेषं रूपं ) उज्ज्वल रूप को ( उत्तरं ) उनसे उत्कृष्ट ( कृणुते ) बना लेता है ( धीः ) धारक, बुद्धिमान्, व्यवस्थापक ( कविः ) विद्वान् क्रान्तदर्शी पुरुष ( बुध्नं ) सबके आश्रय रूप, सबको एकत्र बांधने वाले मुख्य केन्द्रस्थ पद को ( परि मर्मृज्यते ) सुशोभित करता है तब ( सा) वही ( देवताता ) विद्वानों की राजकीय ( समितिः ) सभा ( बभूव ) बन जाती है । अर्थात् देवसभा या राजसभा में विद्वानों और भूमिवासी प्रजाओं के प्रतिनिधि हों। विद्वान्, ज्ञानी और सभा पर वश करने में समर्थ पुरुष मुख्य सभापति पद पर विराजें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आंङ्गिरस ऋषिः॥ औषसगुणविशिष्टः सत्यगुणविशिष्टः, शुद्धोऽग्निर्वा देवता ॥ छन्द:-१, ३ विराट् त्रिष्टुप् । २, ७, ८, ११ त्रिष्टुप् । ४, ५, ६, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ६ भुरिक् पंक्तिः ॥ एकादशर्चं सूकम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी हे जाणावे की, काळाशिवाय कार्यस्वरूप उत्पन्न होत नाही किंवा नष्ट होत नाही तसेच ब्रह्मचर्य इत्यादी काळाचे सेवन केल्याशिवाय शास्त्रबोध करविणारी बुद्धी प्राप्त होत नाही. त्यासाठी काळाचे परमसूक्ष्म स्वरूप जाणून क्षणभरही वेळ व्यर्थ घालवू नये, तर आळस सोडून वेळेनुसार व्यवहार व परमार्थाच्या कार्याचे नेहमी अनुष्ठान करावे. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
When Agni, sunlight, assumes a brighter and higher form mixing the rays of light and vapours of water in its own region, then, shining as lord of celestial light and vision, it purifies the sky, elevates intelligence and refines knowledge and science, and that state of intelligence and knowledge is divinely pious and supreme.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What does Agni do is taught further in the 8th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Time like a sage assumes an excellent and lustrous form coming in and causing contact with the rays and the Pranas in the world. This science regarding the vital force of the Pranas along with intellect and action is purified. This leads to the knowledge of God and true nature of enlightened wise persons.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(गोभिः) किरण: = With the rays. (अद्भिः) प्रारण: = With the pranas. (बुध्नम्) प्राणबल सम्बन्धि विज्ञानम् । इदमपीतरद्बुघ्नमेतस्मादेव बद्धाः अस्मिन् धृताः प्राणा इति निरु० १०.४४ । = The sciences of the vital force.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should know that it is not without time that effect is produced and dissolved at the end; it is not without the proper use of the time of observing Brahmacharya (continence) that the intellect is able to understand all Shastras. Therefore knowing the subtle nature of time, it should never be wasted, but all worldly and spiritual duties should be discharged punctually, giving up all laziness.
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