Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 95 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 95/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कुत्सः आङ्गिरसः देवता - सत्यगुणविशिष्टोऽग्निः शुद्धोऽग्निर्वा छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ॒विष्ट्यो॑ वर्धते॒ चारु॑रासु जि॒ह्माना॑मू॒र्ध्वः स्वय॑शा उ॒पस्थे॑। उ॒भे त्वष्टु॑र्बिभ्यतु॒र्जाय॑मानात्प्रती॒ची सिं॒हं प्रति॑ जोषयेते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒विःऽत्यः॑ । व॒र्ध॒ते॒ । चारुः॑ । आ॒सु॒ । जि॒ह्माना॑म् । ऊ॒र्ध्वः । स्वऽय॑शाः । उ॒पऽस्थे॑ । उ॒भे इति॑ । त्वष्टुः॑ । बि॒भ्य॒तुः॒ । जाय॑मानात् । प्र॒ती॒ची इति॑ । सिं॒हम् । प्रति॑ । जो॒ष॒ये॒ते॒ इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आविष्ट्यो वर्धते चारुरासु जिह्मानामूर्ध्वः स्वयशा उपस्थे। उभे त्वष्टुर्बिभ्यतुर्जायमानात्प्रतीची सिंहं प्रति जोषयेते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आविःऽत्यः। वर्धते। चारुः। आसु। जिह्मानाम्। ऊर्ध्वः। स्वऽयशाः। उपऽस्थे। उभे इति। त्वष्टुः। बिभ्यतुः। जायमानात्। प्रतीची इति। सिंहम्। प्रति। जोषयेते इति ॥ १.९५.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 95; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यस्माज्जायमानात्त्वष्टुरुभे बिभ्यतुर्यस्मात्प्रतीची जायते सर्वान् व्यवहारान् प्रति जोषयेते। य उपस्थे स्वयशा जिह्मानामूर्ध्व आसु चारुराविष्ट्यो वर्धते तं सिंहं हिंसकमग्निं यूयं यथावद्विजानीत ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (आविष्ट्यः) आविर्भूतेषु व्यवहारेषु प्रसिद्धः (वर्धते) (चारुः) सुन्दरः (आसु) दिक्षु प्रजासु वा (जिह्मानाम्) कुटिलानां सकाशात् (ऊर्ध्वः) उपरिस्थ (स्वयशाः) स्वकीयकीर्त्तिः (उपस्थे) कर्तॄणां समीपस्थे देशे (उभे) रात्रिदिवसौ (त्वष्टुः) छेदकात्कालात् (बिभ्यतुः) भीषयेते। अत्र लडर्थे लिडन्तर्गतो ण्यर्थश्च। (जायमानात्) प्रसिद्धात् (प्रतीची) पश्चिमा दिक् (सिंहम्) हिंसकम् (प्रति) (जोषयेते) सर्वान्सेवयतः ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्यः सृष्ट्युत्पत्तिसमयाज्जातोऽग्निश्छेदकत्वादूर्ध्वगामी काष्ठादिष्वाविष्टतया वर्धमानः सूर्य्यरूपेण दिग्बोधकोऽस्ति सोऽपि कालादुत्पद्य कालेन विनश्यतीति वेद्यम् ॥ ५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम जिस (जायमानात्) प्रसिद्ध (त्वष्टुः) छेदन करने अर्थात् सबकी अवधि को पूरी करनेहारे समय से (उभे) दोनों रात्रि और दिन (बिभ्यतुः) सबको डरपाते हैं वा जिससे (प्रतीची) पछांह की दिशा प्रकट होती है वा उक्त रात्रि-दिन सब व्यवहारों का (प्रति, जोषयेते) सेवन तथा जो समय (उपस्थे) काम करनेवालों के समीप (स्वयशाः) अपनी कीर्त्ति अर्थात् प्रशंसा को प्राप्त होता वा (जिह्मानाम्) कुटिलों से (ऊर्ध्वः) ऊपर-ऊपर अर्थात् उनके शुभकर्म में नहीं व्यतीत होता (आसु) इन दिशा वा प्रजाजनों में (चारुः) सुन्दर (आविष्ट्यः) प्रकट हुए व्यवहारों में प्रसिद्ध (वर्धते) और उन्नति को पाता है, उस (सिंहम्) हम तुम सबको काटनेहारे समय को तुम लोग यथावत् जानो ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को यह जानना चाहिये कि संसार की उत्पत्ति के समय से जो उत्पन्न हुआ अग्नि है वह छेदन गुण से ऊर्ध्वगामी अर्थात् जिसकी लपट ऊपर को जाती और काष्ठ आदि पदार्थों में अपनी व्याप्ति से बढ़ता और सूर्यरूप से दिशाओं का बोध करानेवाला है, वह भी सब समय से उत्पन्न होकर समय पाकर ही नष्ट होता है ॥ ५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सरल स्वयशाः

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार स्वधर्म के पालन से प्रभु की अर्चना करता हुआ (आविष्ट्यः) = प्रभु के आविर्भाव में होनेवाला , अर्थात् प्रभु का साक्षात्कार करनेवाला व्यक्ति (वर्धते) = बढ़ता है , इसकी सब शक्तियों का विकास होता है और (आसु) = इन प्रजाओं में (चारुः) = सुन्दर जीवनवाला होता है । 

    २. यह प्रभु का द्रष्टा (जिह्मानाम् ऊर्ध्वः) = सब कुटिलताओं से ऊपर उठा हुआ होता है । “सर्वं जिह्मं मृत्युपदम् , आर्जवं ब्रह्मणः पदम्” - कुटिलता मृत्यु का मार्ग है , सरलता ही ब्रह्मप्राप्ति का मार्ग है । हम प्रभु से यही तो प्रार्थना करते हैं कि - ‘युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनः’ - हमसे कुटिलता व पाप को दूर कीजिए । 

    ३. इस सरल जीवन के कारण (उपस्थे) = प्रभु के उपस्थान व उपासन में यह (स्वयशाः) = अपने से यशवाला होता है । अपने उत्तम जीवन के कारण यह यशस्वी बनता है । 

    ४. यह प्रभु के उपस्थान से अपने हृदय में प्रभु का दर्शन करने का प्रयत्न करता है और उस (जायमानात्) = प्रादुर्भूत हुए - हुए (त्वष्टुः) = महान् देवशिल्पी से - सूर्य - चन्द्रमादि देवों का निर्माण करनेवाले प्रभु से (उभे) = हमारे शत्रुभूत काम - क्रोध दोनों ही [तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ] (बिभ्यतुः) = भयभीत हो जाते हैं । प्रभु का प्रादुर्भाव होने पर काम - क्रोध का रहना सम्भव ही नहीं । 

    ५. काम - क्रोध अब हमारे शत्रु नहीं रहते , अपितु (प्रतीची) = [प्रति अञ्च] भय के कारण वापस जाते हुए ये (सिंहं प्रति) = काम - क्रोध का हिंसन करनेवाले उस प्रभु के प्रति (जोषयेते) = हमें प्रीतिपूर्वक सेवन व सम्भजन करनेवाला बनाते हैं । जो काम अब तक हमारी वैषयिक रुचि का कारण बना हुआ था , वह अब पवित्र होकर हमें प्रभु के प्रति झुकाता है । हमारी कामना अब वैदिक कर्मयोग को अपनाने की होती है । इस काम में क्रोध का स्थान ही नहीं , क्योंकि क्रोध कामना के विघात से होता है । प्रभु - प्राप्ति का मार्ग सबके लिए खुला है । वहाँ पारस्परिक संघर्ष न होने से क्रोध का प्रश्न ही नहीं उठता । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु का प्रकाश होने पर हम सरल व यशस्वी जीवनवाले होते हैं । प्रभु के सामने काम व क्रोध भयभीत होकर भाग जाते हैं । वैषयिक कामना प्रभु - प्राप्ति की कामना के रूप में परिवर्तित हो जाती है । 
     

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    गर्भगत बालक की वृद्धि के समान राजा की वृद्धि, उदय, तथा सिंह के समान विजय । मेघगत विद्युत् और काष्ठगत अग्नि का वर्णन ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( आसु उपस्थे ) इन गर्भ धारण करने हारी माताओं के भीतर ( उपस्थे ) गर्भाशय में ( आविष्ट्यः ) बाद में वेदना पीड़ा उत्पन्न करने वाला बालक (बर्धते) वृद्धि को प्राप्त होता है। और वह ( जिह्मानाम् ऊर्ध्वः ) कुटिल आकार की नाड़ियों के ऊपर ( स्वयशाः ) अपने आत्मा के बल पर या माता के अपने खाये अन्न पर पलता है । (उभे) दोनों माता पिता ( त्वष्टुः जायमानात् ) उत्पन्न होते हुए पीड़ाजनक या तेजस्वी बालक से ( बिभ्यतुः ) उस समय भय खाते हैं कि कही वह बाहर आता हुआ माता की मृत्यु आदि का कारण न हो। ( प्रतीची ) वे दोनों उसके प्रत्यक्ष देखने पर ( सिंह ) पीड़ाजनक बालक को ही (प्रति जोषयेते ) स्नेह करते हैं । ठीक इसी प्रकार (आविः-त्यः) स्वयं अपने तेजों से प्रकट होने वाला ( चारुः ) उत्तम श्रेष्ठ नायक राजा ( जिह्मानाम् ऊर्ध्वः ) कुटिल, कूट षड्यन्त्रकारियों के भी ऊपर, उनसे अधिक प्रबल होकर ( स्वयशाः ) अपने बल से यशस्वी होता हुआ और ( आसु उपस्थे ) इन प्रजाजनों के बीच उनके ही मानो गोद में, उन पर अधिष्ठित होकर ( वर्धते ) वृद्धि को प्राप्त होता, अधिक शक्तिशाली हो जाता है। ( जायमानात् ) उत्पन्न या प्रकट होते हुए उस ( त्वष्टुः ) सूर्य के समान तेजस्वी राजा से ( उभे ) राजवर्ग और प्रजा वर्ग तथा स्ववर्ग और शत्रुवर्ग दोनों ( बिभ्यतुः ) भय करते हैं । और वे दोनों ( प्रतीची ) उसके सन्मुख आकर ( सिंहम् प्रति ) उस सिंह के समान पराक्रमी एवं सहनशील और शत्रुओं के हिंसक बलवान् राजा को ( जोषयेते ) आदर और प्रेम से देखते और उसकी सेवा करते अर्थात् उसकी आज्ञा का पालन करते हैं । ( २ ) सूर्य प्रकट होता हुआ दिशाओं के ऊपर विद्यमान रहता है ( उभे ) दिन रात्रि दोनों उदयकाल में उससे भय करती अर्थात् रात्रि भागती और दिन उसके पीछे चलता है दोनों उसके अधीन हैं। उदय के बाद उस अन्धकारनाशक सूर्य को ( प्रतीची ) पूर्व और पश्चिम दोनों सूर्य का सेवन करती हैं। (३) विद्युत् कुटिलता से जाने वाले मेघस्थ जलों के बीच में ऊपर २ पृष्ठ भाग पर रहता है अपने तेज से चमकता है, उसके प्रकट होने पर अन्तरिक्ष और पृथिवी दोनों कांपते हैं । उसका सेवन करते हैं । ( ४ ) अग्नि काष्ठों के बीच में ऊर्ध्व ज्वाला होकर अपने तेज से प्रकट रूप से जलता है। दोनों अरणि-काष्ठ जल जाने के भय से डरते हैं, वे उसी जलाने वाले से स्नेह भी करती हैं । इति प्रथमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आंङ्गिरस ऋषिः॥ औषसगुणविशिष्टः सत्यगुणविशिष्टः, शुद्धोऽग्निर्वा देवता ॥ छन्द:-१, ३ विराट् त्रिष्टुप् । २, ७, ८, ११ त्रिष्टुप् । ४, ५, ६, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ६ भुरिक् पंक्तिः ॥ एकादशर्चं सूकम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी हे जाणले पाहिजे की जगाच्या उत्पत्तीच्या काळापासून जो उत्पन्न झालेला अग्नी आहे, त्याच्यात छेदन गुण असल्यामुळे ऊर्ध्वगामी आहे. अर्थात् ज्याची ज्वाला वर जाते व काष्ठ इत्यादी पदार्थांत तो आपल्या व्याप्तीने वाढतो व सूर्यरूपाने दिशांचा बोध करविणारा असतो. तोही काळाद्वारे उत्पन्न होऊन काळाच्या योगे नष्ट होतो. ॥ ५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Having entered these directions of space and the objects therein, it grows and expands. Present within the oblique and wavy motions of wind, air and the rays of light, it rises above by its own power. On the rise of the sun, the day and night split up as if out of fear. The same split marks the west. And yet the night and day again nurse the hero of light as a favourite hero.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How ii Agni is taught in the fifth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Appearing amongst the waters and manifest in all dealings, the bright shining Agni increases rising above the flanks of the waving waters, spreading his own renown; both day and night or heaven and earth are alarmed, as the radiant Kala (Time) is born, and they approach and serve the lion-like fierce Agni (fire).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (त्वष्टु:) छेदकात् कालात् = From time. (सिंहम्) हिंसकम् = Fire force like the lion.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should know that the Agni (fire) is born from the time of the creation of the world and as disintegrator going upwards and being in the wood it grows and is the pointer of directions in the form of the sun. It comes into existence at a certain time and perishes at the appointed time.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top