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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 95 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 95/ मन्त्र 11
    ऋषिः - कुत्सः आङ्गिरसः देवता - सत्यगुणविशिष्टोऽग्निः शुद्धोऽग्निर्वा छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ए॒वा नो॑ अग्ने स॒मिधा॑ वृधा॒नो रे॒वत्पा॑वक॒ श्रव॑से॒ वि भा॑हि। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑ति॒: सिन्धु॑: पृथि॒वी उ॒त द्यौः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । स॒म्ऽइधा॑ । वृ॒धा॒नः । रे॒वत् । पा॒व॒क॒ । श्रव॑से । वि । भा॒हि॒ । तत् । नः॒ । मि॒त्रः । वरु॑णः । म॒म॒ह॒न्ता॒म् । अदि॑तिः । सिन्धुः॑ । पृ॒थि॒वी । उ॒त । द्यौः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवा नो अग्ने समिधा वृधानो रेवत्पावक श्रवसे वि भाहि। तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदिति: सिन्धु: पृथिवी उत द्यौः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव। नः। अग्ने। सम्ऽइधा। वृधानः। रेवत्। पावक। श्रवसे। वि। भाहि। तत्। नः। मित्रः। वरुणः। ममहन्ताम्। अदितिः। सिन्धुः। पृथिवी। उत। द्यौः ॥ १.९५.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 95; मन्त्र » 11
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे पावकाग्ने विद्वन् यथा कालो विद्युदग्निर्वा नोऽस्माकं समिधा वृधानो यस्मै रेवदेव श्रवसे विभाति विविधतया प्रकाशत उत तन्मित्रो वरुणोऽदिति सिन्धुः पृथिवी द्यौर्नोऽस्मान् मामहन्तां तथा त्वमस्मान्विभाहि ॥ ११ ॥

    पदार्थः

    (एव) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (नः) अस्माकम् (अग्ने) विद्वन् (समिधा) सम्यक् प्रदीप्तेन स्वभावेन प्रदीपकेनेन्धनादिना वा (वृधानः) वर्धमानो वर्धयिता वा (रेवत्) परमोत्तमधनवते। अत्र सुपां सुलुगिति चतुर्थ्या एकवचनस्य लुक्। (पावक) पवित्र (श्रवसे) श्रवणायान्नाय वा (वि) (भाहि) विविधतया प्रकाशते प्रकाशयति वा। तन्नो मित्रो० इत्यादि पूर्वसूक्तान्त्यमन्त्रवद् व्याख्येयम् ॥ ११ ॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषालङ्कारः। नहि कस्यचित्कालाग्निविद्यया विना विद्यायुक्तं धनं प्राप्तुं शक्यं न खलु कश्चित्समयानुकूलानुष्ठानेन विना प्राणादिभ्य उपकारान् ग्रहीतुं यथावच्छक्नोति तस्मादेतत्सर्वं प्रबुध्य सर्वकार्य्यसिद्धिं कृत्वा सदानन्दयितव्यमिति ॥ ११ ॥ अत्र कालाग्निविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीत्यवगन्तव्यम् ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे काल और भौतिक अग्नि कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (पावक) पवित्र (अग्ने) विद्वन् ! समय और बिजुली रूप भौतिक अग्नि (नः) हम लोगों के (समिधा) अच्छे प्रकाश को प्राप्त किये हुए अपने भाव से वा इन्धन आदि (वृधानः) बढ़ता वा वृद्धि कराता हुआ जिस (रेवत्) परम उत्तम धनवान् (श्रवसे) सुनने तथा अन्न के लिये (एव) ही अनेक प्रकार से प्रकाशित होता है (उत) और (तत्) इससे (मित्रः) प्राण (वरुणः) उदान (अदितिः) अन्तरिक्ष आदि (सिन्धुः) समुद्र (पृथिवी) भूमि वा (द्यौः) बिजुली का प्रकाश (नः) हम लोगों को (मामहन्ताम्) वृद्धि देते हैं, वैसे आप हम लोगों को (वि, भाहि) प्रकाशित करो वा काल वा भौतिक अग्नि प्रकाशित होता है ॥ ११ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। काल और भौतिक अग्नि की विद्या के विना किसी को विद्यायुक्त धन नहीं हो सकता और न कोई समय के अनुकूल वर्त्ताव वर्त्तने के विना प्राणादिकों से उपकार यथावत् ले सकता है, इससे इस समस्त उक्त व्यवहार को जानके सब कार्य्य की सिद्धि कर सदा आनन्द करना चाहिये ॥ ११ ॥इस सूक्त में काल और अग्नि के गुणों के वर्णन से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, ऐसा जानना चाहिये ॥

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    विषय

    ज्ञानयुक्त धन

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (पावक) = पवित्र करनेवाले प्रभो ! (एव) = इस प्रकार (समिधा) = ज्ञान की दीप्ति से (वृधानः) = हमारे अन्तः करणों में वृद्धि को प्राप्त होते हुए आप (नः) = हमें (रेवत् श्रवसे) = धनयुक्त ज्ञान के लिए (विभाहि) = विशेषरूप से दीप्त कर दीजिए । हम अपने ज्ञान को बढ़ाते हुए प्रभु का दर्शन करनेवाले बनें । प्रभु का दर्शन हमें धन व ज्ञान से युक्त करनेवाला हो । 

    २. (नः तत्) = हमारी इस प्रार्थना को (मित्रः) = मित्र , (वरुणः) = वरुण , (अदितिः) =अदिति , (सिन्धुः) = सिन्धु , (पृथिवी) = पृथिवी (उत) = और (द्यौः) = द्युलोक (मामहन्ताम्) = आदृत करें । इन देवों की कृपा से हमारी यह प्रार्थना पूर्ण हो । मित्रादि देव क्रमशः स्नेह , निर्द्वेषता , स्वास्थ्य , रेतः कणों का रक्षण , स्वस्थ शरीर व दीप्त मस्तक का संकेत करते हैं । स्नेह आदि के द्वारा ही हम प्रभु से (‘रेवत् श्रवस्’) = धनयुक्त ज्ञान को प्राप्त करने के अधिकारी बनते हैं । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु हमें ज्ञानयुक्त धन देनेवाले हों । 
     

    विशेष / सूचना

    विशेष - सूक्त का आरम्भ दिन - रात के काव्यमय वर्णन से होता है [१] प्रभुरूप अग्नि को हमें अपने में प्रादुर्भूत करने का प्रयत्न करना है । [२] ये प्रभु सूर्य के द्वारा वसन्तादि ऋतुओं का निर्माण करते हुए हमें भी उन ऋतुओं के गुणों को धारण करने का उपदेश करते हैं । [३] हम इन उपदेशों को सुनेंगे तो ‘महान् , कवि व स्वधावान्’ बनेंगे , [४] सरल व स्वयशाः होंगे , [५] उत्तम बलों के पति होंगे , [६] इस योग्य होंगे कि हमें नया शरीर न ग्रहण करना पड़े । [७] हमारी इन्द्रियाँ सशक्त होंगी , मन शुद्ध होगा व बुद्धि प्रभु से मेलवाली होगी । [८] हम प्रभु के विरोचमान धाम को प्राप्त करेंगे , [९] सर्वत्र प्रभु की महिमा को देखेंगे , वानस्पतिक भोजन के प्रयोग से प्रभुदर्शन के योग्य बनेंगे , [१०] प्रभु से ज्ञानयुक्त धन प्राप्त करनेवाले होंगे । [११] ‘वे प्रभु सहस् - बल के द्वारा ही प्रकट होते हैं’ - इन शब्दों से अगला सूक्त आरम्भ होता है - 
     

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    विषय

    देवसमिति का निर्माण ।

    भावार्थ

    अग्नि जिस प्रकार ( समिधा ) काष्ट से बढ़ता हुआ विशेष दीप्ति से चमकता है उसी प्रकर हे ( अग्ने ) अझ और सूर्य के समान तेजस्वी राजन् ! ( एवैः ) पूर्वोक्त प्रकारों से ( नः ) हमारे बीच ( समिधा ) एक साथ तेजस्वी होने के उपाय से (वृधानः) बढ़ता और हम राष्ट्र वासियों को बढ़ाता हुआ ( रेवत् श्रवसे ) ऐश्वर्य से युक्त ज्ञान, यश और ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये (वि भाहि ) विशेष रूप से चमक । ( मित्रः वरुणः अदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ) सूर्य, मेघ, अखण्ड शासन, समुद्र, पृथिवी और आकाश ये सब ( नः ) हमें ( तत् ) वह ऐश्वर्य सम्पदा ( मामहन्ताम् ) प्रदान करें । इति द्वितीयो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आंङ्गिरस ऋषिः॥ औषसगुणविशिष्टः सत्यगुणविशिष्टः, शुद्धोऽग्निर्वा देवता ॥ छन्द:-१, ३ विराट् त्रिष्टुप् । २, ७, ८, ११ त्रिष्टुप् । ४, ५, ६, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ६ भुरिक् पंक्तिः ॥ एकादशर्चं सूकम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. काल व भौतिक अग्नीच्या विद्येशिवाय कोणाला विद्यायुक्त धन प्राप्त होऊ शकत नाही व कोणी काळानुसार आचरण ठेवल्याशिवाय प्राण इत्यादींकडून यथायोग्य उपकार घेऊ शकत नाही. त्यासाठी वरील संपूर्ण व्यवहारांना जाणून सर्व कार्यांची सिद्धी करून सदैव आनंदात राहावे. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    These, O Agni, light, life and vitality of the world of existence, pure and purifying, treasure and dispenser of universal wealth, growing by fuel and making us grow, pray shine and illuminate us with nourishments, light and honour. Thus also may Mitra and Varuna, sun and air and pranic energies, the skies, the sea and the earth, and the light of heaven and the electric energy of Agni may shine and make us shine.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are they (Kala and Agni) is taught further in the 11th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O purifying learned person, as Time or fire in the form of lightning or electricity growing with our glorious nature or with the fuel supplied by us blaze variously for a righteous wealthy person, for good reputation or good food and as Prana, Udana, all created objects or causes, ocean, earth and the light of electricity help in our growth, so should you help us to shine on account of our noble virtues.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अग्ने) विद्वन् = Learned leader. (समिधा) सम्यक् प्रदीप्तेन स्वभावेन प्रदीपकेन इन्धनादिना वा ॥ = With well-kindled nature or fuel. (श्रवसे) श्रवरणायान्नाय वा = For good reputation or food.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    None can acquire wealth endowed with knowledge without learning the science of Kala or Agni (fire in various forms). None can take proper benefit from Prana and other substances without utilising them in time and punctually. Therefore, all should do all this and should ever enjoy bliss, having accomplished all works.

    Translator's Notes

    This hymn is connected with the previous hymn as there is mention of Kala (Time) Agni (Fire) and learned persons as in that hymn. Here ends the commentary on the ninety-fifth hymn of the first Mandala of the Rigveda.

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