ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 106/ मन्त्र 11
ऋषिः - भुतांशः काश्यपः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ऋ॒ध्याम॒ स्तोमं॑ सनु॒याम॒ वाज॒मा नो॒ मन्त्रं॑ स॒रथे॒होप॑ यातम् । यशो॒ न प॒क्वं मधु॒ गोष्व॒न्तरा भू॒तांशो॑ अ॒श्विनो॒: काम॑मप्राः ॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒ध्याम॑ । स्तोम॑म् । स॒नु॒याम॑ । वाज॑म् । आ । नः॒ । मन्त्र॑म् । स॒ऽरथा॑ । इ॒ह । उप॑ । या॒त॒म् । यशः॑ । न । प॒क्वम् । मधु॑ । गोषु॑ । अ॒न्तः । आ । भू॒तऽअं॑शः । अ॒श्विनोः॑ । काम॑म् । अ॒प्राः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋध्याम स्तोमं सनुयाम वाजमा नो मन्त्रं सरथेहोप यातम् । यशो न पक्वं मधु गोष्वन्तरा भूतांशो अश्विनो: काममप्राः ॥
स्वर रहित पद पाठऋध्याम । स्तोमम् । सनुयाम । वाजम् । आ । नः । मन्त्रम् । सऽरथा । इह । उप । यातम् । यशः । न । पक्वम् । मधु । गोषु । अन्तः । आ । भूतऽअंशः । अश्विनोः । कामम् । अप्राः ॥ १०.१०६.११
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 106; मन्त्र » 11
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 6
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अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(स्तोमम्-ऋध्याम) स्तुति करने योग्य ज्ञान के प्रतिधान स्तर को बढ़ावें (वाजं सनुयाम) आत्मबल को तथा कार्यबल को सेवन करें (नः-मन्त्रम्) हमारे मननीय ज्ञानप्रदान स्थान को (सरथा-इह-उपयातम्) समान रथवाले या समान रमणीय लक्ष्यवाले होकर प्राप्त होवो (यतः-न पक्वम्) पके अन्न की भाँति (अश्विनोः-गोषु-अन्तरा मधु) हे अध्यापक उपदेशक तुम्हारी ज्ञानभूमियाँ मन आदि के अन्दर मधुरूप (भूतांशः) सर्ववस्तुविषयक ज्ञानसार (कामम्-अप्राः) कमनीय क्रियाविधान को पूरा करे ॥११॥
भावार्थ
मनुष्य ज्ञान के स्तर को बढ़ावें, आत्मबल तथा कार्यबल को जीवन में घटावें, इसके लिए अध्यापक और उपदेशकों को ज्ञानसदन सम्मलेन में बुलाकर उनके पके हुए अन्न की भाँति मन आदि में वह सर्वविषयक ज्ञानसार सब कमनीय क्रियाओं का साधनेवाला है, उसे ग्रहण करें ॥११॥
विषय
स्तोम से वाज की प्राप्ति
पदार्थ
[१] (स्तोमं ऋध्याम) = हम सब स्तोम का वर्धन करें। खूब स्तुति करनेवाले हों । और इस स्तुति के द्वारा (वाजम्) = शक्ति को सनुयाम प्राप्त करें। [२] इस प्रकार प्रार्थना करनेवाले पति-पत्नी से प्रभु कहते हैं कि तुम (इह) = इस जीवन में (सरथा) = समान रथवाले होकर, परस्पर अभिन्न होकर (नः मंत्रम्) = हमारे से दिये गये इस (वेद) = ज्ञान को (उपयातम्) = समीपता से प्राप्त होवो। (न) [न इति चार्थे] = और (गोषु अन्तः पक्वम्) = गौवों के अन्दर उनके ऊधस् में ही परिपक्व (यक्षः) = [food] भोजन को, दुग्धरूप पूर्ण भोजन को (आ) [ गच्छतम् ] = प्राप्त होवो । [३] (भूतांशः) = इस उत्पन्न जगत् को जीवों के लिए विभक्त करनेवाला [भूत+अंश] वह प्रभु (अश्विनौ) = कर्मों में व्याप्त होनेवाले इन पति-पत्नी के (कामम्) = अभिलाषा का (अप्राः) = पूरण करता है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम स्तुतिमय जीवनवाले होकर शक्ति का संवर्धन करें। मधुर गोदुग्ध का सेवन करनेवाले बनें। सूक्त के प्रारम्भ में पति-पत्नी को 'सध्रीचीना'=सदा मिलकर चलनेवाला कहा है । [१] समाप्ति पर भी 'सरथा'=समान रथवाला बनने का उपदेश दिया है। ऐसे पति-पत्नी 'भूतांश' प्राप्त धन को बाँटनेवाले हैं। इस संविभाग से ये दिव्य वृत्तिवाले व शक्तिशाली शरीरोंवाले 'दिव्य आंगिरस' बनते हैं। ये ही अगले सूक्त के ऋषि हैं। 'दक्षिणा' ही देवता, अर्थात् सूक्त का विषय है-
विषय
मधुरभाषी हों, श्रमशील हों।
भावार्थ
हम विद्वान् जन (स्तोमं ऋध्याम) स्तुति योग्य उपदेशज्ञान को बढ़ावें और (वानम् सनुयाम) ज्ञान, ऐश्वर्य और बल को प्राप्त करें और अन्यों को प्रदान करें। हे स्त्री पुरुषो ! आप दोनों (इह) इस लोक में (स-रथा इह नः मन्त्रं) समान रति, बल, वेग तथा स्नेह से युक्त होकर हमारे इस मन्त्र, मनन करने योग्य ज्ञान को (उप यातम्) प्राप्त होवो ! (पक्वं यशं गोषु) भूमियों में पके अन्न के तुल्य, (गोषु अन्तः मधु न) गौओं के बीच मधुर दुग्ध के समान (भूत-अंशः) समस्त प्राणियों में व्यापक प्रभु (अश्विनोः) जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषों के (कामम् आ अप्राः) अभिलाषाओं को पूर्ण करे। इति द्वितीयो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषि र्भूतांशः काश्यपः॥ अश्विनो देवते॥ छन्द:–१– ३, ७ त्रिष्टुप्। २, ४, ८–११ निचृत त्रिष्टुप्। ५, ६ विराट् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(स्तोमम्-ऋध्याम) स्तुत्यं ज्ञानप्रतिधिं प्रतिधानस्थानं वा “स्तोमा आसन्-प्रतिधयः” वर्धयेम (वाजं सनुयाम) आत्मबलं कार्यबलं वा “वाजः बलनाम” [निघ० २।९] सम्भजेमहि (नः-मन्त्रम्-सरथा-इह-उपयातम्) सरथौ समानरमणीयलक्ष्यौ सन्तौ समानयानौ वा-मन्त्रं मननीयज्ञानदानस्थानं खलूपगच्छतम्-उपगतौ-उपयुक्तौ वा भवतं (यशः-न पक्वम्) पक्वमन्नमिव “यशोऽन्ननाम” [निघ० २।७] (अश्विनोः-गोषु-अन्तरा मधु) युवयोरध्यापकोपदेशकयोर्भूमिषु-ज्ञानभूमिषु मनःप्रभृतिषु मध्ये वर्तमानं मधु (भूतांशः) यश्च सर्ववस्तुविषयकज्ञानसारोऽस्ति सः (कामम्-अप्राः) कमनीयं क्रियाविधानं पूरयेत् “प्रा पूरणे” [अदादि०] ॥११॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Let us realise and extend the meaning and application of the mantric song of life and achieve further progress. O Ashvins, come close by your car, share and confirm our mantras and mantric success in practice. And may the honour and excellence of the nation as well as ripe grain, honey, and milk in the cow’s udders and our knowledge of the physical essence of the world fulfil the hopes and expectations of the Ashvins and of the men and women of the world.
मराठी (1)
भावार्थ
माणसाने ज्ञानाचा स्तर वाढवावा. जीवनात आत्मबल व कार्यबल प्रस्थापित करावे. त्यासाठी अध्यापक व उपदेशकांना ज्ञान सदन संमेलनात आमंत्रित करून पक्व अन्नाप्रमाणे मनात सर्व उत्तम क्रिया साधणारे सर्वविषयक ज्ञानसार आहे ते ग्रहण करावे. ॥११॥
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