ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 106/ मन्त्र 7
प॒ज्रेव॒ चर्च॑रं॒ जारं॑ म॒रायु॒ क्षद्मे॒वार्थे॑षु तर्तरीथ उग्रा । ऋ॒भू नाप॑त्खरम॒ज्रा ख॒रज्रु॑र्वा॒युर्न प॑र्फरत्क्षयद्रयी॒णाम् ॥
स्वर सहित पद पाठप॒ज्राऽइ॑व । चर्च॑रम् । जार॑म् । म॒रायु॑ । क्षद्म॑ऽइव । अर्थे॑षु । त॒र्त॒री॒थः॒ । उ॒ग्रा॒ । ऋ॒भू इति॑ । न । आ॒प॒त् । ख॒र॒म॒ज्रा । ख॒रऽज्रुः॑ । वा॒युः । न । प॒र्फ॒र॒त् । क्ष॒य॒त् । र॒यी॒णाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
पज्रेव चर्चरं जारं मरायु क्षद्मेवार्थेषु तर्तरीथ उग्रा । ऋभू नापत्खरमज्रा खरज्रुर्वायुर्न पर्फरत्क्षयद्रयीणाम् ॥
स्वर रहित पद पाठपज्राऽइव । चर्चरम् । जारम् । मरायु । क्षद्मऽइव । अर्थेषु । तर्तरीथः । उग्रा । ऋभू इति । न । आपत् । खरमज्रा । खरऽज्रुः । वायुः । न । पर्फरत् । क्षयत् । रयीणाम् ॥ १०.१०६.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 106; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(चर्चरम्) चलायमान क्षणभङ्गुर (जारम्) जरणशील-जीर्ण स्वभाववाले (मरायु) मरणस्वभाववाले शरीर को (अर्थेषु) इन्द्रियों के अर्थ में-विषयों में (क्षद्म इव) जलों में वर्तमान जैसे को (उग्रा) प्रतापी (पज्रा-इव) पराजित बलवालों के समान (तर्त्तरीथः) तराते हो (खरमज्रा) तीक्ष्णरूप से शोधन करनेवाले (ऋभू न) दो शिल्पी रथकारों को जैसे रथमोह होता है पुनः मरम्मत के लिये, वैसे तुम्हें प्राप्त होता है। हे दो वैद्यों ! (वायुः-खरज्रुः-न) वायु तीक्ष्ण गतिवाला जैसे (पर्फरत्) पूर्ण वेग से प्राप्त होता है (रयीणां क्षयत्) धनों-शरीरस्थ धातुरूप धनों को बसाता है ॥७॥
भावार्थ
शरीर क्षणभङ्गुर जरा को प्राप्त होनेवाला मरणधर्मी है, फिर इन्द्रियों के विषय में ऐसा पड़ा रहता है, जैसे जलों में डूबने को कोई पड़ा रहता है, इसे अध्यात्म-चिकित्सक और अध्यात्म-उपदेशक याद कराते हैं तथा शरीर-चिकित्सक वैद्य इसे रथ के पुनः मरम्मत करनेवाले शिल्पियों के समान स्वस्थ करते हैं ॥७॥
विषय
पज्रा-उग्रा
पदार्थ
[१] (उग्रा) = तेजस्वी पति-पत्नी (पज्रा इव) = [ प्रार्जित बलौ सा० ] खूब सञ्चित बलवाले वीरों के समान [पादाभ्यां अभिभवन्तौ] पाँवों से शत्रुओं को कुचलते हुए, (चर्चरम्) = इस ढीले जोड़ोंवाले अतएव चरचर करते हुए (जारं) = जीर्ण (मरायु) = मरणयुक्त शरीर को (अर्थेषु) = गन्तव्य विषयों के निमित्त (क्षद्म इव) = उदक की तरह (तर्तरीथः) = [तारयथः] तरानेवाले होते हो। जैसे नाव द्वारा पानी को तैरकर मनुष्य प्राप्तव्य परले तट पर पहुँचता है इसी प्रकार ये (पज्र) = शक्ति-सम्पन्न पति-पत्नी इस शरीर को नाव बनाकर संसार सागर को तैरते हैं और धर्मार्थ काम मोक्षरूप अर्थों को सिद्ध करते हैं । [२] (ऋभू न) = जैसे ऋभुओं को, (देव) = शिल्पियों को स्वनिर्मित रथ प्राप्त होता है उसी प्रकार ऋत से देदीप्यमान इन पति-पत्नी को, जो (खरमज्रा) = [खटं मञ्जयितारौ ] अत्यन्त शुद्ध हृदयवाले हैं इन पति-पत्नी को वह शरीर रथ (आपत्) = प्राप्त होता है जो (खरज्रुः) - तीक्ष्ण गति, अतिशयेन वेगवान् है, (वायु न) = यह रथ वायु के समान (पर्फरत्) = शक्तियों का अपने में पूरण करनेवाला है और (रयीणाम्) = सब ऐश्वर्यों का क्षयत् निवास होता है [क्षि-निवासे] ।
भावार्थ
भावार्थ-शक्ति का संचय करनेवाले पति-पत्नी इस शरीर को नाव के समान बनाकर भवसागर को तैरते हैं और सब पुरुषार्थों को सिद्ध करते हैं। अपने को शुद्ध करनेवाले ये पति- पत्नी इस शरीर - रथ को शक्तियों से पूर्ण करते हैं और ऐश्वर्यों को निवास स्थान बनाते हैं ।
विषय
स्त्री-पुरुषों को अनेक उपयोगी
भावार्थ
आप दोनों (पज्रा इव) बलवान् पुरुषों के समान होकर (चर्चरम्) कर्मफल प्राप्त करने योग्य, (जारम्) जरा से जीर्ण होने वाले, (मरायु) अन्त में प्राण से वियुक्त होकर मृत्यु को प्राप्त होने वाले शरीर को (अर्थेषु) प्राप्तव्य, सुखदायी उद्देश्यों के लिये (क्षद्म इव) जल के समान (तर्तरीथः) पार करो। आप दोनों (उग्रा) बलवान् (ऋभु) तेज और सत्य ज्ञान से प्रकाशित सूर्य-चन्द्र के तुल्य (खर-मज्रा) सुखप्रद प्रभु में मग्न रहते हुए उन दोनों को (वायुः न) वायु के समान (खर-ज्रु) तीक्ष्ण गति से वा आनन्द प्रद रूप से व्यापने वाला प्रभु (आपत्) सब सुखप्रद पदार्थ प्राप्त करावे और (रयीणां पर्फरत्) समस्त ऐश्वर्य प्रदान करे और (क्षयत्) उनको बसावे वा ऐश्वर्यवान् करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषि र्भूतांशः काश्यपः॥ अश्विनो देवते॥ छन्द:–१– ३, ७ त्रिष्टुप्। २, ४, ८–११ निचृत त्रिष्टुप्। ५, ६ विराट् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(चर्चरं जारं मरायु) चलायमानं क्षणभङ्गुरं जरणशीलं मरणस्वभावं शरीरम् (अर्थेषु) इन्द्रियार्थेषु (क्षद्म-इव) क्षद्मसु जलेषु “क्षद्म-उदकनाम” [निघ० १।१२] वर्त्तमानं (उग्रा पज्रा इव तर्तरीथः) प्रतापिनौ प्रार्जितबलौ इव तारयथः “पज्रः प्रार्जितः पज्रघोषिणाः प्रार्जितघोषिणौ” [निरु० ५।२१] पज्रः प्रार्जितैश्वर्यः [यजु० ३२।५०] (खरमज्रा ऋभू न आपत्) खरं तीक्ष्णं मज्जयितारौ शोधयितारौ “टुमस्जो शुद्धौ” [तुदादि०] ततो रन् औणादिकः ऋभू शिल्पिनौ रथौ यथा पुनः संस्कारार्थं प्राप्तो भवति तद्वत् युवां (वायुः न खरज्रुः पर्फरत्) वायुरिव तीक्ष्णगतिकः पूर्णवेगं प्राप्तो भवति (रयीणां क्षयत्) शरीरस्य धातुरूपाणि ऐश्वर्य्याणि “द्वितीयार्थे षष्ठी व्यत्ययेन” क्षियति निवासयति “क्षि निवासे” [तुदादि०] ॥७॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Ashvins, like mighty fast and illustrious pilots, take the uncertain, transitory, aging mortal through the objects of value and desire across the seas. Like artists of perfect expertise and builders of the chariot, may the Ashvins come like impetuous winds and bring us wealth and life’s fulfilment.
मराठी (1)
भावार्थ
शरीर क्षणभंगुर असून, वृद्धत्वाला प्राप्त होणारे व मरणधर्मी आहे, तसेच इंद्रियांच्या विषयात असे गुरफटलेले असते. जसे जलात एखादी व्यक्ती बुडालेली असते. त्याला अध्यात्म चिकित्सक व अध्यात्म उपदेशक उपदेश करतात व शरीरचिकित्सक वैद्य रथाची पुन्हा दुरुस्ती करणाऱ्या कारागिराप्रमाणे स्वस्थ ठेवतात. ॥७॥
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