ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 106/ मन्त्र 2
ऋषिः - भुतांशः काश्यपः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
उ॒ष्टारे॑व॒ फर्व॑रेषु श्रयेथे प्रायो॒गेव॒ श्वात्र्या॒ शासु॒रेथ॑: । दू॒तेव॒ हि ष्ठो य॒शसा॒ जने॑षु॒ माप॑ स्थातं महि॒षेवा॑व॒पाना॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒ष्टारा॑ऽइव । फर्व॑रेषु । श्र॒ये॒थे॒ इति॑ । प्रा॒यो॒गाऽइ॑व । श्वात्र्या॑ । शासुः॑ । आ । इ॒थः॒ । दू॒ताऽइ॑व । हि । स्थः । य॒शसा॑ । जने॑षु । मा । अप॑ । स्था॒त॒म् । म॒हि॒षाऽइ॑व । अ॒व॒ऽपाना॑त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उष्टारेव फर्वरेषु श्रयेथे प्रायोगेव श्वात्र्या शासुरेथ: । दूतेव हि ष्ठो यशसा जनेषु माप स्थातं महिषेवावपानात् ॥
स्वर रहित पद पाठउष्टाराऽइव । फर्वरेषु । श्रयेथे इति । प्रायोगाऽइव । श्वात्र्या । शासुः । आ । इथः । दूताऽइव । हि । स्थः । यशसा । जनेषु । मा । अप । स्थातम् । महिषाऽइव । अवऽपानात् ॥ १०.१०६.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 106; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(उष्टारा-इव) जैसे क्षुधा दाह को-भूख की जलन को प्राप्त हुए दो सहयोगी पशु (फर्वरेषु) पूर्ण घासस्थानों में (श्रयेथे) आश्रय लेते हुए वैसे तुम स्त्री-पुरुष कामदाह से पीड़ित हुए अध्यात्मभोजनपूर्ण महात्माओं के आश्रमों में आश्रय लेते हो (श्वात्र्या) दो धनी (प्रायोगा-इव) प्रयोगकुशल व्यापारकुशल (शासुः-एथः) शासक-परमात्मप्रशंसक स्तुति करनेवाले के समीप में जाते हैं श्रद्धा दर्शाने के लिए, वैसे तुम स्त्री-पुरुष सन्तान धनवाले होते हुए गृहस्थधर्म के उपदेशक पुरोहित के पास जाते हो (दूता-इव हि) जैसे दो दूत सन्देशवाहक राजा के निमित्त प्रियकारी होते हैं, वैसे तुम स्त्री-पुरुष (यशसा जनेषु स्थः) जनों में जनसमाज में अपने सदगुणों के यश से प्रिय होते हो (महिषा-इव) जैसे दो भैंसें (अवपानात् मा-अप स्थातम्) जलाशय से नहीं अलग होतीं, वैसे तुम स्त्री-पुरुष ज्ञानामृत के आशय से पृथक् नहीं होते हो ॥२॥
भावार्थ
सुशिक्षित स्त्री-पुरुषों को चाहिए कि विषय-काम दाह से बचने के लिए अध्यात्म चर्चावाले महात्माओं के आश्रम में आश्रय लें, सन्तानधन से पूर्ण हुए गृहस्थधर्म के उपदेशक के पास जाएँ, गृहस्थ चलाने का उपदेश लें, अपने सद्गुणों के यश से मानव समाज के प्रिय बनें और जहाँ ज्ञानामृत का पान मिले, वहाँ आश्रय लें ॥२॥
विषय
[अवपान से दूर न होना] उष्टारा
पदार्थ
[१] (उष्टारा इव) = एक दूसरे की कामना करनेवालों के समान [ वश्] (फर्वरेषु) = पूर्ण करने योग्य कार्यों में [पूरयितृषु सा० ] (श्रयेथे) = परस्पर आश्रय करते हो। पति-पत्नी परस्पर प्रेमभाववाले हों, मिलकर पूर्ण करने योग्य कार्यों को करनेवाले हों । [२] (प्रायोगेव) = युद्ध के लिए प्रयोक्तव्य अश्वों के समान (श्वात्र्या) = [श्वानं धनम् ] धन के साधक होते हुए (शासुः) = वेदज्ञान का संशन करनेवाले प्रभु के प्रति (एथः) = [आगच्छथः] आते हैं। पति-पत्नी संसार-संग्राम में मिलकर जुटे रहते हैं, जीवन-यात्रा के लिए आवश्यक धन को जुटाते हुए प्रभु का उपासन करते हैं। वस्तुतः यह प्रभु का उपासन ही उन्हें शक्ति देता है और मार्ग भ्रष्ट नहीं होने देता। [३] (जनेषु) = लोगों में (यशसा) = अपने यशस्वी कार्यों से हि निश्चयपूर्वक (दूता इव स्थः) = आप प्रभु के दूत से होते हो । आपके जीवन से लोगों को सत्कार्यों की प्रेरणा मिलती है । [४] इस प्रकार के दूत बन सकने के लिए आवश्यक है कि (महिषा इव) = [मह पूजायाम्] प्रभु के पूजक होते हुए आप (अवपानात्) = सोम के [=वीर्य के] शरीर में ही रक्षण करने से मा (अपस्थातम्) = दूर मत होवो | सदा शरीर में ही सोम का रक्षण करनेवाले बनो। यह सोमरक्षण ही आपके जीवन को यशस्वी बनाएगा।
भावार्थ
भावार्थ- पति-पत्नी परस्पर प्रेम से मिलकर चलते हुए कर्त्तव्य कर्मों का पूरण करें । उचित धन कमाते हुए प्रभु का स्तवन करें। अपने जीवन के द्वारा प्रभु का दूत बनें। ऐसा बनने के लिए सोम का रक्षण करें।
विषय
उनके उपदेष्टा के प्रति कर्त्तव्य।
भावार्थ
आप दोनों (उष्टारा) एक दूसरे की सदा कामना करते हुए, परस्पर चाहते हुए, (फर्वरेषु) पूर्ण करने योग्य कार्यों में (श्रयेथे) एक दूसरे का आश्रय लेवें। आप दोनों (प्रायोगा इव) उत्तम योग से युक्त, उत्तम रीति से सम्बद्ध होकर, वा बड़ों से सत्कार्यों में प्रयुक्त होकर (श्वात्र्या) उत्तम धन सम्पन्न, एवं कार्य कुशल होकर (शासुः आ इथः) शास्ता, उपदेष्टा के अधीन होकर रहो। (जनेषु) मनुष्यों के बीच, (दूता इव यशसा हि स्थः) विद्वानों, दूतों, नव संदेश लाने वालों के समान यशस्वी होवो। (महिषा इव) महिष, भैसें जिस प्रकार (अव-पानात्) जलाशय से दूर नहीं जाते उसी प्रकार आप दोनों (महिषा) महान्, बल-सामर्थ्यवान् होकर (अव-पानात्) पालनीय कर्त्तव्य से (मा अप स्थातम्) दूर कभी न हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषि र्भूतांशः काश्यपः॥ अश्विनो देवते॥ छन्द:–१– ३, ७ त्रिष्टुप्। २, ४, ८–११ निचृत त्रिष्टुप्। ५, ६ विराट् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(उष्टारा-इव) यथा क्षुद्दाहं प्राप्तौ सह योगिनौ द्वौ पशू (फर्वरेषु) पूर्णघासस्थानेषु “पर्व पूर्णे” [भ्वादि०] पकारस्य फकारश्छान्दसः ततः औणादिक रन् प्रत्ययः (श्रयेथे) आश्रयतस्तथा युवां कामदाहपीडितौ सन्तावध्यात्मभोजपूर्णेषु महात्माश्रयेषु खल्वाश्रयथः (श्वात्र्या प्रायोगा-इव) धनार्हौ धनिनौ “श्वात्रं धननाम” [निघं० २।१०] प्रयोगे कुशलो यथा (शासुः-एथः) शासकस्य परमात्मप्रशंसकस्य स्तोतुः समीपं गच्छतस्तद्वद् युवा सन्तानधनवन्तौ गृह्यधर्मोपदेष्टुः पुरोहितस्य समीपं गच्छथः (दूता-इव हि यशसा जनेषु स्थः) दूतौ सन्देशवाहकौ राजनि प्रियवादिनौ यथा भवतस्तद्वद् युवां जनेषु जनसमाजेषु स्वकीयसद्गुणानां यशसा प्रियौ भवथः (महिषा इव-अवपानात्-मा-अपस्थातम्) महिषौ जलाशयान्नापतिष्ठतः-न पृथग्भवतस्तद्वद् युवां ज्ञानामृताशयात् पृथक्-न भवथः ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
As the loving and shining twins of nature at the beginning of creation, you take on work worth completion. Like a perfect team of fast and united experts, you move and work within the master’s order and design. Stay within the community with honour and fame like welcome prophets of good news, do not stay away as veteran achievers do not go away from their ideal station of self- fulfilment.
मराठी (1)
भावार्थ
सुशिक्षित स्त्री-पुरुषांनी विषय=काम दाहापासून वाचण्यासाठी संतानधनांनी युक्त असलेल्या गृहस्थधर्माच्या उपदेशकाजवळ जावे. गृहस्थाश्रम चालविण्याचा उपदेश घ्यावा. आपल्या सद्गुणाने यश मिळवून मानव समाजाचे प्रिय बनावे व जेथे ज्ञानामृताचे पान मिळते तेथे आश्रय घ्यावा. ॥२॥
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