ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 106/ मन्त्र 4
ऋषिः - भुतांशः काश्यपः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आ॒पी वो॑ अ॒स्मे पि॒तरे॑व पु॒त्रोग्रेव॑ रु॒चा नृ॒पती॑व तु॒र्यै । इर्ये॑व पु॒ष्ट्यै कि॒रणे॑व भु॒ज्यै श्रु॑ष्टी॒वाने॑व॒ हव॒मा ग॑मिष्टम् ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒पी इति॑ । वः॒ । अ॒स्मे इति॑ । पि॒तरा॑ऽइव । पु॒त्रा । उ॒ग्राऽइ॑व । रु॒चा । नृ॒पती॑ इ॒वेति॑ नृ॒पती॑ऽइव । तु॒र्यै । इर्या॑ऽइव । पु॒ष्ट्यै । कि॒रणा॑ऽइव । भु॒ज्यै । श्रु॒ष्टी॒वाना॑ऽइव । हव॑म् । आ । ग॒मि॒ष्ट॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आपी वो अस्मे पितरेव पुत्रोग्रेव रुचा नृपतीव तुर्यै । इर्येव पुष्ट्यै किरणेव भुज्यै श्रुष्टीवानेव हवमा गमिष्टम् ॥
स्वर रहित पद पाठआपी इति । वः । अस्मे इति । पितराऽइव । पुत्रा । उग्राऽइव । रुचा । नृपती इवेति नृपतीऽइव । तुर्यै । इर्याऽइव । पुष्ट्यै । किरणाऽइव । भुज्यै । श्रुष्टीवानाऽइव । हवम् । आ । गमिष्टम् ॥ १०.१०६.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 106; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(वः) तुम दोनों द्युलोक पृथिवीलोक (अस्मे) हमारे (आपी) कार्यसाधक सम्बन्धी (पितरा-इव) माता पिताओं के समान अन्नरस के देनेवाले हो (उग्रा) तेजस्वी (रुचा) प्रकाशमान सूर्य और चन्द्रमा (पुत्रा-इव) पुत्रसमान प्रियकारी हो (तुर्यै नृपती-इव) हे शीघ्र सिद्धि के लिए दिन रात मनुष्यों के नेता राजा-रानी की भाँति हो (इर्या-इव) प्राण, अपान तुम दोनों अन्नवाले जैसे (पुष्ट्यै) पुष्टि के लिए हो (किरणा-इव भुज्यै) हे सभापति और सेनापति ! तुम दोनों शुक्लभा कृष्णभा किरणों की भाँति पालन क्रिया के लिए हो (श्रुष्टीवाना-इव) शीघ्र मार्गव्यापी घोड़ोंवाले जैसे ऋत्विक् और पुरोहित (हवम्-आगमिष्टम्) होमे जाते हुए यज्ञ के प्रति आते हो ॥४॥
भावार्थ
द्युलोक पृथिवलोक माता पिता के समान अन्न भोजनरस भोजन देनेवाले हैं, उनसे ऐसा लाभ लेना चाहिये, सूर्य और चन्द्रमा पुत्र के समान रक्षक और प्रियकारी हैं, उनसे लाभ लेना चाहिये, दिन-रात राजा-रानी के समान इष्ट सिद्धि करनेवाले हैं, उनसे लाभ लेना चाहिये, प्राण-अपान जीवन पुष्टि देनेवाले हैं, अन्न के आधार पर अच्छा पौष्टिक भोजन करना चाहिये, सभापति और सेनापति सेना प्रजा का पालन करनेवाले होते हैं शुक्लभा और कृष्णभा किरणों के समान, उनसे लाभ लेना चाहिये अनुकूल आचरण करके, शीघ्र मार्गव्यापन करनेवाले घोड़ों के समान ऋत्विक् व पुरोहित हैं यज्ञ करनेवाले इनसे लाभ लेना चाहिये यज्ञ में बुलाकर ॥४॥
विषय
आपी
पदार्थ
[१] प्रभु कहते हैं कि हे पति-पत्नी ! (वः) = [युवां सा० ] आप दोनों (अस्मे) = हमारे (आपी) = बन्धु, होवो (इव) = जैसे (पुत्रा) = पुत्र (पितरा) = माता-पिता के प्रति बन्धुभूत होते हैं । [२] आप दोनों (उग्रा इव) = अपने तेज से उदूर्ण अग्नि और आदित्य के समान (रुचा) = [ रोचमानौ ] दीप्त होवो । (नृपती इव) = जैसे [नृणां पालयितारौ ] मनुष्यों के रक्षक राजा संग्रामयुक्त सेना के लिए रक्षक होते हैं, उसी प्रकार (तुर्ये) [कर्मार्थं त्वरमाणायै] = कर्मों के लिए त्वरा करती हुई जनता के लिए आप भी रक्षक होवो । (इर्या इव) [इरा अन्नं तत् भवौ अन्नवन्तौ आढ्यौ ] = अन्नवाले धनी पुरुषों की तरह (पुष्ट्यै) = अन्नादि के दान से औरों के पोषण के लिए होवो। किरणा (इव) = जैसे आग्नेय व आदित्य किरणें प्रकाश व उष्णता को देती हुई (युज्यै) = पालन के लिए होती हैं उसी प्रकार पति-पत्नी सन्तानों के पालन के लिए हों। [३] (श्रुष्टीवाना इव) = शीघ्रता से युक्त अश्वों के समान तुम दोनों (हवम्) = मेरे आह्वान के प्रति (आगमिष्टम्) = आनेवाले होवो । अर्थात् अन्तः स्थित प्रभु की प्रेरणा को सुनते हुए पति-पत्नी शीघ्रता से कार्यों को करनेवाले हो ।
भावार्थ
भावार्थ- पति-पत्नी प्रभु को अपना बन्धु समझें, प्रभु की प्रेरणा को सुनकर तदनुसार कार्य करनेवाले हों।
विषय
वे पालक, राजा-रानीवत्, ज्ञान-प्रकाशक हों।
भावार्थ
(वः) आप दोनों (अस्मे आपी) हमारे बन्धु होवो। आप दोनों (पितरा इव पुत्रा) मां बाप के समान गुण धारण करने वाले योग्य पुत्रों वा माता पिता के तुल्य पालक जनों के प्रति पुत्रों के तुल्य आज्ञाकारी, स्नेही, वा (पितरा इव) माता पिता के समान (पुत्रा) बहुतों को पालन करने वाले होवो। (रुचा) कान्ति से (उग्रा इव) उग्र, प्रखर, उदय होते हुए सूर्य और चन्द्र के तुल्य तेजस्वी होवो। (तुर्यै नृपती इव) शीघ्रता से कार्य सम्पादन करने वाले भृत्य-जनता के लिये दो राजा-रानी के तुल्य होवो। (पुष्टयै इर्या इव) पुष्टिदायक अन्न समृद्धि के लिये, अन्नप्रद मेघ और सूर्य दोनों के तुल्य होवो। और (भुज्यै किरणा इव) पालन और अन्नादि भोग्य सामग्री की उत्पत्ति के लिये सूर्य की प्रकाश और ताप देने वाली दो प्रकार की किरणों के तुल्य होओ। और आप दोनों (हवम्) यज्ञ को (श्रुष्टीवाना इव) शीघ्रगामी रथों से युक्त रथी सारथी के तुल्य अन्न समृद्धि से युक्त सुखी होकर (आ गभिष्टम्) आओ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषि र्भूतांशः काश्यपः॥ अश्विनो देवते॥ छन्द:–१– ३, ७ त्रिष्टुप्। २, ४, ८–११ निचृत त्रिष्टुप्। ५, ६ विराट् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(वः) युवां हे द्यावापृथिव्यौ ! (अस्मे) अस्माकं (आपी) सम्बन्धिनौ (पितरा-इव) मातापितरौ-इव अन्नरसदातारौ स्थः (उग्रा रुचा पुत्रा इव) तेजस्विनौ प्रकाशमानौ सूर्याचन्द्रमसौ पुत्राविव प्रियकारिणौ स्थः (तुर्यै-नृपती-इव) हे अहोरात्रौ शीघ्रकार्यसिद्ध्यै नराणां नेता राजराज्ञौ इव स्थः (इर्या-इव पुष्ट्यै) हे प्राणापानौ ! युवाम्-अन्नवन्तौ-इव “इरा अन्ननाम” [निघ० २।७] पुष्ट्यै स्थः (किरणा-इव-भुज्यै) हे सभासेनेशौ ! युवां शुक्लभाःकृष्णभारूपकिरणौ-इव-भुक्त्यै-पालनक्रियायै स्थः (श्रुष्टीवाना-इव हवम्-आगमिष्टाम्) शु-अष्टि क्षिप्रव्याप्तिमदश्ववन्तौ-इवाध्वर्यू खल्वृत्विक्पुरोहितौ हूयमानं यज्ञमागच्छथः ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Twin brothers of ours, protective as parents for children, bright as blazing fire and the sun, instant achievers like ruling twins, nourishing and strengthening life like pranic energies, soothing as warmth of sun rays for comfort and joy, pray listen to our call and come immediately as success itself.
मराठी (1)
भावार्थ
द्युलोक, पृथ्वीलोक माता व पिता यांच्याप्रमाणे अन्न भोजनरस भोजन देणारे आहेत. त्यांच्याकडून लाभ घेतला पाहिजे. सूर्य, चंद्र पुत्राप्रमाणे रक्षक व प्रिय आहेत. त्यांच्याकडूनही लाभ करून घेतला पाहिजे. दिवस-रात्र राजा-राणीप्रमाणे इष्ट सिद्ध करणारे आहेत. त्यांचाही उपयोग करून घेतला पाहिजे. प्राण-अपान जीवन पुष्ट करणारे आहेत. अन्नाच्या आधारे चांगले पौष्टिक भोजन केले पाहिजे. सभापती व सेनापती सेना व प्रजेचे पालन करणारे असतात. शुक्लभा व कृष्णभा किरणांप्रमाणे त्यांचा लाभ करून घेतला पाहिजे. अनुकूल आचरण करून, शीघ्र मार्ग व्यापन करणाऱ्या घोड्याप्रमाणे ऋत्विक व पुरोहित आहेत, यज्ञ करणारे आहेत. यज्ञात त्यांना बोलावून त्यांचा लाभ घेतला पाहिजे. ॥४॥
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