ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 106/ मन्त्र 9
ऋषिः - भुतांशः काश्यपः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
बृ॒हन्ते॑व ग॒म्भरे॑षु प्रति॒ष्ठां पादे॑व गा॒धं तर॑ते विदाथः । कर्णे॑व॒ शासु॒रनु॒ हि स्मरा॒थोंऽशे॑व नो भजतं चि॒त्रमप्न॑: ॥
स्वर सहित पद पाठबृ॒हन्ता॑ऽइव । ग॒म्भरे॑षु । प्र॒ति॒ऽस्थाम् । पादा॑ऽइव । गा॒धम् । तर॑ते । वि॒दा॒थः॒ । कर्णा॑ऽइव । शासुः॑ । अनु॑ । हि । स्मरा॑थः । अंशा॑ऽइव । नः॒ । भ॒ज॒त॒म् । चि॒त्रम् । अप्नः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
बृहन्तेव गम्भरेषु प्रतिष्ठां पादेव गाधं तरते विदाथः । कर्णेव शासुरनु हि स्मराथोंऽशेव नो भजतं चित्रमप्न: ॥
स्वर रहित पद पाठबृहन्ताऽइव । गम्भरेषु । प्रतिऽस्थाम् । पादाऽइव । गाधम् । तरते । विदाथः । कर्णाऽइव । शासुः । अनु । हि । स्मराथः । अंशाऽइव । नः । भजतम् । चित्रम् । अप्नः ॥ १०.१०६.९
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 106; मन्त्र » 9
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(बृहन्ता-इव) लम्बे दो मनुष्यों की भाँति (गम्भरेषु प्रतिष्ठाम्) गहरे जल में जैसे प्रतिष्ठा स्थिरता को प्राप्त होते हैं, ऐसे तुम अध्यापक उपदेशक गहन विद्या में प्रतिष्ठा को प्राप्त करते हो (तरते पादा-इव) तैरते हुए मनुष्य के पैर जैसे (गाधं विदाथः) जलान्त जल के निम्न स्थल को जानते हैं, वैसे तुम ज्ञान के अन्तस्थल परमात्मा को जानते हो (कर्णा-इव) दोनों कान (शासुः-अनु-स्मराथः-हि) शासनकर्ता के वचनों को स्मरण करते अर्थात् सुनते ह, ऐसे ही तुम भी शासनकर्ता परमात्मा के उपदेश को सुनते हो (अंशा-इव) व्यापनशील शुक्लभा नीलभा दो किरणों के समान (नः-चित्रम्) हमारे ग्राह्य (अप्नः-भजतम्) कर्म को-सेवाकर्म को सेवन करो ॥९॥
भावार्थ
समाज के अन्दर अध्यापक उपदेशक गम्भीर जलों में जैसे ऊँचे व्यक्ति प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं, ऐसे विद्याविषयों में प्रतिष्ठा प्राप्त करनेवाले हों और अन्तिम लक्ष्य ब्रह्म को जाननेवाले हों, सर्वशासक परमात्मा के आदेश का प्रचार करनेवाले हों तथा हमारे सेवाकर्म या उपहारकर्म को सेवन करके हमें उपदेश देते रहें ॥९॥
विषय
कर्णा- अंशा
पदार्थ
[१] (बृहन्ता इव) = बड़े अर्थात् उन्नत कदवाले पुरुषों की तरह (गम्भरेषु) = गम्भीर स्थानों में भी (प्रतिष्ठाम्) = प्रतिष्ठा को (विदाथः) = आप प्राप्त करते हो । बड़े कदवाले पुरुष गहरे जल में आधार को पा लेते हैं, आप भी दुष्प्रवेश स्थानों में भी स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं। संकट कालों में आप व्याकुल नहीं हो जाते हो । [२] तरते तैरनेवाले के लिए (इव) = जैसे (पादा) = पाँव (गाधम्) = जल की गाधता को (विदाथ:) = जनाते हैं। इसी प्रकार आप प्रत्येक कार्य की (वस्तु) = स्थिति को जाननेवाले होते हो । [३] (कर्णा इव) = जैसे कान उक्त शब्द को सुननेवाले होते हैं, उसी प्रकार हृदयस्थ प्रभु की वाणी को सुननेवाले आप (हि) = निश्चय से (शासुः) = उस शासक प्रभु का (स्मराथः) = स्मरण करते हो । [४] (अंशा इव) = [ अंश to divide ] धनों का उचित संविभाग करनेवालों के समान (नः) = हमारे (चित्रं अप्र:) = अद्भुत कर्म का (भजतः) = आप आश्रय करते हो । प्रभु सदा देते हैं, ये प्रभु स्मरण करनेवाले व्यक्ति भी देनेवाले बनते हैं । प्रभु का सर्वाद्भुत आदरणीय कार्य यही है कि वे सब कुछ देते हैं। ये पति-पत्नी भी देनेवाले बनते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- पति-पत्नी को चाहिए कि संकट में घबरायें नहीं । प्रत्येक कार्य की वस्तुस्थिति को समझें। प्रभु की वाणी को सुनें । सदा देनेवाले बनें ।
विषय
ऐश्वर्य प्राप्त करें।
भावार्थ
(बृहन्ता इव) बड़े, लम्बे ऊंचे, कद्दावर या महा-पुरुषों के तुल्य आप लोग (गम्भरेषु) गंभीर स्थानों पर भी (प्रतिष्ठां विदाथः) प्रतिष्ठा को प्राप्त करो। (तरते पदा इव) तैरने वाले के पैरों के तुल्य (गाधम् विदाथः) जल की थाह के तुल्य अपने इच्छित पदार्थ प्रतिष्ठा और ऐश्वर्य को प्राप्त कराओ। (कर्णा इव शासुः) कानों के तुल्य शासक प्रभु या गुरु के वचनों को (अनु स्मराथः) निरन्तर स्मरण करते रहो। (अंशा इव) व्यापक तेज वाले सूर्य चन्द्रवत् (नः) हमारे बीच (चित्रम् अप्नः भजतम्) अद्भुत रूप, धन एवं कर्म का सेवन करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषि र्भूतांशः काश्यपः॥ अश्विनो देवते॥ छन्द:–१– ३, ७ त्रिष्टुप्। २, ४, ८–११ निचृत त्रिष्टुप्। ५, ६ विराट् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(बृहन्ता-इव) बृहन्तौ लम्बायमानाविव (गम्भरेषु प्रतिष्ठाम्) गम्भीरेषु जलेषु खल्वचलतां प्राप्नुथः एवं युवामध्यापकोपदेशकौ विद्याविषयेषु प्रतिष्ठां प्राप्नुथः (तरते पादा-इव गाधं विदाथः) तरतः “षष्ठ्यर्थे चतुर्थी इत्यपि छान्दसी” जनस्य पादाविव जलान्तं जानीथः तथैव युवामपि ज्ञानस्यान्तिमलक्ष्यं परमात्मानं जानीथः (कर्णा-इव शासुः-अनु हि स्मराथः) कर्णाविव शासनकर्त्तारं-परमात्मानम् अनुस्मरथो हि तद्वचनमित्यर्थः (अंशा-इव नः-चित्रम्-अप्नः-भजतम्) व्यापनशीलौ शुक्लभानीलभानामकौ किरणाविवास्मभ्यं चायनीयं कर्म “अप्नः कर्मनाम” [निघ० २।१] सेवेथाम् ॥९॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Like all great men, you have attained stability of mind and action in the deeper situations of life. Like the feet of the traveller fording a stream, you feel the depth of the water. Like the ears, you listen to the ruler and you remember and remind all others of their duty. Pray, like rays of the sun, please share the wonders of our karma.
मराठी (1)
भावार्थ
खोल पाण्यात उंच व्यक्ती जशा स्थिर उभ्या राहतात तसे समाजात प्राध्यापक व उपदेशक गहन विद्या विषयात प्रतिष्ठित व्हावेत व अंतिम लक्ष्य ब्रह्माला जाणणारे असावेत. सर्वशासक परमात्म्याच्या आदेशाचा प्रचार करणारे असावेत व आमचे सेवाकर्म सेवन करून आम्हाला उपदेश देत राहावेत. ॥९॥
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