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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 106 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 106/ मन्त्र 6
    ऋषिः - भुतांशः काश्यपः देवता - अश्विनौ छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सृ॒ण्ये॑व ज॒र्भरी॑ तु॒र्फरी॑तू नैतो॒शेव॑ तु॒र्फरी॑ पर्फ॒रीका॑ । उ॒द॒न्य॒जेव॒ जेम॑ना मदे॒रू ता मे॑ ज॒राय्व॒जरं॑ म॒रायु॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सृ॒ण्या॑ऽइव । ज॒र्भरी॒ इति॑ । तु॒र्फरी॑तू॒ इति॑ । नै॒तो॒शाऽइ॑व । तु॒र्फरी॒ इति॑ । प॒र्फ॒रीका॑ । उ॒द॒न्य॒जाऽइ॑व । जेम॑ना । म॒दे॒रू इति॑ । ता । मे॒ । ज॒रायु॑ । अ॒जर॑म् । म॒रायु॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सृण्येव जर्भरी तुर्फरीतू नैतोशेव तुर्फरी पर्फरीका । उदन्यजेव जेमना मदेरू ता मे जराय्वजरं मरायु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सृण्याऽइव । जर्भरी इति । तुर्फरीतू इति । नैतोशाऽइव । तुर्फरी इति । पर्फरीका । उदन्यजाऽइव । जेमना । मदेरू इति । ता । मे । जरायु । अजरम् । मरायु ॥ १०.१०६.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 106; मन्त्र » 6
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सृण्या इव) दो दरातियों के समान अश्विनौ हैं जिनमें (जर्भरी-तुर्फरीतू) गुणों के भर्ता और दोषों के हननकर्ता हैं (नैतोशा-इव) अत्यन्त दूरप्रहारक अस्त्र के समान (तुर्फरी पर्फरीका) शीघ्र हनन करनेवाले-विदारण करनेवाले (उदन्यजा-इव) जल में उत्पन्न हुए दो रत्नों की भाँति (जेमना मदेरू) जयशील और हर्षप्रद (ता मे) वे दोनों मेरे (जरायु) जरायु से उत्पन्न (मरायु) मरणशील शरीरों को (अजरम्) जरारहित कर दें वे अश्विनौ दो वैद्य शल्यचिकित्सक और औषधिदाता ॥६॥

    भावार्थ

    मनुष्यों के बीच में दो प्रकार के वैद्य होने चाहिए, एक शल्यचिकित्सक और दूसरा ओषधिचिकित्सक, जैसे खेत को काटने के लिये दो दराँती होती हैं, एक प्रतिकूल वस्तु को काट कर फ़ेंक देनेवाली और दूसरी अनकूल-उपादेय वस्तु को काटकर लेनेवाली होती है, ऐसे ही दोनों वैद्य प्रहारक शस्त्र दूसरे शरीर के दोष को उखाड़कर बाहर फ़ेंक देता है व दूसरा ओषधि से स्वास्थ्यगुणों को अन्दर ले आता है, ये दोनों बहुमूल्य सामुद्रिक रत्न की भाँति हैं, जो शरीर को जरा से दूर करते हैं ॥६॥

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    विषय

    जर्भरी तुर्फरीतू

    पदार्थ

    [१] (सृण्या इव) = [द्विविधा सृणिर्भवति भर्ता च हन्ता च वि० १३ । ५] अंकुश दो कार्य करता है, एक मत्तगज को अवस्थापित करने का दूसरा अनिष्ट गतियों को रोकने का । इसी प्रकार ये पति-पत्नी (जर्भरी) = भरण करनेवाले होते हैं और तुर्फरीतू शत्रुओं के हन्ती होते हैं, वाञ्छनीय तत्त्वों का पोषण करनेवाले और अवाञ्छनीयों को विनष्ट करनेवाले होते हैं । [२] (नैतोशा इव) = [नितोशयति हन्ति ] काम-क्रोध आदि शत्रुओं को विनष्ट करनेवालों के समान (तुर्फरी) = [क्षिप्रहन्तारौ] शीघ्रता से शत्रुओं को विनष्ट करनेवाले तथा (पर्फरीका) = [शत्रूणां विदारयितारौ ] शत्रुओं के विदीर्ण करनेवाले हैं। अथवा पात्र व्यक्तियों को धन से पूर्ण करनेवाले हैं । [धनेन पूरयितारौ ] [३] (उदन्यजा इव) = [उदकजे इव रत्ने सामुद्रे नि० १३ । ५] समुद्रोत्पन्न कान्तियुक्त निर्मल रत्नों के समान (जेमना) = जयशील व (मदेरू) = सदा हर्षयुक्त । [४] ऐसे पति-पत्नी जब माता-पिता बनते हैं तो (ता) = वे (मे) = मेरे (जरायु) = उस जरा से जीर्ण होनेवाले (मरायु) = मरणशील शरीर को अजरम् - अजीर्ण बनाते हैं। अर्थात् माता-पिता पूर्णरूपेण स्वस्थ शरीरवाले होते हैं तो सन्तान का भी शरीर शीघ्र जीर्ण व मृत हो जानेवाला नहीं होता ।

    भावार्थ

    भावार्थ- पति-पत्नी बड़े नियन्त्रित जीवनवाले होकर सदा विजयशील व प्रसन्न मनोवृत्तिवाले हों, ऐसे पति-पत्नी अजीर्ण शक्ति सन्तान को जन्म देते हैं ।

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    विषय

    स्त्री-पुरुषों को अनेक उपयोगी

    भावार्थ

    (सृण्या इव) सन्मार्ग में लेजाने वाले दो नायकों के समान (जर्भरी) चेष्टा वा अधीनों का पालन करते हुए, (तुर्फरीतू) शत्रुओं का विनाश करते हुए और (नैतोशा इव तुर्फरी) दुष्टों का वध करने वाले राजा के पुत्रों के समान (तुर्फरी) दुष्टों का नाश करते हुए, (पर्फरीका) प्रजाओं का पालन और पोषण करते हुए, (उदन्यजा) जल में उत्पन्न समुद्र के दो रत्नों वा मोतियों के समान (जेमना) विजयशील, (मदेरू) सदा सुप्रसन्न होवो। (ता) वे आप दोनों (मे) मेरे (जरायु) वृद्धावस्था को प्राप्त होने वाले और (मरायु) मरणशील देह को (अजरम्) वृद्धावस्था से रहित करो।

    टिप्पणी

    द्विविधा सृणिर्भवति भर्त्ता च हन्ता च। तथाश्विनौ चापि भर्त्तारौ। जर्भरी भर्त्तारावित्यर्थः तुर्फरीतू हन्तारौ। नैतोशेव तुर्फरी पर्फरीका नितोशस्यापत्यं नैतोशं नैतोशेव तुर्फरी क्षिप्रहन्तारौ। उदन्यजेवेत्युदकजे इव रत्ने सामुद्रे चान्द्रमसे मवा जेमने जयमाने जेनमा मदारू तामे जराय्वजरं मरायु। एतज्जरायुजं शरीरं शरदमजीर्णम्॥ नि० १३। ५॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषि र्भूतांशः काश्यपः॥ अश्विनो देवते॥ छन्द:–१– ३, ७ त्रिष्टुप्। २, ४, ८–११ निचृत त्रिष्टुप्। ५, ६ विराट् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सृण्या-इव) सृण्याविव-दात्र्याविव (जर्भरी-तुर्फरीतू) तथा अश्विनौ जर्भरी गुणानां भर्त्तारौ तुर्फरीतू दोषाणां हन्तारौ (नैतोशा-इव) नितोशते हन्तीति नितोशः ‘पचाद्यचि’ दूरप्रहारकमस्त्रं तस्यापत्यं तदधिकं प्रहारकमिव “तोशति वधकर्मा” वैदिको धातुः “सत्रात्व पुरुष्टुत एको वृत्राणि तोशसे” [ऋ० ८।११।१५] तथा “तोशते हिनस्ति तोशति वधकर्मा” [सायणः] नितोशस्य वधकर्त्तुः पुत्रो नैतोशः-तदिव (तुर्फरी) क्षिप्रहन्तारौ (पर्फरीका) विदारयितारौ (उदन्यजा-इव) उदकजे रत्ने समुद्रे चान्द्रमसे मुक्ताशुक्तिके रत्ने-इव (जेमना मदेरू) जयशीले हर्षप्रदौ (ता मे) तौ मम (जरायु) जरायुजं (मरायु) मरणशीलं शरीरं (अजरम्) जरारहितं कुरुतम्, हे अश्विनौ वैद्यौ “अश्विनौ वै देवानां भिषजौ” [ऐ० १।१८] इति निरुक्तानुसारी खल्वर्थोऽयम् ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Shining and supporting like the moon, destroyers of hate and enmity, distributors of boons, powers of punishment for evil, breakers of darkness, pearls of the sea, victorious, joyous, may the Ashvins give the aging mortal like me the gift of unaging health and immortality.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांमध्ये दोन प्रकारचे वैद्य असले पाहिजेत. एक शल्यचिकित्सक व दुसरा औषधीचिकित्सक. जसे शेतात कापणी करण्यासाठी दोन कोयते असतात. एक प्रतिकूल वस्तू कापून फेकण्यासाठी व दुसरी उपादेय वस्तू कापून घेण्यासाठी असते. दोन्ही वैद्यांपैकी एक प्रहारक शस्त्राने शरीराचे दोष काढून टाकतो व दुसरा औषधाच्या स्वास्थ्यपूर्ण गुणांना आत घेऊन येतो. हे दोन्ही समुद्रातील बहुमूल्य रत्नाप्रमाणे आहेत जे शरीराच्या जरावस्थेला दूर करतात. ॥६॥

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