ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 106/ मन्त्र 8
ऋषिः - भुतांशः काश्यपः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
घ॒र्मेव॒ मधु॑ ज॒ठरे॑ स॒नेरू॒ भगे॑विता तु॒र्फरी॒ फारि॒वार॑म् । प॒त॒रेव॑ चच॒रा च॒न्द्रनि॑र्णि॒ङ्मन॑ऋङ्गा मन॒न्या॒३॒॑ न जग्मी॑ ॥
स्वर सहित पद पाठघ॒र्माऽइ॑व । मधु॑ । ज॒ठरे॑ । स॒नेरू॒ इति॑ । भगे॑ऽअविता । तु॒र्फरी॒ इति॑ । फारि॑वा । अर॑म् । प॒त॒राऽइ॑व । च॒च॒रा । च॒न्द्रऽनि॑र्निक् । मनः॑ऽऋङ्गा । म॒न॒न्या॑ । न । जग्मी॒ इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
घर्मेव मधु जठरे सनेरू भगेविता तुर्फरी फारिवारम् । पतरेव चचरा चन्द्रनिर्णिङ्मनऋङ्गा मनन्या३ न जग्मी ॥
स्वर रहित पद पाठघर्माऽइव । मधु । जठरे । सनेरू इति । भगेऽअविता । तुर्फरी इति । फारिवा । अरम् । पतराऽइव । चचरा । चन्द्रऽनिर्निक् । मनःऽऋङ्गा । मनन्या । न । जग्मी इति ॥ १०.१०६.८
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 106; मन्त्र » 8
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(घर्मा-इव) हे आश्विनौ-सभापति, सेनापति ! तुम दोनों प्रकाशमान सूर्य और चन्द्रमा की भाँति वर्तमान हो (जठरे) राष्ट्र के अन्दर (मधु) अन्नरसात्मक खाद्यपदार्थ को (सनेरू) सम्भक्त करनेवाले प्रजा में वितरण करनेवाले होते हो (भगे) तथा राष्ट्रैश्वर्य के निमित्त (अविता) रक्षक हो (तुर्फरी) हिंसक शस्त्रवाले (फारिवा-अरम्) वधक शस्त्र धारण करने में समर्थ हो (पतरा-इव) उड़नेवाले दो कबूतरों की भाँति (चचरा) बहुत सञ्चरणशील हो बहुत सञ्चार करते हो (चन्द्रनिर्णिक्) आह्लादकरूपवाले प्रसन्न मुखवाले (मनः-ऋङ्गा) यथार्थ मनोयोग से राजकार्यसाधक हो (मनन्या न जग्मी) मनन करने में साधु की मनस्वियों की भाँति गति करनेवाले-प्रगति करनेवाले हो ॥८॥
भावार्थ
सभापति और सेनापति राष्ट्र में प्रजाजनों के लिये अन्नादि खाद्य पदार्थों की उचित व्यवस्था करनेवाले राष्ट्रवैभव के रक्षक, शत्रु के लिए शस्त्रधारण करने में समर्थ, राष्ट्र की राजनीति के मनन करने में सफल तथा सर्वत्र प्रगति करने योग्य हों ॥८॥
विषय
मनन्या - जग्मी
पदार्थ
[१] (घर्मा इव) = शक्ति के पुञ्ज बने हुए [घर्म-शक्ति की उष्णता] ये पति-पत्नी (जठरे) = अपने उदरों में (मधु सनेरू) = माधुर्ययुक्त हृदय सात्त्विक भोजनों का ही सेवन करनेवाले होते हैं । (भगे अविता) = ऐश्वर्य में स्थित हुए हुए अपना रक्षण करनेवाले होते हैं । (अरं तुर्फरी) = [अरं अलम्] खूब ही शत्रुओं का हिंसन करनेवाले होते हैं। (फारिवा) = [फारि: आयुधम्, स्फुर to kill ] उत्तम आयुधोंवाले हैं, अपनी इन्द्रियों, मन व बुद्धि को उत्तम बनाते हैं । [२] ये पति-पत्नी (पतरा इव) = पतनशील पक्षियों की तरह (चचरा) = संचरणशील हैं, इनका जीवन खूब क्रियाशील होता है। (चन्द्रनिर्णिड्) = [निर्णिक् = रूपम्] आह्लादक रूपवाले हैं, सदा प्रसन्न मुख होते हैं। मन (ऋंगा) = मन के द्वारा अपना प्रसाधन करनेवाले होते हैं, अर्थात् विचारपूर्वक कार्यों को करते हुए ये अपने जीवन को सगुणों से सुशोभित करते हैं (मनन्या न जग्मी) = जैसे ये मनन में, विचारशीलता में उत्तम होते हैं, उसी प्रकार यज्ञादि उत्तम कर्मों के प्रति जानेवाले होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- पति-पत्नी को चाहिए कि शुद्ध सात्त्विक भोजन करें। विचारशील व क्रियाशील हों । सदा प्रसन्नमुख हों ।
विषय
सात्विक भोजन करें, दीर्घायु हों।
भावार्थ
(घर्मा इव) तेजोयुक्त और आसेचन करने वाला मेघ जैसे (मधु सनेरू) जल को ग्रहण करते हैं उसी प्रकार आप दोनों भी (धर्मा) तेजस्वी होकर (जठरे) उदर में (मधु सनेरू) अन्न जल को ग्रहण करने वाले होवो। आप दोनों। (भगे-अविता) ऐश्वर्य के बल पर अपनी और अन्यों की रक्षा करने वाले तथा (तुर्फरी) शत्रुओं का नाश करने वाले और (अरं फारिवा) अति अधिक उत्तम आयुओं को धारण करने वाले होवो। आप दोनों (पतरा इव) पक्षियों के समान स्वतन्त्र एवं सुख से विचरण करते हुए, (चन्द्र-निर्णिक्) चन्द्र के समान शुद्ध, सुखप्रद रूप वाले होकर (मनन्या न) मननशील विद्वानों के तुल्य (जग्मी) सत्-मार्ग पर चलने वाले होओ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषि र्भूतांशः काश्यपः॥ अश्विनो देवते॥ छन्द:–१– ३, ७ त्रिष्टुप्। २, ४, ८–११ निचृत त्रिष्टुप्। ५, ६ विराट् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(घर्मा-इव) हे अश्विनौ-सभासेनेशौ ! युवां प्रकाशात्मानौ सूर्यचन्द्रमसाविव वर्त्तमानौ “घर्म प्रकाशात्मन्” [यजु० ३८।८ दयानन्दः] (मधु जठरे सनेरू) अन्नरसात्मकं खाद्यं वस्तु राष्ट्रमध्ये “मध्यं वै जठरम्” सम्भजमानौ भवथः (भगे-अविता) ऐश्वर्यनिमित्तं युवां रक्षकौ भवथः “अवितृशब्दाद् द्विवचने डा प्रत्ययश्छान्दसः” सुपां सुलुक्पूर्वसवर्णाच्छेयाडाड्यायाजालः” [अष्टा० ७।१।३९] इति डा (तुर्फरी फारिवा-अरम्) “तृफ हिंसायाम्” तत औणादिकः रिः प्रत्ययः, ऋकारस्य-उकारो रपरः शत्रूणां हिंसकौ तथा हिंसकायुधवन्तौ स्फुर वधार्थकात् स्फुरधातोः “स्फुरति वधकर्मा” [निघ० २।१९] णिचि “चिस्फुरोर्णौ” [अष्टा० ६।१।५३] आकारादेशः तदन्तात् “इः” प्रत्ययः, सकारलोपश्छान्दसः फारिः-वधकशस्त्रम् “छन्दसीवनिपौ” इति मत्वर्थीयो वनिप् प्रत्ययः, फारिवा-वधकशस्त्रवान्, पुनर्द्विवचने डा छान्दसः “सुपां सुलुक्पूर्वसवर्णाच्छेडा” [अष्टा० ७।१।३९] वधकशस्त्रवन्तौ-अलं समर्थौ (पतरा-इव चचरा) पतनशीलौ-उड्डयनशीलौ कपोताविव भृशं सञ्चरन्तौ (चन्द्रनिर्णिक्) चन्द्रमाह्लादकं रूपं ययोस्तौ “निर्णिक् रूपनाम” [निघ० ३।७] “सुपां सुलुक्” [अष्टा० ७।१।३९] इति प्रथमा द्विवचनप्रत्ययस्य लुक् (मनः ऋङ्गा) मनसा प्रसाधनं ययोस्तौ मनसा सङ्कल्पकार्यसाधकौ “ऋञ्जति प्रसाधनकर्मा” [निरु० ६।२२] (मनन्या न जग्मी) मनने साधू “तत्र साधु-यः प्रत्ययः” सुमनस्विनाविवावसरं लक्षयित्वा गन्तारौ “आदॄगमहजनः किकिनौ लिट्च” [अष्टा० ३।२।१७१] इति किन् प्रत्ययः “सुपां सु” [अष्टा० ७।१।३९] इति सु० ॥८॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Like the warmth and cool of the sun and moon, you make us share the honey sweets of life at the heart of the nation. Protectors of the nation’s honour, well equipped with power, force, and armaments for defence, ever on the watch like birds on the move, blissful of form like the moon, dynamic as mind in action, perceptive and responsive as visionary wise sages and tacticians: Such you are, rulers and warriors of the nation of humanity.
मराठी (1)
भावार्थ
सभापती व सेनापती राष्ट्राच्या प्रजाजनांसाठी अन्न इत्यादी खाद्यपदार्थांची योग्य व्यवस्था करणाऱ्या राष्ट्रवैभवाचे रक्षक, शत्रूसाठी शस्त्रधारण करण्यात समर्थ, राष्ट्राच्या राजनीतीचे मनन करण्यात सफल व सर्वत्र प्रगती करण्यायोग्य असावेत. ॥८॥
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