ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 106/ मन्त्र 5
ऋषिः - भुतांशः काश्यपः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
वंस॑गेव पूष॒र्या॑ शि॒म्बाता॑ मि॒त्रेव॑ ऋ॒ता श॒तरा॒ शात॑पन्ता । वाजे॑वो॒च्चा वय॑सा घर्म्ये॒ष्ठा मेषे॑वे॒षा स॑प॒र्या॒३॒॑ पुरी॑षा ॥
स्वर सहित पद पाठवंस॑गाऽइव । पू॒ष॒र्या॑ । शि॒म्बाता॑ । मि॒त्राऽइव॑ । ऋ॒ता । श॒तरा॑ । शात॑पन्ता । वाजा॑ऽइव । उ॒च्चा । वय॑सा । घ॒र्म्ये॒ऽस्था । मेषा॑ऽइव । इ॒षा । स॒प॒र्या॑ । पुरी॑षा ॥
स्वर रहित मन्त्र
वंसगेव पूषर्या शिम्बाता मित्रेव ऋता शतरा शातपन्ता । वाजेवोच्चा वयसा घर्म्येष्ठा मेषेवेषा सपर्या३ पुरीषा ॥
स्वर रहित पद पाठवंसगाऽइव । पूषर्या । शिम्बाता । मित्राऽइव । ऋता । शतरा । शातपन्ता । वाजाऽइव । उच्चा । वयसा । घर्म्येऽस्था । मेषाऽइव । इषा । सपर्या । पुरीषा ॥ १०.१०६.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 106; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(वंसगा-इव-पूषर्या) सम्भजनीय अन्न को प्राप्त करानेवाले दो वृषभों की भाँति ज्ञान के बढ़ानेवाले अध्यापक उपदेशक (शिम्बाता मित्रा-इव) सुख के प्राप्त करानेवाले दो मित्रों के समान (ऋता) वेदज्ञानवाले (शतरा) बहुत ज्ञान देनेवाले (शातपन्ता) बहुत स्तुतिवाले अध्यापक उपदेशक तुम हो (वाजा-इव) दो बलवानों के समान (वयसा-उच्चा) स्वज्ञान बल से तथा अवस्था से श्रेष्ठ हो (घर्म्येष्ठा) तप से साध्य योग में स्थित हुए (मेषा-इव-इषा) जैसे दो भेड़े य दो मेढ़े अन्न से (सपर्या पुरीषा) परिचरण करने योग्य पोषणीय होती हैं ऊन लाभ के लिए, ऐसे ही तुम अध्यापक और उपदेशक परिचर्या करने के योग्य और पोषण करने के योग्य हो ॥५॥
भावार्थ
अध्यापक और उपदेशक ज्ञान की वृद्धि करानेवाले, सुख का प्रवाह बहानेवाले, ज्ञानवान् बहुत ज्ञानदाता, बहुत स्तुति, प्रशंसायोग्य, ज्ञानबल से उत्कृष्ट, योग में स्थित सेवनीय और पोषणीय हैं, उनका सङ्ग करना चाहिये ॥५॥
विषय
वंसगा इव पूषर्या
पदार्थ
[१] आदर्श पति-पत्नी का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि-(वंसगा इव) = वननीय, सुन्दर गतिवाले वृषभों की तरह (पूषर्या) = पुष्ट अवयवोंवाले, स्फीत अंग-प्रत्यंगोंवाले। (शिम्बाता) = [शिम्बेन दुःखानां तनूकरणेन हेतुना अततः] इनकी सब क्रियाएँ लोगों के दुःखों के दूर करने के हेतु से होती हैं। मित्रा (इव) = मित्रों की तरह (ऋता) = ऋतपूर्वक व्यवहारवाले (शतरा) = [शत+रा] शतशः धनों का दान करनेवाले, (शातपन्ता) = [शात निशित, तीक्ष्णस्तुतिको] प्रभु की खूब स्तुति करनेवाले । [२] (वाजा इव) = शक्ति के पुञ्ज घोड़ों के समान (वयसा उच्चा) = आयुष्य के दृष्टिकोण से उत्कृष्ट, अर्थात् उचित पुष्टि को प्राप्त। (घर्म्येष्ठा) = तप में स्थित अथवा [घर्मं दीप्तमन्तरिक्षं] दीप्त हृदयान्तरिक्ष में स्थित, दीप्त हृदयवाले। (मेषा इव) = दो मेढ़ों के समान पुष्ट व गतिशील, (इषा सपर्या) = अन्न से परिचर्या करनेवाले, अर्थात् अन्न का यज्ञों में विनियोग करनेवाले और यज्ञशेष से (पुरीषा) = अपना पालन व पूरण करनेवाले ।
भावार्थ
भावार्थ- पति-पत्नी दृढ़ शरीरवाले, परदुःखहरण की क्रियाओंवाले, स्तुति की प्रवृत्तिवाले व यज्ञशेष से शरीर को पुष्ट करनेवाले हों ।
विषय
वे पालक, राजा-रानीवत्, ज्ञान-प्रकाशक हों।
भावार्थ
आप दोनों (वंसगा इव) दो वृषभों के तुल्य (पूषर्या) स्वयं (परिपुष्ट और अन्यों को अन्नों से पुष्ट करने वाले स्वामी होवो। (मित्रा इव) परस्पर दो स्नेही मित्रों के समान (शिम्बाता) एक दूसरे को सुख-प्राप्त कराने वाले, (ऋता) परस्पर सत्य व्यवहार से युक्त, धर्म मार्ग पर चलने वाले, (शतरा) सैकड़ों, अनेक धनों से सम्पन्न वा सैकड़ों धन देने वाले, (शातपन्ता) सैकड़ों व्यवहारों वा स्तुत्य कार्यों को करने वाले होवो। (वाजा इव उच्चा वयसा) बलवान् दो अश्वों के तुल्य ऊंचे और अवस्था वा बल में भी बड़े आप दोनों (धर्म्ये-स्था इव) तेजस्वी रूपों में स्थित, (मेषा इव) मेष मेषी के तुल्य वा वसन्त के दो मासों के तुल्य, (इषा सपर्या) अन्न से सेवन योग्य, (पुरीषा) अन्यों को भी पुष्ट करने वाले होवो। इति प्रथमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषि र्भूतांशः काश्यपः॥ अश्विनो देवते॥ छन्द:–१– ३, ७ त्रिष्टुप्। २, ४, ८–११ निचृत त्रिष्टुप्। ५, ६ विराट् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(वंसगा-इव पूषर्या) सम्भजनीयमन्नप्रापयितारौ वृषभा “वंसं सम्भजनीयं गमयति स वृषभः” [ऋ० १।५५।१ दयानन्दः] ज्ञानस्य वर्धयितारावध्यापकोपदेशकौ “पूष धातोः अरन् प्रत्ययो भावे पूषरस्तत्रसाधुः पूषर्यौ पोषकौ” (शिम्बाता मित्रा-इव) “शिवं सुखम्” [निघ० ३।६] शिवं सुखं वातयति सेवयतीति शिम्वातः-वकारस्य मकारश्छान्दसः “वात गतिसेवनयोः” [चुरादि०] स्नेहिनौ सखायाविव स्थः (ऋताशतरा शातपन्ता) वेदज्ञानवन्तौ “अकारो मत्वर्थीयः” बहुज्ञानदातारौ बहुस्तुतिमन्तौ-अध्यापकोपदेशकौ स्थः। शतमेव शातम् “सोऽर्थेऽण् पन स्तुतौ ततः तन् औणादिकः कर्त्तरि बाहुलकात्” (वाजा-इव वयसा-उच्चा) वाजवन्तौ वाजिनाविव वाजशब्दादकारो मत्वर्थीयः-अवस्थया यथा उच्चौ तद्वद् युवां स्वज्ञानबलेन श्रेष्ठौ स्थः (घर्म्येष्ठा) तपसा साध्ये योगे स्थितौ (मेषा-इव-इषा-सपर्या-पुरीषा) मेषौ यथा-अन्नेन “इषम्-अन्ननाम” [निघ० २।७] परिचर्यौ “सपर्यति परिचर्याकर्मा” [निघ० ३।५] पोषणीयौ भवतः-ऊर्णलाभाय तद्वद् युवामध्यापकोपदेशकौ परिचरणीयौ पोषणीयौ च भवथः “पुरीषं पुष्णातेः पोषयतेर्वा” [निरु० २।२३] ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Providers of food and nourishment like a team of bullocks, givers of love and peace like friends, omnipresent observers of truth and law, hundredfold performers, saviours and protectors in a hundred ways, high and great like the spirit of energy, harbingers of good health and age, dedicated to Dharma, strong like rams in raiment like the golden fleece, and worthy of service and reverence, that’s what you are.
मराठी (1)
भावार्थ
अध्यापक व उपदेशक ज्ञानाची वृद्धी करविणारे, सुखाचा प्रवाह प्रवाहित करणारे, ज्ञानवान, पुष्कळ ज्ञानदाते, अत्यंत स्तुती, प्रशंसायोग्य, ज्ञानबलाने उत्कृष्ट, योगात स्थित, सेवनीय व पोषणीय आहेत. त्यांचा संग केला पाहिजे. ॥५॥
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