ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 111/ मन्त्र 2
ऋषिः - अष्ट्रादंष्ट्रो वैरूपः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ऋ॒तस्य॒ हि सद॑सो धी॒तिरद्यौ॒त्सं गा॑र्ष्टे॒यो वृ॑ष॒भो गोभि॑रानट् । उद॑तिष्ठत्तवि॒षेणा॒ रवे॑ण म॒हान्ति॑ चि॒त्सं वि॑व्याचा॒ रजां॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒तस्य॑ । हि । सद॑सः । धी॒तिः । अद्यौ॑त् । सम् । गा॒ऋष्टे॒यः । वृ॒ष॒भः । गोभिः॑ । आ॒न॒ट् । उत् । अ॒ति॒ष्ठ॒त् । त॒वि॒षेण॑ । रवे॑ण । म॒हान्ति॑ । चि॒त् । सम् । वि॒व्या॒च॒ । रजां॑सि ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतस्य हि सदसो धीतिरद्यौत्सं गार्ष्टेयो वृषभो गोभिरानट् । उदतिष्ठत्तविषेणा रवेण महान्ति चित्सं विव्याचा रजांसि ॥
स्वर रहित पद पाठऋतस्य । हि । सदसः । धीतिः । अद्यौत् । सम् । गाऋष्टेयः । वृषभः । गोभिः । आनट् । उत् । अतिष्ठत् । तविषेण । रवेण । महान्ति । चित् । सम् । विव्याच । रजांसि ॥ १०.१११.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 111; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ऋतस्य) वेदरूप ज्ञान का तथा (सदसः) सब पदार्थ या लोक-लोकान्तर जिसमें ठहरते हैं, ऐसे ब्रह्माण्डरूप सदन का (हि) अवश्य (धीतिः) धारक परमात्मा (अद्यौत्) प्रकाशित है-प्रकाशमान है (गार्ष्टेयः-वृषभः) एक बार प्रसूता से उत्पन्न वृषभ की भाँति (गोभिः समानट्) गोओं के साथ सम्यग् व्याप्त होता है उन पर अधिकार करता है, उसके समान परमात्मा सब पदार्थों में सम्यग् व्याप्त होता है अथवा आकाश में गर्जनेवाली विद्युदग्नि से सम्बन्ध रखनेवाला, उसका प्रवर्त्तक मेघ की भाँति सुखवर्षक वेदवाणी से स्तुति करनेवालों में व्याप्त होता है (तविषेण) महान् (रवेण) शब्द से-वेदरूप घोष से (उत् अतिष्ठत्) ऊपर स्थित होता है (महान्ति चित्) महान्-बहुत सारे (रजांसि) लोक-लोकान्तरों को (विव्याच) व्याप्त होता है ॥२॥
भावार्थ
परमात्मा वेद तथा ब्रह्माण्ड का धारक स्वयं प्रकाशक स्वरूप है, वह वृषभ के समान बलवान् या मेघ के समान सुखवर्षक, स्तुति करनेवालों में व्याप्त, वेद के उपदेश से उनके अन्दर उत्कृष्टरूप में व्याप्त और लोक-लोकान्तर में व्याप्त है ॥२॥
विषय
नियामक व धारक प्रभु
पदार्थ
[१] (ऋतस्य) = ऋत का, सब प्राकृतिक नियमों का तथा (सदसः) = सारे ब्रह्माण्ड के अधिष्ठानभूत आकाश का (धीतिः) = धारक वह प्रभु (अद्यौत्) = सूर्य के समान देदीप्यमान है। प्रभु नियामक हैं व धारक हैं । [२] वे प्रभु (गाष्र्ष्टयः) = सकृत् प्रसूत होनेवाली इस प्रकृतिरूप गौ के स्वामी हैं । प्रकृति प्रत्येक सृष्टि के प्रारम्भ में एक सन्तत प्रयत्न में ही इस विकृतिरूप सृष्टि को जन्म दे देती है। इस संसार के पदार्थों के द्वारा वे प्रभु (वृषभः) = सब सुखों का वर्षण करनेवाले हैं। ये प्रभु (गोभिः) = ज्ञानरश्मियों के साथ (सं आनट्) = सर्वत्र व्याप्त हो रहे हैं । (तविषेण रवेण) = प्रभु के महान् शब्द से (उद् अतिष्ठत्) = यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उठ खड़ा होता है। प्रभु शब्द करते हैं और प्रकृति इस विकृति के रूप में आ जाती है। यही शब्द द्वारा सृष्टि का निर्माण है। [३] वे प्रभु इन (महान्ति चित्) = अत्यन्त महान्, विशाल भी (रजांसि) = लोकों को (संविव्याच) = व्याप्त कर रहे हैं। प्रभु सर्वव्यापक हैं, सबके अन्दर व्याप्त होकर वे उन लोकों का नियमन कर रहे हैं।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु प्रकृति के नियमों के व आधारभूत आकाश के धारक हैं। प्रभु के शक्तिशाली शब्दों से इन लोकों का निर्माण होता है । इन सब में वे व्याप्त हैं ।
विषय
वृषभ रूप से प्रकृति के स्वामी जगद्-उत्पादक प्रभु का वर्णन। पक्षान्तर में—जलधारक मेघ का वर्णन।
भावार्थ
(ऋतस्य) सत्य ज्ञान, तेज, अन्न, धन, और जगत्-कारणरूप प्रकृति और (सदसः) सब के आश्रय रूप महान् आकाश का (धीतिः) धारण करने वाला प्रभु (अद्यौत्) सूर्य के समान देदीप्यमान है। (गार्ष्टेयः वृषभः गोभिः) एक बार प्रसूत गौ से उत्पन्न वृषभ जिस प्रकार गौओं के साथ शोभा देता है उसी प्रकार (गार्ष्टेयः) एक बार ही समस्त जगत् का प्रसव करने वाली प्रकृति का स्वामी, (वृषभः) सब सुखों का वर्षण करने वाला, प्रभु (गोभिः) वेदवाणियों वा स्तुतियों से प्राप्त होता है, उससे उसका ज्ञान होता है, वह (तविषेण रवेण) बड़े बल से युक्त, सर्वशासक वेदमय शब्द से, गर्जन से मेघ के तुल्य ही (उत् अतिष्ठत्) सबसे ऊपर विराजता है। और (महान्ति रजांसि सं विव्याच) बड़े २ लोकों को भी व्यापता है, (२) मेघ जल का धारक, अन्न का पोषक, भूमि का पालक है। बरसने से ‘वृषभ’, भूमि का हितकारी होने से ‘गाय’ है। वह गर्जना सहित उठता है और समस्त भूमि की धूलियों को जल से पूर्ण करता है।
टिप्पणी
गार्ष्टेयः—सकृत् प्रसूता गौ र्गृष्टिः। इति सायणः। प्रत्यग्रप्रसूता इति काशिका । विश्वक्सेनप्रिया गृष्टिर्वाराही वदरेति च इति अमरः। अत्र लता काचित् बदरी गृष्टिः। गृह्णातेः। क्तिच्। पृषोदरादित्वात् साधुः॥ गर्षति हिनस्ति रोगम्। गृषु हिंसायां क्तिन्। इति मुकुटः। धृष्टिः इति पाठान्तरम्। गृजेर्वा, गृञ्जेर्वा शब्दार्थात् जॄषेर्वा, गृणोतेर्वा, गृह्णातेर्वा गृहेर्वा क्तिन्, तिर्वौणादिकः, पृषोदरादित्वाद् रूपसिद्धिः॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिरष्ट्रादष्ट्रो वैरूपः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, २, ४ त्रिष्टुप्। ३, ६, १० विराट त्रिष्टुप्। ५, ७, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। ८ पादानिचृत् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ऋतस्य सदसः-हि धीतिः-अद्यौत्) वेदरूपज्ञानस्य अथ च सीदन्ति सर्वे पदार्था लोका वा यस्मिन् तथाभूतस्य सदनस्य ब्रह्माण्डस्य धारको हि प्रकाशते सः-परमात्मा (गार्ष्टेयः-वृषभः-गोभिः सम् आनट्) सकृत्प्रसूताया उत्पन्नो वृषभो यथा गोभिः-सह संव्याप्नोति अधिकरोति तद्वत् परमात्मा सर्वान् पदार्थान् संव्याप्नोति अथवा ‘गृज शब्दे’ या गर्जति खल्वाकाशे सा विद्युद्गर्जना तत्सम्बन्धी तत्प्रवर्तयिता गार्ष्टेयो मेघ इव सुखवर्षक-परमात्मा वेदवाग्भिः स्तोतॄन् सं व्याप्नोति (तविषेण रवेण-उत् अतिष्ठत्) महता शब्देन “तविषः महन्नाम” [निघ० ३।३] वेदरूपघोषणोपरि तिष्ठति (महान्ति चित् रजांसि-विव्याच) महान्ति लोकलोकान्तराणि व्याप्नोति ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra is the splendour and sustainer of the regions of light and vapours of skies, he rises and shines, playful like the youthful calf of a heifer or Prakrti at the dawn and comes up in glory with attendant radiations. He rises with the blaze of light and proclamation of its might pervading wide and bold the great expansive regions of space.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा वेद व ब्रह्मांडाचा धारक स्वयंप्रकाशक आहे. तो वृषभाप्रमाणे बलवान किंवा मेघाप्रमाणे सुखवर्षक, स्तुती करणाऱ्यामध्ये व्याप्त वेदाच्या उपदेशाने त्यांच्यात उत्कृष्ट रूपात व्याप्त व लोकलोकांतरात व्याप्त आहे. ॥२॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal