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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 111 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 111/ मन्त्र 7
    ऋषिः - अष्ट्रादंष्ट्रो वैरूपः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सच॑न्त॒ यदु॒षस॒: सूर्ये॑ण चि॒त्राम॑स्य के॒तवो॒ राम॑विन्दन् । आ यन्नक्ष॑त्रं॒ ददृ॑शे दि॒वो न पुन॑र्य॒तो नकि॑र॒द्धा नु वे॑द ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सच॑न्त । यत् । उ॒षसः॑ । सूर्ये॑ण । चि॒त्राम् । अ॒स्य॒ । के॒तवः॑ । राम् । अ॒वि॒न्द॒न् । आ । यत् । नक्ष॑त्रम् । ददृ॑शे । दि॒वः । न । पुनः॑ । य॒तः । नकिः॑ । अ॒द्धा । नु । वे॒द॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सचन्त यदुषस: सूर्येण चित्रामस्य केतवो रामविन्दन् । आ यन्नक्षत्रं ददृशे दिवो न पुनर्यतो नकिरद्धा नु वेद ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सचन्त । यत् । उषसः । सूर्येण । चित्राम् । अस्य । केतवः । राम् । अविन्दन् । आ । यत् । नक्षत्रम् । ददृशे । दिवः । न । पुनः । यतः । नकिः । अद्धा । नु । वेद ॥ १०.१११.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 111; मन्त्र » 7
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यत्) जब जैसे (सूर्येण) सूर्य के साथ (उषसः) उषाधाराएँ प्रभातबेलाएँ (सचन्ते) सङ्गत हो जाती हैं, तब (अस्य केतवः) इसकी रश्मियाँ-किरणें (चित्रम्) विचित्र (राम्) रमणीय शोभा को (अविन्दन्) प्राप्त हो जाती हैं, उसी प्रकार परमात्मा के साथ उसे चाहते हुए स्तोता जन सङ्गत होते हैं, तो विचित्र रमणीय आनन्दमयी आभा को प्राप्त हो जाते हैं (यतः-दिवः-नक्षत्रम्) जैसे दिन में नक्षत्र आकाश में (न-आ ददृशे) सर्वथा दिखाई नहीं देता (पुनः-यत्-नकि) पुनः उस परमात्मा में प्राप्त हुए आत्मा को कोई (नु-अद्धा वेद) तत्त्वतः वास्तव में कोई नहीं जानता ॥७॥

    भावार्थ

    जैसे प्रभातवेलाएँ सूर्य के साथ सङ्गत होकर उसकी किरणों को-प्रकाशधाराओं को प्राप्त हो जाती हैं, वैसे ही स्तुति करनेवाले जन परमात्मा से सङ्गत होकर विचित्र रमणीय आनन्दमयी आभा को प्राप्त कर लेते हैं-और जैसे आकाश में दिन के समय नक्षत्र को कोई देख नहीं पाता है, ऐसे ही परमात्मा में उपासना द्वारा प्राप्त हुए उपासक को तत्त्व से कोई नहीं जान पाता ॥७॥

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    विषय

    उषा का सूर्य से मेल

    पदार्थ

    [१] अपने दोषों के दहन की वृत्तिवाले पुरुष 'उषस्' कहलाते हैं 'उष दाहे' । (यद्) = जब (उषसः) = ये दोष-दहन की वृत्तिवाले पुरुष (सूर्येण) = उस प्रेरक प्रभु के साथ (सचन्त) = संगत होते हैं, उस 'सूर्य' के समान देदीप्यमान ज्योतिवाले प्रभु का उपासन करते हैं, तो (अस्य) = इस प्रभु की (केतवः) = ज्ञान रश्मियाँ (चित्रां राम्) = अद्भुत रयि को अद्भुत ज्ञानैश्वर्य को (अविन्दन्) = प्राप्त कराती हैं। उपासक का ज्ञान भी अद्भुत दीप्तिवाला हो जाता है । [२] (न) = जैसे द्युलोक के सब नक्षत्र दिखते हैं, इसी प्रकार जब इस उपासक के जीवन में (दिवः) = ज्ञान के प्रकाश के कारण (आ) = चारों ओर (यत्) = जो (नक्षत्रम्) = विज्ञान के नक्षत्र हैं वे ददृश = प्रकट होते हैं । इस उपासक का जीवन ज्ञान के नक्षत्रों से दीप्त होता है। इस प्रकार का जीवन बनाकर (पुनः यतः) = फिर अपने ब्रह्मलोक रूप गृह के प्रति लौटते हुए इस उपासक के विषय में अद्धा - सचमुच साक्षात् रूप से नकिः नु वेद-कोई भी नहीं जानता है। मुक्त होकर यह ब्रह्म में किस प्रकार विचरता है ? क्या करता है ? इन बातों का किसी को ठीक-ठीक ज्ञान नहीं हो पाता।

    भावार्थ

    भावार्थ- दोष- दग्ध करने की वृत्तिवाला पुरुष प्रभु से मिलने पर ज्ञान - ज्योति से चमक उठता है और लौटकर ब्रह्मलोक रूप गृह में निवास करता है।

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    विषय

    उषा सूर्य के दृष्टान्त से आत्मा इन्द्रियों का वर्णन।

    भावार्थ

    (यत्) जब (उषसः सूर्येण सचन्त) उषाएं सूर्य के साथ संगत होती हैं तब (अस्य केतवः) इस सूर्य के ज्ञापक प्रकाश (चित्राम् गम्) अद्भुत आश्चर्यकारी रम्यशोभा को (अविन्दन्) प्राप्त कराते हैं। (पुनः) फिर भी (दिवः यत नक्षत्रम् न ददृशे) जो आकाश का नक्षत्र नहीं दिखाई देता (यतः) कारण कि (अद्धा) यह सत्य है कि (नकिः नु वेद) इस को कोई नहीं जानता। इसी प्रकार सूर्य रूप आत्मा से जब कामनावान् इन्द्रियगण संयुक्त होते हैं तब इसके ज्ञान करने के सामर्थ्य (चित्राम् राम्) चेतना से युक्त रयि, अर्थात् देह को धारण करते हैं। (दिवः नक्षत्रम्) तब इस आत्मा को उस प्रकाशमय प्रभु का व्यापक रूप नहीं दिखाई देता। क्यों नहीं दिखाई देता, इसका यथार्थ तत्त्व कोई नहीं जानता, परन्तु है यह सत्य।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिरष्ट्रादष्ट्रो वैरूपः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, २, ४ त्रिष्टुप्। ३, ६, १० विराट त्रिष्टुप्। ५, ७, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। ८ पादानिचृत् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यत्) यदा यथा (सूर्येण) सूर्येण सह (उषसः) उषोवेलाः-उषोधाराः (सचन्ते) सङ्गच्छन्ते “षच समवाये” [भ्वादि०] तदा (अस्य केतवः) अस्य प्रज्ञापका रश्मयः “रश्मयः केतवः” [निरु० १२।१६] (चित्राम्-राम्-अविन्दन्) विचित्रां रमणीयां शोभां प्राप्नुवन्ति तथैव परमात्मा सूर्येण सह तं कामयमाना स्तोतारो जनाः सङ्गच्छन्ते सङ्गच्छमानाः सन्तः केतवो ज्ञानवन्तस्तस्य विचित्रां रमणीयामानन्द-मयीमाभां प्राप्नुवन्ति (यतः-दिवः-नक्षत्रं न-आ ददृशे) यथा दिने आकाशे नक्षत्रं न समन्तात् सर्वथा दृश्यते ‘भावे कर्तृप्रत्ययः’ तत्त्वतो जानाति, आत्मतत्त्वं न दृश्यते (पुनः-यतः-नकिः-नु-अद्धा वेद) पुनः-तत्र परमात्मनि गच्छत आत्मनो न कश्चित् खलु तत्त्वतो वेद ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    When the lights of the dawn join the sun, then its rays assume wonderful beauty and glory. Then (in the day) I see no (other) star of heaven nor any joining the rising dawn again. Why? What is this mystery? Who knows of this? (Only Indra).

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रभातवेळ सूर्याबरोबर संगत करून त्याच्या किरणांना प्रकाशधारांना प्राप्त होते, तसेच स्तुती करणारे लोक परमात्माबरोबर संगत करून रमणीय आनंदमयी आभा प्राप्त करतात व जसे आकाशात दिवसा नक्षत्र कोणी पाहू शकत नाही, तसे परमात्म्याची संगती लाभलेल्या उपासकाला तत्त्वत: कोणी जाणू शकत नाही. ॥७॥

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