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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 111 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 111/ मन्त्र 8
    ऋषिः - अष्ट्रादंष्ट्रो वैरूपः देवता - इन्द्र: छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    दू॒रं किल॑ प्रथ॒मा ज॑ग्मुरासा॒मिन्द्र॑स्य॒ याः प्र॑स॒वे स॒स्रुराप॑: । क्व॑ स्वि॒दग्रं॒ क्व॑ बु॒ध्न आ॑सा॒मापो॒ मध्यं॒ क्व॑ वो नू॒नमन्त॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दू॒रम् । किल॑ । प्र॒थ॒माः । ज॒ग्मुः॒ । आ॒सा॒म् । इन्द्र॑स्य । याः । प्र॒ऽस॒वे । स॒स्रुः । आपः॑ । क्व॑ । स्वि॒त् । अग्र॑म् । क्व॑ । बु॒ध्नः । आ॒सा॒म् । आपः॑ । मध्य॑म् । क्व॑ । वः॒ । नू॒नम् । अन्तः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दूरं किल प्रथमा जग्मुरासामिन्द्रस्य याः प्रसवे सस्रुराप: । क्व स्विदग्रं क्व बुध्न आसामापो मध्यं क्व वो नूनमन्त: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दूरम् । किल । प्रथमाः । जग्मुः । आसाम् । इन्द्रस्य । याः । प्रऽसवे । सस्रुः । आपः । क्व । स्वित् । अग्रम् । क्व । बुध्नः । आसाम् । आपः । मध्यम् । क्व । वः । नूनम् । अन्तः ॥ १०.१११.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 111; मन्त्र » 8
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (आसाम्) इन व्यापनशील परमाणुधाराओं के मध्य में या आप्त मनुष्यप्रजाओं के मध्य में (याः आपः) जो आप्त प्रजाएँ या परमाणुधाराएँ (इन्द्रस्य) परमात्मा के (प्रसवे) प्रशासन में या ऐश्वर्य के निमित्त (सस्रुः) प्रगति करते हैं या प्राप्ति करते हैं (प्रथमाः प्रथम प्रादुर्भूत हुए या प्रमुख श्रेष्ठ बने (दूरं किल जग्मुः) दूर स्थान या जगत् से दूर मोक्ष को जाते हैं (आपः) व्यापनशील परमाणुधाराएँ या आप्त प्रजाएँ (आसाम्) इनमें से (क्व स्वित्-अग्रम्) तुम्हारे में आगे कौन है (क्व बुध्नः) कौन आधार है (क्व मध्यम्) मध्य कहाँ है (क्व नूनं वः-अन्तः) तुम्हारे में कहाँ अन्त है-अन्त में कौन है ? ॥८॥

    भावार्थ

    सृष्टिरचना में परमात्मा ने परमाणुओं में से किन्हीं परमाणुओं को ऊँचा फेंका, किन्हीं को नीचे आधार बनाया, किन्हीं को मध्य में, किन्हीं को अन्त में दूर-दूर तक फेंका है एवं आप्त मनुष्यों को किन्हीं को जगत् से दूर मोक्ष में, किन्हीं को जीवन्मुक्त, किन्हीं को मुमुक्षुरूप में, किन्हीं को उपासक स्तुतिकर्ता के रूप में अपनाया है, जो प्राप्त करते हैं ॥८॥

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    विषय

    रेतः कणों का शरीर में व्यापन

    पदार्थ

    [१] (याः) = जो (आपः) = रेतः कणरूप जल (इन्द्रस्य) = उस शत्रुओं का विदारण करनेवाले प्रभु की (प्रसवे) = प्रेरणा में (सस्स्रुः) = शरीर के अन्दर ही गति करते हैं, (आसाम्) = इन रेतः कणों के (प्रथमाः) = सर्वप्रथम उत्पन्न होनेवाले कण (किल) = निश्चय से (दूरं जग्मुः) = शरीर में दूर-दूर पहुँचनेवाले होते हैं । रुधिर में व्याप्त होकर ये शरीर में सर्वत्र पहुँचते हैं । [२] (आसाम्) = इन रेतः कणों का (अग्रं क स्वित्) = भला अग्रभाग कहाँ है ? इनका (बुध्न:) = मूल क्व कहाँ है ? हे (आपः) = रेतः कणो ! (वः मध्यं क्व) = तुम्हारा मध्य कहाँ है ? सर्वत्र व्याप्त होने से इनका आदि, मध्य व मूल नहीं कहा जा सकता । बस इतना ही कह सकते हैं कि (नूनम्) = निश्चय से ये (अन्तः) = शरीर के अन्दर हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु की उपासना से रेतः कणों का शरीर में ही रक्षण होता है और वे शरीर में सर्वत्र व्याप्त होकर शरीर को नीरोग निर्मल व दीप्त बनाते हैं।

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    विषय

    मूल प्रकृति (आपः) का व्यापक सूक्ष्म रूप। उसकी व्यवस्था।

    भावार्थ

    (यः) जो (आपः) सूक्ष्म जलों के समान व्यापने वाले, जगत् के आदिकारण रूप प्रकृति के परमाणु (इन्द्रस्य) उस ऐश्वर्यवान् प्रभु के (प्र-सवे) महान् सर्वोत्कृष्ट शासन में (सस्रुः) गति करते हैं (आसाम्) उनमें से (प्रथमाः) अनेक प्रारम्भ दशा में ही (दूरं किल जग्मुः) दूर तक पहले ही व्यापे हुए हैं। (आसाम् क्वस्वित् अग्रम्) इनका अग्र, प्रारम्भ कहां है ? (क्व बुध्नः) इनका आश्रय, मूल कहां हैं ? हे (आपः) समस्त प्राकृत लोको ! तुम ही कहो (वः मध्यम् क्व) तुम्हारा बीच कौनसा, और (नूनम् अन्तः क्व) निश्चय से तुम्हारा अन्त कहां है ? यह ईश्वर का ही महान् सामर्थ्य है, कि वह अनन्त आकाश में व्यापक जगत्, लोक-लोकान्तरों को व्यवस्थित रूप से चला रहा है। इसी प्रकार यह जीव भी अनन्त दूर दूर तक विद्यमान हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिरष्ट्रादष्ट्रो वैरूपः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, २, ४ त्रिष्टुप्। ३, ६, १० विराट त्रिष्टुप्। ५, ७, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। ८ पादानिचृत् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (आसाम्) आसामपां व्यापनशीलानां परमाणुधाराणां मध्ये यद्वाऽऽप्तमनुष्यप्रजानां मध्ये “मनुष्या वा आपश्चन्द्राः” [श० ७।३।१।२०] ‘आपः-आप्ताः प्रजाः” [यजु० ६।२७ दयानन्दः] (याः-आपः-इन्द्रस्य प्रसवे-सस्रुः) ये हीन्द्रस्य परमात्मनः प्रशासने प्रकृष्टैश्वर्यनिमित्तं स्रवन्ति प्रगच्छन्ति प्राप्तिं कुर्वन्ति वा (प्रथमाः-दूरं किल जग्मुः) प्रथमं प्रादुर्भूतो यद्वा प्रमुखा उत्तमास्तु-दूरस्थानं जगतो दूरं मोक्षं वा गच्छति (आपः) हे व्यापनशीलाः परमाणवः ! आप्तप्रजाः वा (आसां क्व स्वित्-अग्रम्) आसां युष्माकमग्रं क्व ह्यस्ति (क्व बुध्नः) कुत्र यूयमाधारो वा (क्व मध्यम्) मध्यं कुत्रास्ति (क्व नूनं वः-अन्तः) युष्माकं कुत्र सम्प्रति खल्वन्तः-इति जिज्ञासा ॥८॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    At the rise of the sun, the first rays and the first mists of the morning move and go far far away. Who knows what and where is their beginning, what is their basic foundation, what is their middle, and what and where their end? Who among you knows this mystery? (Only Indra).

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सृष्टिरचनेत परमात्म्याने परमाणूंमधून काही परमाणूंना वर तर काहींना खाली आधार बनविले. काहींना मध्यभागी तर काहींना दूरदूरपर्यंत फेकले व आप्त माणसांना दूर मोक्षात, काहींना जीवनमुक्त, काहींना मुमुक्षूरूपात तर उपासक स्तुतिकर्ता रूपात आपलेसे केलेले आहे. ॥८॥

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