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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 111 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 111/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अष्ट्रादंष्ट्रो वैरूपः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इन्द्रो॑ म॒ह्ना म॑ह॒तो अ॑र्ण॒वस्य॑ व्र॒तामि॑ना॒दङ्गि॑रोभिर्गृणा॒नः । पु॒रूणि॑ चि॒न्नि त॑ताना॒ रजां॑सि दा॒धार॒ यो ध॒रुणं॑ स॒त्यता॑ता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रः॑ । म॒ह्ना । म॒ह॒तः । अ॒र्ण॒वस्य॑ । व्र॒ता । अ॒मि॒ना॒त् । अङ्गि॑रःऽभिः । गृ॒णा॒नः । पु॒रूणि॑ । चि॒त् । नि । त॒ता॒न॒ । रजां॑सि । दा॒धार॑ । यः । ध॒रुण॑म् । स॒त्यऽता॑ता ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रो मह्ना महतो अर्णवस्य व्रतामिनादङ्गिरोभिर्गृणानः । पुरूणि चिन्नि तताना रजांसि दाधार यो धरुणं सत्यताता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रः । मह्ना । महतः । अर्णवस्य । व्रता । अमिनात् । अङ्गिरःऽभिः । गृणानः । पुरूणि । चित् । नि । ततान । रजांसि । दाधार । यः । धरुणम् । सत्यऽताता ॥ १०.१११.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 111; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा (मह्ना) महत्त्व से (महतः) महान् (अर्णवस्य) परमाणुसमुद्र के (व्रता) कर्मों-चञ्चलरूपों को (अमिनात्) नष्ट करता है (अङ्गिरोभिः) अग्निकणों को (गृणानः) विज्ञान से संयुक्त करता हुआ (पुरूणि चित्) बहुत-असंख्य ही (रजांसि) लोक-लोकान्तरों को (निततान) नियत फैलाता है (यः) जो (सत्यताता) सत्यस्वरूप अविनाशी (धरुणम्) धारक आकाशमण्डल को (दाधार) धारण करता है ॥४॥

    भावार्थ

    परमात्मा अपने महत्त्व से परमाणुसमुद्र के चञ्चल कर्मों को नष्ट करता है, अग्निकणों को संयुक्त करता है, आकाशमण्डल को धारण करता है, लोक-लोकान्तरों को नियतरूप से फैलाता है ॥४॥

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    विषय

    महान् अर्णव का शोषण [ काम - विनाश]

    पदार्थ

    [१] (अंगिरोभिः) = [अगि गतौ ] गतिशील-क्रियामय जीवनवाले पुरुषों से (गृणानः) = स्तुति किया जाता हुआ (इन्द्रः) = सब शत्रुओं का विदारण करनेवाला प्रभु (मह्ना) = अपनी महिमा से (महतः अर्णवस्य) = इस विशाल समुद्र तुल्य काम [कामो हि समुद्रः ] के (व्रता) = व्रतों को (अमिनात्) = हिंसित करता है। काम का व्रत 'मदनो मन्मथो भारः ' इन नामों से ध्वनित हो रहा है । यह मनुष्य को [क] नशे में ले जाता है, [ख] उसकी चेतना को नष्ट करता है और [ग] उसे समाप्त कर देता है । [२] वे प्रभु (चित्) = निश्चय से (पुरूणि) = पालित व पूरित (रजांसि) = लोकों को (निततान) = निश्चय से विस्तृत करते हैं। शरीर के अंग-प्रत्यंग ही यहाँ लोक हैं। काम के विनाश के द्वारा प्रभु इन सब लोकों को बड़ा सुन्दर बनाते हैं। इन लोकों में रोग व मलिनताओं का वास नहीं होता । [३३] इस प्रकार प्रभु वे हैं (यः) = जो (सत्यताता) = सत्य का विस्तार होने पर (धरणम्) = धारक बल को (दाधार) = हमारे में धारण करते हैं। इस धरुण को प्राप्त करके हम सुन्दर दीर्घ जीवनवाले बन पाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु काम समुद्र का शोषण करके हमारी शक्तियों का वर्धन करते हैं ।

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    विषय

    मेघ से वृष्टिवत् प्रकृति से जगत् सर्ग का वर्णन।

    भावार्थ

    (इन्द्रः अर्णवस्य व्रता अमिनात्) जिस प्रकार सूर्य जल वाले मेघ के जलों को आघात करता, उत्पन्न करता, और पृथिवी पर फेंकता है उसी प्रकार (इन्द्रः) इस महती प्रकृति को धारण करने वाला परमेश्वर (मह्ना) अपने महान् सामर्थ्य से (महतः अर्णवस्य) महाजलमय आकाश के बीच (व्रता अमिनात्) नाना कर्मों को, नाना सृष्टियों को रचता और चलाता है। वह (अंगिरोभिः गृणानः) विद्वानों से स्तुति किया जाता और (अंगिरोभिः) तेजोमय सूर्यो से बतलाया जाता है। वे ही उसकी सत्ता को प्रमाणित करते हैं। क्योंकि वही (पुरुणि रजांसि) अनेकों लोकों को (नि ततान) नित्य रचता है (यः) जो (सत्य-ताता) सत्य रूप वा सत्कारण से बनने वाले जगत् का विस्तार करने हारा होकर (धरुणं दाधार) सबके धारक महान् आकाश को भी धारण करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिरष्ट्रादष्ट्रो वैरूपः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, २, ४ त्रिष्टुप्। ३, ६, १० विराट त्रिष्टुप्। ५, ७, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। ८ पादानिचृत् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्र) ऐश्वर्यवान् परमात्मा (मह्ना) महत्त्वेन (महतः-अर्णवस्य) बृहतः परमाणुसमुद्रस्य (व्रता-अमिनात्) कर्माणि चाञ्चल्यानि हिनस्ति (अङ्गिरोभिः-गृणानः) अग्निकणान् द्वितीयार्थे तृतीया व्यत्ययेन, विज्ञानेन संयोजयन् “गृ विज्ञाने” [चुरादि०] ‘विकरणव्यत्ययेन श्ना’ (पुरूणि-चित्-रजांसि नि ततान) बहूनि लोकलोकान्तराणि नियत्या तनोति (यः-सत्यताता धरुणं दाधार) यः सत्यस्वरूपोऽविनाशी धारकमाकाशमण्डलं धारयति ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra is lord almighty by his own omnipotence, ruling the spatial ocean of particles of matter and energy, both manifesting and withdrawing them, homage being done by vibrant sages and blazing stars of the universe. He creates and extends the many many worlds of space and he wields the law and the power that holds the entire worlds of existence.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा आपल्या सामर्थ्याने परमाणू समुद्राच्या चंचल कर्मांना नष्ट करतो. अग्निकणांना संयुक्त करतो. आकाशमंडलाला धारण करतो. लोकलोकांतरांना नियंत्रित करतो. ॥४॥

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