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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 111 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 111/ मन्त्र 9
    ऋषिः - अष्ट्रादंष्ट्रो वैरूपः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सृ॒जः सिन्धूँ॒रहि॑ना जग्रसा॒नाँ आदिदे॒ताः प्र वि॑विज्रे ज॒वेन॑ । मुमु॑क्षमाणा उ॒त या मु॑मु॒च्रेऽधेदे॒ता न र॑मन्ते॒ निति॑क्ताः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सृ॒जः । सिन्धू॑न् । अहि॑ना । ज॒ग्र॒सा॒नान् । आत् । इत् । ए॒ताः । प्र । वि॒वि॒ज्रे॒ । ज॒वेन॑ । मुमु॑क्षमाणाः । उ॒त । याः । मु॒मु॒च्रे । अध॑ । इत् । ए॒ताः । न । र॒म॒न्ते॒ । निऽति॑क्ताः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सृजः सिन्धूँरहिना जग्रसानाँ आदिदेताः प्र विविज्रे जवेन । मुमुक्षमाणा उत या मुमुच्रेऽधेदेता न रमन्ते नितिक्ताः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सृजः । सिन्धून् । अहिना । जग्रसानान् । आत् । इत् । एताः । प्र । विविज्रे । जवेन । मुमुक्षमाणाः । उत । याः । मुमुच्रे । अध । इत् । एताः । न । रमन्ते । निऽतिक्ताः ॥ १०.१११.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 111; मन्त्र » 9
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अहिना) मेघ से (जग्रसानान्) ग्रस्त अन्तर्हित किये छिपाये हुए (सिन्धून्) जलप्रवाहों को (सृजः) सूर्य अपने ताप वज्र से प्रेरित करके बाहर निकालता है (आत्-इत्) अनन्तर ही (एताः) ये स्यन्दमान जलप्रवाह (जवेन) वेग से (प्र विविज्रे) चलित हो जाते हैं, इसी प्रकार आघातक अज्ञान से ग्रस्त हुए जनों को परमात्मा वेदज्ञान देकर मुक्त करता है, वेग से प्रकृष्ट ज्ञानों में चलते हुए (पुनः-मुमुक्षमाणाः) मोक्ष को चाहते हुए (उत) और (याः) जो आप्त प्रजाएँ मुक्त हैं (अध-इत्) अनन्तर ही (एताः-नितिक्ताः) ये शान्त (न रमन्ते) यहाँ जगत् में रमण नहीं करते हैं ॥९॥

    भावार्थ

    जैसे मेघों से घिरे हुए जलों को सूर्य अपने ताप से बाहर निकाल देता है और वे वेग से बहने लगते हैं, इसी प्रकार अज्ञान से घिरे हुए मनुष्यों को परमात्मा वेदज्ञान द्वारा बाहर निकालता है, पुनः वे ज्ञानों में प्रवेश कर मोक्ष चाहते हुए शान्त हुए जगत् में रमण नहीं करते, मुक्त हो जाते हैं ॥९॥

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    विषय

    अहिग्रसन से [छुटकारा] मुक्ति

    पदार्थ

    [१] कामवासना 'वृत्र' कहलाती है, यह ज्ञान पर आवरण रूप होती है। यह हमारा विनाश करने के कारण 'अहि' [आहन्ति] कही जाती है। यह शरीर में प्रवाहित होनेवाले [ स्पन्दने] रेतःकणों को विनष्ट करती है मानो उन्हें ग्रस लेती है। हम प्रभु का उपासन करते हैं तो प्रभु इस अहि से इन सिन्धुओं को मुक्त करता है, तब ये शरीर में व्याप्त होनेवाले होते हैं। (अहिना) = वासनारूप सर्प से (जग्रसानान्) = निरन्तर ग्रसे जाते हुए (सिन्धून्) = इन शरीर में प्रवाहित होनेवाले रेतः कणों को, हे प्रभो ! आप ही (सृजः) = मुक्त करते हैं । वासना रूप अहि से मुक्त होने पर (एताः) = ये रेतः कण (आत् इत्) = शीघ्र ही जवेन वेग से प्रविविज्रे शरीर में सर्वत्र गतिवाले होते हैं [विज्=चलने] । [२] (मुमुक्षमाणाः) = उस प्रभु के द्वारा वासनारूप अहि से मुक्त किये जाने के लिए चाहे जाते हुए हैं (उत) = और (या:) = जो मुमुचे मुक्त किये गये हैं, (एताः) = ये सब रेतःकण (अध इत्) = इस वासना से मुक्ति के बाद (नितिक्ताः) = नितरां तीव्र गतिवाले हुए हुए (न रमन्ते) = विषय क्रीड़ा में नहीं ठहरते । विषय क्रीडा से ऊपर उठकर ब्रह्म प्राप्ति के मार्ग पर चलनेवाले होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु कृपा से रेतःकण वासनाओं से ग्रस्त न होकर, हमें तीव्र गति से प्रभु प्राप्ति के मार्ग पर ले चलते हैं।

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    विषय

    मेघ से निकलती जलधाराओं के तुल्य प्रकृति-बन्धन में आने वा उससे निकलने वाले आत्माओं का वर्णन। सिन्धु रूप से जीवात्माओं की गति का वर्णन।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (अहिना जग्रसानान्) मेघ से ग्रसी हुई जलधाराओं को विद्युत् वा सूर्य (सृजः) प्रकट करता है, (आत् इत् एताः जवेन प्रविविज्रे) और अनन्तर उनको बड़े वेग से बहाती निकालती है और (उत) और (याः मुमुक्षमाणाः) जो मुक्त हो रही है (उत याः मुमुच्ररे) और जो मुक्त हो जाती हैं (एताः) वे (नि तिक्ताः) अति तीक्ष्ण वेग होकर (न रमन्ते) एक स्थान पर नहीं ठहरतीं, ठीक उसी प्रकार ये समस्त लोक और जीवगण वेग से गति करने से ‘सिन्धु’ हैं, अज्ञान-आवरण से ग्रस्त होते हैं। जब प्रभु उनको प्रेरित करता है तब वे उसकी प्रेरणा के वेग से आगे बढ़ते हैं, जो मुक्त हो रहे वा हो चुके से हैं वे सर्वथा निर्बन्ध होकर फिर इस जगत्-जाल में सुख नहीं पाते, वे इसमें नहीं रमते।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिरष्ट्रादष्ट्रो वैरूपः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, २, ४ त्रिष्टुप्। ३, ६, १० विराट त्रिष्टुप्। ५, ७, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। ८ पादानिचृत् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अहिना जग्रसानान् सिन्धून् सृजः) मेघेन “अहिनाम” [निघ० १।१०] ग्रस्तान् अन्तर्निहितान् सिन्धून् जलप्रवाहान् सूर्यः-तापवज्रेण प्रहृत्य सृजति बहिर्गमयति (आत्-इत्-एताः-जवेन प्र विविज्रे) अनन्तरमेव एताः-सिन्धवः-स्यन्दमाना आपो वेगेन चलिता बभूवुः। एवमेव आघातकेनाज्ञानेन ग्रस्तान् जनान् परमात्मा वेदज्ञानमादाय विमोचयति ते विमुक्ता वेगेन प्रकृष्टं ज्ञानेषु गच्छन्ति। पुनः (मुमुक्षमाणाः) मोक्षं काङ्क्षन्तः (उत) अपि च (याः) आसाः प्रजाः-मनुष्यप्रजाः मुक्ताः सन्ति (अध-इत्) अनन्तरमेव (एताः-नितिक्ताः-न रमन्ते) निज्वलाः-“नितरां शुद्धाः” [सायणः] तिज निशाने-उपसर्गयोगाददीप्ता नात्र जगति रमन्ते ॥९॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, when you release the showers of rain engulfed by the cloud, then these flow down free and rapidly. Thus those who want freedom and release from bondage are released by Indra, and once released, they do not stop on way involved in the bonds (they have cast away).

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे मेघात असलेले जल सूर्य आपल्या तापातून बाहेर काढतो व ते वेगाने वाहू लागते. याच प्रकारे अज्ञानात गुरफटलेल्या माणसांना परमात्मा वेदज्ञानाद्वारे बाहेर काढतो. नंतर ते ज्ञानात प्रवेश करून मोक्षाची कामना करत जगात रमण करत नाहीत, मुक्त होतात. ॥९॥

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