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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 111 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 111/ मन्त्र 5
    ऋषिः - अष्ट्रादंष्ट्रो वैरूपः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इन्द्रो॑ दि॒वः प्र॑ति॒मानं॑ पृथि॒व्या विश्वा॑ वेद॒ सव॑ना॒ हन्ति॒ शुष्ण॑म् । म॒हीं चि॒द्द्यामात॑नो॒त्सूर्ये॑ण चा॒स्कम्भ॑ चि॒त्कम्भ॑नेन॒ स्कभी॑यान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रः॑ । दि॒वः । प्र॒ति॒ऽमान॑म् । पृ॒थि॒व्याः । विश्वा॑ । वे॒द॒ । सव॑ना । हन्ति॑ । शुष्ण॑म् । म॒हीम् । चि॒त् । द्याम् । आ । अ॒त॒नो॒त् । सूर्ये॑ण । चा॒स्कम्भ॑ । चि॒त् । कम्भ॑नेन । स्कभी॑यान् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रो दिवः प्रतिमानं पृथिव्या विश्वा वेद सवना हन्ति शुष्णम् । महीं चिद्द्यामातनोत्सूर्येण चास्कम्भ चित्कम्भनेन स्कभीयान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रः । दिवः । प्रतिऽमानम् । पृथिव्याः । विश्वा । वेद । सवना । हन्ति । शुष्णम् । महीम् । चित् । द्याम् । आ । अतनोत् । सूर्येण । चास्कम्भ । चित् । कम्भनेन । स्कभीयान् ॥ १०.१११.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 111; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा (दिवः) द्युलोक का (पृथिव्याः) पृथिवी का (प्रतिमानम्) प्रतिष्ठित करने का अधिष्ठान है (विश्वा) सारे (सवना) उत्पन्न आकाशीय पिण्डों नक्षत्रों को (वेद) जानता है स्वाश्रय में लेता है (शुष्णं हन्ति) शोषणकर्ता आवरणता को जलवर्षा कर नष्ट करता है (महीम्) महती (चित्) भी (द्याम्) द्योतनरूप गगनस्थिति को (आतनोत्) सूर्य द्वारा भलीभाँति प्रकाशित करता है (स्कम्भीयान्) अत्यन्त स्कम्भित करनेवाला थामनेवाला परमात्मा (सूर्येण) सूर्य द्वारा (स्कम्भनेन) स्कम्भनबल से (चास्कम्भ) स्कम्भित करता है ॥५॥

    भावार्थ

    परमात्मा महान् नक्षत्र तारायुक्त गगनमण्डल को सूर्य द्वारा थामता है, चमकाता है, द्युलोक पृथिवीलोक का अधिष्ठान है, सब लोकों को जानता है, शोषकता को जलवर्षा कर नष्ट करता है ॥५॥

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    विषय

    निर्माता व धारक प्रभु

    पदार्थ

    [१] (इन्द्र:) = यह परमैश्वर्यशाली प्रभु (दिवः) = द्युलोक का तथा (पृथिव्याः) = पृथिवीलोक का (प्रतिमानम्) = प्रतिमान है, बनानेवाला है। (विश्वा सवना) = सब लोकों को ये वेद-जानते हैं । प्रभु के ज्ञान से कुछ भी तिरोहित नहीं । ये प्रभु ही (शुष्णम्) = हमारा शोषण करनेवाले इस काम को हन्ति नष्ट करते हैं । [२] काम को नष्ट करके, ज्ञान के आवरणभूत वृत्र को समाप्त करके, प्रभु (चित्) = निश्चय से (महीं द्याम्) = इस महनीय अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मस्तिष्क रूप द्युलोक को सूर्येण ज्ञानरूप सूर्य से (आतनोत्) = प्रकाशयुक्त करके विस्तृत करते हैं। प्रभु वासनारूप आवरण को दूर करते हैं और ज्ञानरूप सूर्य के प्रकाश को सर्वत्र विस्तृत करते हैं। [३] (स्कभीयान्) = वे धारण करनेवालों में उत्तम प्रभु (स्कम्भनेन) = अपनी धारक शक्ति से (चास्कम्भ) = इस ब्रह्माण्ड का धारण करते हैं। वस्तुतः प्रभु ही सबके आधार हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु ही ब्रह्माण्ड के निर्माण व धारण करनेवाले हों। वे ही वासनावृत्र को विनष्ट करके हमारे जीवनों में ज्ञान सूर्य का उदय करते हैं ।

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    विषय

    सर्वातिशायी परमेश्वर, सर्वदुःखनाशक, विश्व को थामने वाला है। स्कम्भ का रहस्य।

    भावार्थ

    (इन्द्रः दिवः प्रति-मानम्) वह परमेश्वर इस महान् आकाश का भी मापने वाला और (पृथिव्याः प्रति-मानम्) पृथिवी का भी मापने वाला, तथा उन दोनों से महान् है। वह (विश्वा सवना वेद) समस्त लोकों को जानता है। वह (शुष्णम् हन्ति) समस्त दुःखों का नाश करता है। (सूर्येण द्यां महीम् आ तनोत्) वह सूर्य के द्वारा आकाश और पृथिवी को व्यापता है, उसे प्रकाशित करता तथा वृष्टि, अन्न आदि से सम्पन्न करता है। वह (स्कम्भनेन) सबको थाम रखने वाले महान् सामर्थ्य से (चास्कम्भ) सब विश्व को थाम रहा है। क्योंकि वह (स्कभी-यान्) सबसे अधिक थामने वाला है। अथर्ववेद में उसी को ‘स्कम्भ’, ‘धरुण’ आदि नामों से वर्णन किया है। इति दशमो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिरष्ट्रादष्ट्रो वैरूपः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, २, ४ त्रिष्टुप्। ३, ६, १० विराट त्रिष्टुप्। ५, ७, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। ८ पादानिचृत् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा (दिवः पृथिव्याः प्रतिमानम्) द्युलोकस्य पृथिवीलोकस्य प्रतिष्ठितकरणाधिष्ठानमस्ति (विश्वा सवना वेद) सर्वाण्युत्पन्नानि खल्वाकाशपिण्डानि नक्षत्राणि “सवनानि वै रोचनानि” [मै० ३।२।८] “नक्षत्राणि वै रोचनानि दिवि” [तै० ३।९।४।२] जानाति-विन्दते स्वाश्रये नयति (शुष्णं हन्ति) शोषकतामावरणं वा नाशयति जलं वर्षित्वा (महीं चित् द्यां सूर्येण आ अतनोत्) महतीमपि द्योतनात्मिकां गगनस्थितिं सूर्येणातानयति समन्तात् प्रकाशयति (स्कभीयान् स्कम्भनेन चास्कम्भ चित्) अतिशयेन स्कम्भिता स्कम्भनसामर्थ्येन स्कम्भयति हि सः ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra is the maker and measure of heaven and earth, knows all operations of the world in existence, and destroys drought and adversity by showers of rain and divine grace. He enlightens the great heavens by the sun and he himself is the pillar of the universe holding it in dynamic balance by the law of divine Rtam working in nature.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा महान नक्षत्र तारायुक्त गगन मंडलाला सूर्याद्वारे स्थिर करतो, चमकवितो. द्युलोकाचे, पृथ्वीलोकाचे तो अधिष्ठान आहे. तो सर्व लोकांना जाणतो. शुष्कतेला जलवृष्टीने नष्ट करतो. ॥५॥

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