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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 124 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 124/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अग्निः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अदे॑वाद्दे॒वः प्र॒चता॒ गुहा॒ यन्प्र॒पश्य॑मानो अमृत॒त्वमे॑मि । शि॒वं यत्सन्त॒मशि॑वो॒ जहा॑मि॒ स्वात्स॒ख्यादर॑णीं॒ नाभि॑मेमि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अदे॑वात् । दे॒वः । प्र॒ऽचता॑ । गुहा॑ । यन् । प्र॒ऽपश्य॑मानः । अ॒मृ॒त॒ऽत्वम् । ए॒मि॒ । शि॒वम् । यत् । सन्त॑म् । अशि॑वः । जहा॑मि । स्वात् । स॒ख्यात् । अर॑णीम् । नाभि॑म् । ए॒मि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अदेवाद्देवः प्रचता गुहा यन्प्रपश्यमानो अमृतत्वमेमि । शिवं यत्सन्तमशिवो जहामि स्वात्सख्यादरणीं नाभिमेमि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अदेवात् । देवः । प्रऽचता । गुहा । यन् । प्रऽपश्यमानः । अमृतऽत्वम् । एमि । शिवम् । यत् । सन्तम् । अशिवः । जहामि । स्वात् । सख्यात् । अरणीम् । नाभिम् । एमि ॥ १०.१२४.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 124; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (देवः) मैं द्योतमान चेतन आत्मा (अदेवात् प्रचता) अद्योतमान मृत्यु से भीत डरा हुआ रक्षा चाहता हुआ  (गुहा यन्) गुहा में गुप्त स्थान में जाता हुआ (प्रपश्यन्) रक्षा को देखता हुआ (अमृतत्वम्) अमरपन को (एमि) प्राप्त होता हूँ (अशिवः-जहामि) कल्याणनाशक मृत्यु को त्यागता हूँ (यत्-शिवं सन्तम्) जिस कल्याणरूप होते हुए परमात्मा को (स्वात् सख्यात्) स्वाभाविक मित्र भाव से (अरणीम्) देवरथ-जिसमें देव-मुमुक्षुजन रमण करते हैं, ऐसे (नाभिम्) स्नेह बन्धनवाले परमात्मा को (एमि) प्राप्त होता हूँ ॥२॥

    भावार्थ

    आत्मा मृत्यु से भय करता हुआ रक्षा चाहता, कहीं गुप्त स्थान में छिप जाऊँ, अमर पद प्राप्त हो जाए, यह आकाङ्क्षा रहती है, संसार के भोगों में रहते यह आकाङ्क्षा पूरी नहीं होती, परन्तु नित्य स्थिर कल्याणस्वरूप परमात्मा प्राप्त होता है, जिसके साथ इसका स्वाभाविक स्नेहसम्बन्ध है, उसे प्राप्त कर अमरपन को प्राप्त करता है ॥२॥

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    विषय

    अमृतत्व व बन्धन

    पदार्थ

    [१] (अदेवात्) = अदेव वृत्ति को छोड़कर (देवः) = देववृत्ति का बना हुआ मैं (प्रचता) = [ चत् ask, beg, request] प्रभु से याचना के द्वारा गुहा (यन्) = बुद्धि रूप गुहा की ओर जाता हुआ 'यच्छेद् वाङ् मनसि प्राज्ञः, तद्यच्छेन् ज्ञान आत्मनि [बुद्धि में]' (प्रपश्यमानः) = आत्मतत्त्व को देखता हुआ (अमृतत्वं एमि) = अमृतत्व को, मोक्ष को प्राप्त होता हूँ । [२] (यत्) = जब (शिवम्) = उस कल्याण करनेवाले (सन्तम्) = अपने अन्दर ही विद्यमान प्रभु को (अशिवः) = अशुभ वृत्तिवाला मैं जहामि छोड़ता हूँ। अर्थात् प्रभु का विस्मरण करके संसार के विषयों के ध्यान में रहता हूँ तो (स्वात् सख्यात्) = उस अपनी आत्मतत्त्व की मित्रता को छोड़कर (अरणीम्) = [stinginess] कृपणता को और (नाभिम्) = [नह बन्धने] बन्धन को (एमि) = प्राप्त होता हूँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ- देववृत्ति का बनकर मैं आत्मतत्त्व का दर्शन करता हूँ । परन्तु प्रभु से दूर होकर कृपणता व बन्धन को प्राप्त करता हूँ ।

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    विषय

    अमृतत्व की प्राप्ति। आत्मसाक्षात्कार।

    भावार्थ

    मैं आत्मा (देवः) स्वयं ज्योतिःस्वरूप होकर (अदेवात् प्रचता) अदेव अर्थात् प्रकाश वा ज्ञान से रहित इस देह से पृथक् अपने को जान कर (गुहा यन्) गुहा, बुद्धि या अन्तर्हृदय गुफ़ा मैं दहराकाश में प्रवेश करता हुआ (प्र-पश्यमानः) उत्तम रीति से तत्त्व का साक्षात् करता हुआ (अमृतत्वम् एमि) अमृत रूप को प्राप्त हो जाता हूं। (यत्) जब मैं (अशिवः) अकल्याणकारी, दुःखद, अशुद्ध इस देहबन्धन को (जहामि) त्यागता हूं, तब (स्वात् सख्यात्) अपने सहज मित्र-भाव से मैं (सन्तम्) सत्-स्वरूप (अरणीम्) अग्नि-उत्पादक अरणि के तुल्य मूलकारण रूप (शिवं) अतिकल्याणमय, सुखप्रद (नाभिम्) प्रेम से बांधने वाले प्रभु को ही (एमि) प्राप्त हो जाता हूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१, ५–९ अग्निवरुणमोमानां निहवः । २—४ अग्निः। देवता—१—४ अग्निः। ५-८ यथानिपातम्। ९ इन्द्रः। छन्द:– १, ३, ८ त्रिष्टुप्। २, ४, ९ निचृत्त्रिष्टुप्। ५ विराट् त्रिष्टुप्। ६ पादनिचृत्त्रिष्टुप्। ७ जगती। नवर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (देवः) अहं द्योतमानश्चेतन आत्मा (अदेवात् प्रचता) अद्योतमानात्-मृत्योर्भीतो रक्षां प्रयाचमान इच्छन् “चते-याचने” [भ्वादि०] ततः प्रपूर्वकात् विट् प्रत्ययश्छान्दसः पुनराकारादेशः (गुहा-यन्) गुहायां गच्छन् (प्रपश्यमानः) रक्षां प्रपश्यन् (अमृतत्वम् एमि) अमरत्वं प्राप्नोमि (अशिवः-जहामि) “सुपां सुलुक्…” [अष्टा० ७।१।३९] अम् स्थाने सुः प्रत्ययः, तमशिवं कल्याणनाशकं मृत्युं त्यजामि (यत्-शिवं सन्तम्) यं कल्याणं भवन्तं परमात्मानं (स्वात्-सख्यात्) स्वाभाविकात्-मित्रत्वात् (अरणीं नाभिम्-एमि) तं देवरथं देवा मुमुक्षवो रमन्ते यस्मिन् तम् “देवरथो वा अरणी” [कौ० २।६] स्वनाभिनहनं स्नेहबन्धनं प्राप्नोमि ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    When I, the soul, transcending the mere physical, non-divine, form, take on to the light of divinity within the heart cave of the soul, I see the light of divinity within and attain to it. Thus when I relinquish my dark side of personality, attaining to the light and peace of divinity, then by reason of my essential affinity with divinity, I reach the life divine, sole centre of existence, just like fire existing at peace in the arani wood, its natural abode, rising into heat and light at yajna.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आत्मा मृत्यूच्या भयातून मुक्त होऊ इच्छितो. एखाद्या गुप्त स्थानी लपावे व अमरपद प्राप्त करावे, ही त्याची आकांक्षा असते. संसाराच्या भोगात राहताना ही आकांक्षा पूर्ण होत नाही. ज्या परमात्म्याबरोबर आत्म्याचा स्वाभाविक स्नेहसंबंध आहे त्या नित्य स्थिर कल्याणस्वरूप परमात्म्याला प्राप्त करून तो अमरपद प्राप्त करतो. ॥२॥

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