ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 124/ मन्त्र 4
ब॒ह्वीः समा॑ अकरम॒न्तर॑स्मि॒न्निन्द्रं॑ वृणा॒नः पि॒तरं॑ जहामि । अ॒ग्निः सोमो॒ वरु॑ण॒स्ते च्य॑वन्ते प॒र्याव॑र्द्रा॒ष्ट्रं तद॑वाम्या॒यन् ॥
स्वर सहित पद पाठब॒ह्वीः । समाः॑ । अ॒क॒र॒म् । अ॒न्तः । अ॒स्मि॒न् । इन्द्र॑म् । वृ॒णा॒नः । पि॒तर॑म् । ज॒हा॒मि॒ । अ॒ग्निः । सोमः॑ । वरु॑णः । ते । च्य॒व॒न्ते॒ । प॒रि॒ऽआव॑र्त् । रा॒ष्ट्रम् । तत् । अ॒वा॒मि॒ । आ॒ऽयन् ॥
स्वर रहित मन्त्र
बह्वीः समा अकरमन्तरस्मिन्निन्द्रं वृणानः पितरं जहामि । अग्निः सोमो वरुणस्ते च्यवन्ते पर्यावर्द्राष्ट्रं तदवाम्यायन् ॥
स्वर रहित पद पाठबह्वीः । समाः । अकरम् । अन्तः । अस्मिन् । इन्द्रम् । वृणानः । पितरम् । जहामि । अग्निः । सोमः । वरुणः । ते । च्यवन्ते । परिऽआवर्त् । राष्ट्रम् । तत् । अवामि । आऽयन् ॥ १०.१२४.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 124; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अस्मिन्-अन्तः) इस देह के अन्दर (बह्वी समाः-अकरम्) बहुत वर्ष वास किया-कर रहा हूँ (पितरम्-इन्द्रं वृणानः-जहामि) पालक परमात्मा को वरण करने के हेतु इस देह को त्यागता हूँ (अग्निः) जाठर अग्नि (सोमः) इन्द्रियगण (वरुणः) प्राण ये (च्यवन्ते) च्युत हो जावें नहीं चिन्ता (पर्यावर्त्) बहुत काल के पश्चात् बहुत जन्मों के पीछे आनेवाला (तत्-राष्ट्रम्) उस स्वातन्त्र्यपूर्ण मोक्ष को प्राप्त करूँ, यही इच्छा है ॥४॥
भावार्थ
इस शरीर के अन्दर जीवात्मा बहुत वर्षों से वास करता चला आ रहा है, अब तो पालक परमात्मा को वरने के हेतु इसे त्याग देना होगा, बन्धन के कर्म नहीं करना है। शरीर में जाठर अग्नि इन्द्रियगण और प्राण च्युत हो जाते हैं, हो जावें, चिन्ता नहीं, परन्तु स्वतन्त्रतापूर्ण मोक्ष स्वराष्ट्र बहुत काल के पश्चात् मिलता है, उसको पाना है, ऐसी आध्यात्मिक जीवन्मुक्त की इच्छा होनी चाहिये ॥४॥
विषय
पिता इन्द्र का वरण
पदार्थ
[१] जीव सोचता है कि (बह्वीः समाः) = बहुत वर्षों तक (अस्मिन् अन्तः) = इस शरीर में (अकरम्) = मैंने निवास किया है। अब मैं (पितरम्) = उस रक्षक पिता (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली प्रभु को (वृणान:) = वरता हुआ (जहामि) = इस शरीर को छोड़ता हूँ। जब तक मनुष्य प्रभु से दूर रहता है, तब तक उसे शरीर में बद्ध होना ही पड़ता है। विषयों से ऊपर उठकर प्रभु का वरण करता है तो शरीर बन्धन से मुक्ति को प्राप्त करता है । [२] जब तक प्रभु से दूर होता है और संसार के विषयों में भटकता है तब तक (अग्निः) = आगे बढ़ने की वृत्ति, (वरुणः) = विघ्न निवारण का भाव तथा (सोमः) = सौम्यता, (ते) = वे सब बातें (च्यवन्ते) = मेरे से दूर होती हैं। (राष्ट्रं पर्यावत्) = यह शरीर रूप राष्ट्र सब (अस्त) = व्यस्त हो जाता है। यह ऋषियों का आश्रय न रहकर असुरों का महल बन जाता है। यह देव-मन्दिर न रहकर असुरों की पानगोष्ठी बन जाती है। आज मैं (तद्) = उस राष्ट्र को (आ-यन्) = समन्तात् गतिवाला होता हुआ, खूब क्रियाशील जीवनवाला होता हुआ, (अवामि) = रक्षित करता हूँ। मेरा यह शरीर राष्ट्र फिर से ठीक हो जाता है ।
भावार्थ
भावार्थ - क्रियाशील जीवन से जीवन को पवित्र बनाते हुए हम प्रभु का वरण करें नकि प्राकृतिक भोगों का । तभी हम शरीर बन्धन से ऊपर उठ पायेंगे ।
विषय
आत्मा का स्वतः मोक्षमार्ग-दर्शन।
भावार्थ
मैं (अस्मिन् अन्तः) इस देह के भीतर (इन्द्रम्) उस ऐश्वर्यवान् प्रभु को वरण करता हुआ, उसका भजन-सेवन करता हुआ (बह्वीः समाः अकरम्) बहुत से वर्ष व्यतीत कर देता हूं। तदनन्तर मैं (पितरम्) अपने पालक इस देह को (जहामि) छोड़ देता हूं। अथवा—(इन्द्रं पितरम् वृणानः) ऐश्वर्य वाले इन्द्र, प्रभु को वरण करता हुआ इस बन्धन को छोड़ देता हूं और उस समय (अग्निः) यह अग्नि, जाठर, और (सोमः) वीर्य, वा अन्नादि पदार्थ, तथा (वरुणः) जलमय रक्त विकार, नाड़ियां आदि (ते) वे सब मुझ से (च्यवन्ते) छूट जाते हैं। तब (राष्ट्रं) राजमान, देदीप्यमान, स्वाराज्य-प्रकाश मुझे (परि आवत्) पुनः प्राप्त होता है, तब मैं (आयन्) आगे बढ़ता हुआ (तत् अवामि) उस परम ब्रह्म को प्राप्त होता हूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१, ५–९ अग्निवरुणमोमानां निहवः । २—४ अग्निः। देवता—१—४ अग्निः। ५-८ यथानिपातम्। ९ इन्द्रः। छन्द:– १, ३, ८ त्रिष्टुप्। २, ४, ९ निचृत्त्रिष्टुप्। ५ विराट् त्रिष्टुप्। ६ पादनिचृत्त्रिष्टुप्। ७ जगती। नवर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अस्मिन्-अन्तः-बह्वीः समाः-अकरम्) अस्मिन् शरीरयज्ञेऽन्तर्वासं बहूनि वर्षाणि कृतवान्-करोमि (पितरम्-इन्द्रं वृणानः-जहामि) अधुना पालकं परमात्मानं वरयन्-वर्तुमेतं शरीरयज्ञं त्यजामि (अग्निः-सोमः-वरुणः-च्यवन्ते) जाठराग्निः-इन्द्रियगणः [प्राणश्च त्र्यश्च्यवेरन् न हि चिन्ता (पर्यावर्त् तत् राष्ट्रम्-आयन् तत्-अवामि) स्वतन्त्रं पर्यावर्तमानं मोक्षराष्ट्रम् “स्वराड् भवति स्वराज्यमेति” प्राप्नुवन् तद्रक्षामि नात्र शरीरयज्ञे स्थातुमिच्छामि ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Having lived in this body, vedi of living yajna, and choosing Indra, omnipotent father, for worship, I give up the vedi. Agni, vital heat, Varuna, mind and senses and the water element, and Soma, living vitality, depart, and moving ahead I come to the freedom of existence which I cherish and protect for further life.
मराठी (1)
भावार्थ
या शरीरात जीवात्मा फार वर्षांपासून वास करत आहे. आता पालक परमात्म्याला वरण करण्यासाठी त्याचा त्याग केला पाहिजे. बंधनात अडकण्याचे कर्म करावयाचे नाही. शरीरातील जठराग्नी इंद्रिये व प्राण विमुख होतील याची चिंता करू नये; परंतु स्वातंत्र्ययुक्त मोक्ष फार काळानंतर प्राप्त होतो. तो प्राप्त करावयाचा आहे, अशी आध्यात्मिक जीवनमुक्ताची इच्छा असली पाहिजे. ॥४॥
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