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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 124 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 124/ मन्त्र 9
    ऋषिः - अग्निवरुणसोमानां निहवः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    बी॒भ॒त्सूनां॑ स॒युजं॑ हं॒समा॑हुर॒पां दि॒व्यानां॑ स॒ख्ये चर॑न्तम् । अ॒नु॒ष्टुभ॒मनु॑ चर्चू॒र्यमा॑ण॒मिन्द्रं॒ नि चि॑क्युः क॒वयो॑ मनी॒षा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बी॒भ॒त्सूना॑म् । स॒ऽयुज॑म् । हं॒सम् । आ॒हुः॒ । अ॒पाम् । दि॒व्याना॑म् । स॒ख्ये । चर॑न्तम् । अ॒नु॒ऽस्तुभ॑म् । अनु॑ । च॒र्चू॒र्यमा॑णम् । इन्द्र॑म् । नि । चि॒क्युः॒ । क॒वयः॑ । म॒नी॒षा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बीभत्सूनां सयुजं हंसमाहुरपां दिव्यानां सख्ये चरन्तम् । अनुष्टुभमनु चर्चूर्यमाणमिन्द्रं नि चिक्युः कवयो मनीषा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बीभत्सूनाम् । सऽयुजम् । हंसम् । आहुः । अपाम् । दिव्यानाम् । सख्ये । चरन्तम् । अनुऽस्तुभम् । अनु । चर्चूर्यमाणम् । इन्द्रम् । नि । चिक्युः । कवयः । मनीषा ॥ १०.१२४.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 124; मन्त्र » 9
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (बीभत्सूनाम्) पाप से भय करनेवाली (दिव्यानाम्) मोक्षविषयक (अपाम्) कामनाओं-भावनाओं के (हंसम्) सहयोगी उन्हें प्राप्त होनेवाले (सख्यं चरन्तम् आहुः) मित्रता सेवन करते हुए को कहते हैं (अनुष्टुभम्-अनु) स्तुति के अनुरूप (चर्चूर्यमाणम्) सर्वत्र बहुत विचरते हुए विभु गतिवाले (इन्द्रम्) परमात्मा को (कवयः) मेधावी स्तुतिकर्ता जन (मनीषा) प्रज्ञा से स्तुति से (नि चिक्युः) जानते हैं-अनुभव करते हैं ॥९॥

    भावार्थ

    पाप से भय करनेवाली मोक्षविषयक कामनाओं-भावनाओं का साथ देनेवाला मित्रता करनेवाला अपनानेवाला परमात्मा है, स्तुतिकर्ता मेधावी जन स्तुति से जानते अनुभव करते हैं ॥९॥

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    विषय

    दृश्यते त्वग्रया बुद्ध्य

    पदार्थ

    [१] (बीभत्सूनाम्) = रेतः कणों को अपने में बाँधने की कामनावाले के (हंसम्) = सब पापों का विध्वंस करनेवाले [हन हिंसा] गतिशील [हन गतौ] प्रभु को (सयुजम्) = साथ रहनेवाला मित्र (आहुः) = कहते हैं। प्रभु उसी के साथी हैं, जो वासना से ऊपर उठकर रेतः कणों को अपने में सुरक्षित रखता है। उस प्रभु को (दिव्यानां अपाम्) = दिव्य रेतः कणों की (सख्ये) = मित्रता में (चरन्तम्) = विचरण करनेवाला कहते हैं। दिव्य रेतःकण वे हैं जो वासना के कारण मलिन होकर विनाशोन्मुख नहीं होते । शरीर में सुरक्षित रहते हुए ये दिव्य गुणों की वृद्धि का कारण बनते हैं। इन दिव्य रेतः कणों के साथ प्रभु का विचरण है। [२] वे प्रभु (अनुष्टुभम्) = प्रतिदिन स्तोतव्य हैं। (अनु चर्चर्यमाणम्) = पीछे निरन्तर गति करनेवाले हैं। जब हम तेज आदि को प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ करते हैं तो प्रभु भी हमारी सहायता करते हैं [अनु चर्] । हम पुरुषार्थ न करें, तो प्रभु ही हमारे लिए सब कुछ नहीं कर देते । इस (इन्द्रम्) = हमारे सब शत्रुओं का विदारण करनेवाले प्रभु को (कवयः) = क्रान्तदर्शी ज्ञानी मनीषा बुद्धि के द्वारा (निचिक्युः) = जानते हैं। 'दृश्यते त्वग्रया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः'।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु रेतः कणों का रक्षण करनेवाले के मित्र हैं। पुरुषार्थी के सहायक हैं। उस प्रभु को क्रान्तदर्शी लोग सूक्ष्म बुद्धि से देखते हैं। सूक्त का भाव यही है कि हम जीवन को यज्ञ बनाएँ । अमृतत्व को प्राप्त करने की कामना करें। रेतः कणों को वासना से मलिन न होने दें। अवश्य हमें प्रभु प्राप्त होंगे, हम सूक्ष्म बुद्धि से उनका दर्शन कर सकेंगे। 'हमें प्रभु प्राप्त होंगे, तो सब देव तो प्राप्त होंगे ही'। इस महान् उद्घोषणा को अगला सूक्त कर रहा है। उस सूक्त का ऋषि व देवता 'वाग् आम्भृणी' = [अम्भृण महन्नाम नि० ३ । ३] है, 'महत्त्वपूर्ण वाणी व उद्घोषणा'। उसमें कहते हैं-

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    विषय

    परमेश्वर वा आत्मा का शुद्ध रस स्वरूप। मैत्रीभाव से उसका साक्षात्कार।

    भावार्थ

    (बीभत्सूनाम्) अज्ञान-अन्धकार के देह के बंधन के साधन भोग विलासादि में ग्लानि करने वाले साधकों तथा आत्मा को बांधने वाले प्राणों के (स-युजम्) साथ योग देने वाले सहायक एवं परम मित्रवत् उसी को (हंसम् आहुः) सर्वशत्रु-नाशक, विघ्ननाशक परम शुद्ध आत्मा, हंस ही (आहुः) बतलाते हैं। और उस आत्मा को ही (दिव्यानां अपां सख्ये) तेज, ज्ञान, आदि में उत्पन्न, दिव्य आप्त जनों के मैत्रीभाव में (चरन्तन्) विचरते हुए (अनु-स्तुभम्) सबके द्वारा प्रतिदिन स्तुति करने योग्य (चचूर्यमानम्) सदा विचरणशील, देह में जाते और निरन्तर सुख-दुःखादि कर्म भोग का ही भोग करने वाले (इन्द्रम्) ऐश्वर्यवान् आत्मा को ही (कवयः) क्रान्तदर्शी विद्वान् जन (मनीषा) अपनी मननशील बुद्धि द्वारा (नि चिक्युः) निश्चयपूर्वक स्थिर करते, उसी का ज्ञान सम्पादन करते हैं। इति दशमो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१, ५–९ अग्निवरुणमोमानां निहवः । २—४ अग्निः। देवता—१—४ अग्निः। ५-८ यथानिपातम्। ९ इन्द्रः। छन्द:– १, ३, ८ त्रिष्टुप्। २, ४, ९ निचृत्त्रिष्टुप्। ५ विराट् त्रिष्टुप्। ६ पादनिचृत्त्रिष्टुप्। ७ जगती। नवर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (बीभत्सूनां दिव्यानाम्-अपाम्) पापाद् भयं कुर्वतां मोक्षसम्बन्धिनां कामानां सहयोगिनं तान् प्रति गन्तारम् “हन हिंसागत्योः” [अदादि०] सख्यं च “आपो वै सर्वे कामाः” [श० १०।५।४।१५] (सख्यं चरन्तम्-आहुः) मित्रभावं चरन्तं कथयन्ति (अनुष्टुभम् अनु) स्तुतिवाचमनु “अनुष्टुभ् वाङ्नाम” [निघ० १।११] (चर्चूर्यमाणम्-इन्द्रम्) सर्वत्र भृशं चरन्तं विभुगतिं कुर्वन्तं परमात्मानन्दं (कवयः-मनीषा) मेधाविनः स्तोतारः प्रज्ञया स्तुत्या वा तं (नि चिक्युः) जानन्ति-अनुभवन्ति ॥९॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The sun, companion of the free and fearless clouds, which sojourns in space as a comrade of the holy waters, the poets call the ‘celestial bird’, and the wind and electric energy blowing and radiating in response to yajna with anushtup verses, they know with their vision and imagination, and this they call ‘Indra’.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    पापाचे भय नष्ट करणारा, मोक्षाची कामना - भावनांची साथ देणारा मैत्री करणारा, आपलेसे करणारा परमात्मा आहे. स्तुतिकर्ते मेधावी लोक स्तुती करून त्याला जाणतात, अनुभव घेतात. ॥९॥

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