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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 124 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 124/ मन्त्र 8
    ऋषिः - अग्निवरुणसोमानां निहवः देवता - यथानिपातम् छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ता अ॑स्य॒ ज्येष्ठ॑मिन्द्रि॒यं स॑चन्ते॒ ता ई॒मा क्षे॑ति स्व॒धया॒ मद॑न्तीः । ता ईं॒ विशो॒ न राजा॑नं वृणा॒ना बी॑भ॒त्सुवो॒ अप॑ वृ॒त्राद॑तिष्ठन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ताः । अ॒स्य॒ । ज्येष्ठ॑म् । इ॒न्द्रि॒यम् । स॒च॒न्ते॒ । ताः । ई॒म् । आ । क्षे॒ति॒ । स्व॒धया॑ । मद॑न्तीः । ताः । ई॒म् । विशः॑ । न । राजा॑नम् । वृ॒णा॒नाः । बी॒भ॒त्सुवः॑ । अप॑ । वृ॒त्रात् । अ॒ति॒ष्ठ॒न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ता अस्य ज्येष्ठमिन्द्रियं सचन्ते ता ईमा क्षेति स्वधया मदन्तीः । ता ईं विशो न राजानं वृणाना बीभत्सुवो अप वृत्रादतिष्ठन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ताः । अस्य । ज्येष्ठम् । इन्द्रियम् । सचन्ते । ताः । ईम् । आ । क्षेति । स्वधया । मदन्तीः । ताः । ईम् । विशः । न । राजानम् । वृणानाः । बीभत्सुवः । अप । वृत्रात् । अतिष्ठन् ॥ १०.१२४.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 124; मन्त्र » 8
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ताः) वे कामवृत्तियाँ (अस्य) इस आत्मा की (ज्येष्ठम्-इन्द्रियं सचन्ते) ज्येष्ठ इन्द्रिय-मन को समवेत करती सङ्गत होती हैं (ताः-ईम् स्वधया मदन्तीः) वे ही रस से आत्मा को आनन्द देती हुई (आ क्षेति) प्राप्त होती हैं (ताः-विशः-न राजानं वृणानाः) प्रजाएँ जैसे राजा को वरण करती हुई आश्रय लेती हैं (वृत्रात्) आवरक देह से (बीभत्सुवः) भय करती हुई (अप-अतिष्ठन्) पृथक् हो जाती हैं ॥८॥

    भावार्थ

    कामवृत्तियाँ कुछ आत्मा का आश्रय लेती आत्मा से अनुभूत होती हैं, कुछ मन के साथ संगत होती हैं, कुछ आत्मा को आनन्द देतीं, कुछ देह के भय से पृथक्-पृथक् रहती हैं ॥८॥

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    विषय

    वृत्र से दूर [अप वृत्रादतिष्ठन्]

    पदार्थ

    [१] (ताः) = गत मन्त्र में वर्णित वे (आपः) = रेतः कण (अस्य) = इस पुरुष के (ज्येष्ठं इन्द्रम्) = उत्कृष्ट शक्ति को (सचन्ते) = समवेत करते हैं । अर्थात् इस पुरुष को ये रेतःकण उत्कृष्ट शक्ति प्राप्त कराते हैं। (ताः) = उन (स्वधया) = आत्मधारण शक्ति से (मदन्ती:) = आनन्दित करते हुए रेतः कणों को (ईम्) = निश्चय से (आक्षेति) = सब प्रकार से अपने अन्दर निवास कराता है [क्षि-निवासे] । इन्हें अपने अन्दर सुरक्षित करता हुआ यह उत्तम निवास व गतिवाला बनता है । [२] (न) = जैसे (विशः) = प्रजाएँ (राजानं वृणाना:) = राजा का वरण करती हैं, उसी प्रकार (ईम्) = निश्चय से (ताः वृणानाः) = उन रेतः कणों का वरण करनेवाले (बीभत्सुवः) = इन्हें अपने में बाँधने की कामनावाले (वृत्रात्) = ज्ञान की आवरणभूत कामवासना से (अप अतिष्ठन्) = दूर ही रहते हैं । प्रजाएँ अपने रक्षण के लिए जैसे राजा का वरण करती हैं, उसी प्रकार हमें अपने रक्षण के लिए इन रेतःकणों का वरण करना चाहिए। इन्हें अपने अन्दर सुरक्षित रखने का प्रयत्न करना चाहिए। इसके लिए वासना से दूर रहना ही एकमात्र उपाय है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सुरक्षित रेतः कण शक्ति को प्राप्त कराते हैं। इनके रक्षण के लिए वासना से ऊपर उठना आवश्यक है ।

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    विषय

    प्रकृति का ईश्वराश्रय, गर्भग्रहण और जगत्प्रसव।

    भावार्थ

    (ताः) वे ‘आपः’ रूप प्रकृति (अस्य) इस प्रभु के (ज्येष्ठम्) सबसे उत्तम (इन्द्रियम्) ऐश्वर्य को (सचन्ते) प्राप्त करती हैं। वह (स्वधया मदन्तीः) अन्न से समस्त प्राणियों को तृप्त करती हुई भूमि के तुल्य (स्वधया) अपनी धारक शक्ति रूप प्रभु की शक्ति से पूर्ण तृप्त होती हुईं (ईम् आक्षेति) उसी प्रभु को आश्रय करती हैं। (विशः न राजानं) राजा को प्रजाओं के समान (ताः ई वृणानाः) वह प्रकृति उसको ही वरण करती हुई (वृत्रात् बीभत्सवः) आवरण करने वाले अन्धकार से भयभीत वा ग्लानियुक्त होकर (अप अतिष्ठन्) उससे दूर रहती हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१, ५–९ अग्निवरुणमोमानां निहवः । २—४ अग्निः। देवता—१—४ अग्निः। ५-८ यथानिपातम्। ९ इन्द्रः। छन्द:– १, ३, ८ त्रिष्टुप्। २, ४, ९ निचृत्त्रिष्टुप्। ५ विराट् त्रिष्टुप्। ६ पादनिचृत्त्रिष्टुप्। ७ जगती। नवर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (ताः) ताः कामवृत्तयः (अस्य) अस्यात्मनः (ज्येष्ठम्-इन्द्रियं सचन्ते) ज्येष्ठमिन्द्रियं मनः समवयन्ति (ताः-ईम् स्वधया मदन्तीः-आ क्षेति) ताः खलु रसेन-आनन्दरसेन “स्वधा वै रसः-स्वधायै त्वा रसाय त्वेत्येवैतदाह” [श० ५।१।३।७] आत्मानं हर्षयन्तीः प्रतिगच्छन्ति प्राप्नुवन्ति “क्षि निवासगत्योः” [तुदादि०] ‘विकरणव्यत्ययेन लुक् छान्दसः’ (ताः-विशः-न राजानं वृणानाः) ताः प्रजाः यथा राजानं वरयन्त्यः-आश्रयन्ति (वृत्रात्-बीभत्सुवः-अप-अतिष्ठन्) आवरकाद् देहाद् भयं कुर्वाणास्तस्मात् पृथग्भूताः तिष्ठन्ति ॥८॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Those streams of living waters share and bear the highest power and beneficence of this lord Varuna, and the lord rules and abides in these streams which sparkle and flow, enjoying the fragrance of oblations offered in yajna. They, also, like people choosing and abiding by the ruler, free from fear and keeping off from darkness and evil, flow free from fear and obstruction.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    कामवृत्ती काही आत्म्याचा आश्रय घेतात. आत्म्यामुळे अनुभूत होतात. काही मनाबरोबर संगत होतात. काही आत्म्याला आनंद देतात. काही देहाच्या भयाने पृथक् पृथक् राहतात. ॥८॥

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