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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 20 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 20/ मन्त्र 4
    ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒र्यो वि॒शां गा॒तुरे॑ति॒ प्र यदान॑ड्दि॒वो अन्ता॑न् । क॒विर॒भ्रं दीद्या॑नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒र्यः । वि॒शाम् । गा॒तुः । ए॒ति॒ । प्र । यत् । आन॑ट् । दि॒वः । अन्ता॑न् । क॒विः । अ॒भ्रम् । दीद्या॑नः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अर्यो विशां गातुरेति प्र यदानड्दिवो अन्तान् । कविरभ्रं दीद्यानः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अर्यः । विशाम् । गातुः । एति । प्र । यत् । आनट् । दिवः । अन्तान् । कविः । अभ्रम् । दीद्यानः ॥ १०.२०.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 20; मन्त्र » 4
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (विशाम्-अर्यः-कविः) मनुष्यों का स्वामी परमात्मा क्रान्तदर्शी और प्रजाओं का स्वामी राजा मेधावी होता है, वह (गातुः) मनुष्यादि में प्रापणशील (एति) व्याप्त या प्राप्त होता है। (दिवः-अन्तान् प्रानट्) ज्ञानप्रकाशक वह जनों को प्राप्त होता है (दीद्यानः-अभ्रम्) जैसे दीप्यमान विद्युत् अग्नि मेघ को प्राप्त होता है ॥४॥

    भावार्थ

    मनुष्यों के मध्य में क्रान्तदर्शी परमात्मा व्याप्त है और प्रजाजनों के मध्य में मेधावी राजा प्राप्त होता है। वह ऐसा गतिशील ज्ञानी जनों को जानता हुआ उनमें साक्षात् होता है, जैसे चमकता हुआ विद्युद्रूप अग्नि मेघ को प्राप्त होता है ॥४॥

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    विषय

    अज्ञानान्धकार विमर्श

    पदार्थ

    [१] वे प्रभु (अर्यः) = स्वामी हैं । वस्तुतः सब ब्रह्माण्ड के मालिक व पति प्रभु ही हैं 'भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् ' (विशाम्) = सब प्रजाओं के (गातुः) = मार्ग वे प्रभु ही हैं। वस्तुतः सब प्रजाओं ने उस प्रभु की ओर ही जाना है। भटक भटकाकर अन्त में सब चलते उस प्रभु की ओर ही हैं। [२] (यत्) = क्योंकि वे प्रभु (दिवः अन्तान्) = ज्ञान के अन्तिम तत्त्वों को [उभयोरपि दृष्टोन्तस्त्वन- पोस्तत्त्वदर्शिभिः] (प्र आनट्) = प्रकर्षेण व्याप्त करते हैं, वे निरतिशय ज्ञान का आधार है, प्रभु में ही ज्ञान के तारतम्य की विश्रान्ति होती है, सो वे प्रभु (कविः) = सर्वत्र व क्रान्तदर्शी हैं और (अभ्रम्) = अज्ञान के बादलों को (दीद्यान:) = छिन्न-भिन्न करनेवाले हैं। हमारे हृदयों में स्थित होकर हृदयों को ज्ञान के प्रकाश से द्योतित करनेवाले हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु कृपा से ही अज्ञानान्धकार नष्ट होता है ।

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    विषय

    सूर्यवत् शासक राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (विशां अर्थः) प्रजाओं का शरण करने योग्य स्वामी, (गातुः) चलने योग्य मार्ग के समान सब के प्राप्त करने योग्य है। वह (यत्) जो (दिवः अन्तान्) आकाश के दूर २ के मार्गों तक भी सूर्यवत् (आनट्) व्याप्त है। वह (अन्तं दीद्यानः) मेघ को विद्युत् के तुल्य महान् आकाशवत् हृदयाकाश को भी ज्ञान से प्रकाशित करता हुआ (कविः) क्रान्तदर्शी, विद्वान्, ज्ञानी, (प्र एति) उत्तम पद को प्राप्त होता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:- १ आसुरी त्रिष्टुप्। २, ६ अनुष्टुप्। ३ पादनिचृद्गायत्री। ४, ५, ७ निचृद् गायत्री। ६ गायत्री। ८ विराड् गायत्री। १० त्रिष्टुप्। दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (विशाम्-अर्यः-कविः) मनुष्यादीनां स्वामी परमात्मा प्रजाजनानां वा स्वामी राजा “अर्यः स्वामिवैश्ययोः” [अष्टा०३।१।१०३] क्रान्तद्रष्टा मेधावी वा (गातुः) तेषु मनुष्यादिषु गन्ता प्रापणशीलः (एति) प्राप्नोति-व्याप्नोति प्राप्तो भवति वा (दिवः-अन्तान् प्रानट्) ज्ञानप्रकाशकान् जनान् प्राप्तो भवति, यथा (दीद्यानः-अभ्रम्) दीप्यमानो विद्युदग्निरभ्रं प्राप्तो भवति ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Master and ruler of the people, mainstay of life like the earth, Agni pervades and vibrates upto the bounds of heaven. Omniscient poet and universal visionary, he gives the light of lightning to thunder and the clouds of rain.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांमध्ये क्रान्तदर्शी (सर्वज्ञ) परमात्मा व्याप्त आहे व प्रजाजनांत मेधावी राजा असतो. तो अशा गतिशील ज्ञानी जनांना जाणतो व त्यांच्यात साक्षात असतो. जसा लखलखणारा विद्युतरूपी अग्नी मेघाला प्राप्त करतो. ॥४॥

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