ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 20/ मन्त्र 6
ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
स हि क्षेमो॑ ह॒विर्य॒ज्ञः श्रु॒ष्टीद॑स्य गा॒तुरे॑ति । अ॒ग्निं दे॒वा वाशी॑मन्तम् ॥
स्वर सहित पद पाठसः । हि । क्षेमः॑ । ह॒विः । य॒ज्ञः । श्रु॒ष्टी । इत् । अ॒स्य॒ । गा॒तुः । ए॒ति॒ । अ॒ग्निम् । दे॒वाः । वाशी॑ऽमन्तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स हि क्षेमो हविर्यज्ञः श्रुष्टीदस्य गातुरेति । अग्निं देवा वाशीमन्तम् ॥
स्वर रहित पद पाठसः । हि । क्षेमः । हविः । यज्ञः । श्रुष्टी । इत् । अस्य । गातुः । एति । अग्निम् । देवाः । वाशीऽमन्तम् ॥ १०.२०.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 20; मन्त्र » 6
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 6
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अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अस्य गातुः) इस प्राप्त होने योग्य परमात्मा या राजा के लिए (सः-हविः-यज्ञः-हि क्षेमः-श्रुष्टी-इत्) वह प्रार्थनारूप यज्ञ तथा उपहाररूप यज्ञ कल्याणसाधक ही होता है (अग्निम्-एति) अग्रणायक परमात्मा को या राजा को जो प्राप्त होता है तथा (देवाः-वाशीमन्तम्) उपासक जन स्तुतिपात्र परमात्मा को या राजा को प्राप्त करते हैं ॥६॥
भावार्थ
प्राप्त करने योग्य परमात्मा या राजा के लिए जो प्रार्थनावचन या उपहार दिया जाता है, वह उपासकों या प्रजाजनों का कल्याण साधता है। उस स्तुतिपात्र प्रशंसापात्र परमात्मा या राजा को उपासक या विद्वान् प्रजाजन प्राप्त किया करते हैं ॥६॥
विषय
'वाशीमान्' अग्नि
पदार्थ
[१] (स) = वे प्रभु (हि) = निश्चय से (क्षेमः) = आनन्दस्वरूप हैं और सब का कल्याण करनेवाले हैं। (हविः) = [ हु दाने] वे इस ब्रह्माण्ड यज्ञ को करते हुए जीव को उसकी उन्नति के लिये सब आवश्यक पदार्थों के प्राप्त करानेवाले हैं। (यज्ञः) = वे पूजा के योग्य, संगतिकरण योग्य व समर्पणीय हैं । प्रभु के प्रति अपना अर्पण करके ही हम अपने पूर्ण कल्याण का साधन करते हैं । [२] (श्रुष्टी) = शीघ्र ही (इत्) = निश्चय से (गातुः) = मार्ग पर चलानेवाला व्यक्ति (अस्य एति) = इसके प्रति प्राप्त होता है। वस्तुतः धर्म के मार्ग पर चलता हुआ व्यक्ति, एक दिन आगे और आगे बढ़ता हुआ, इस प्रभु को प्राप्त करता ही है। [३] उसी मार्ग का संकेत करते हुए कहते हैं कि (देवा:) = देववृत्ति के लोग, 'देवो दानाद्वा दीपनाद्वा द्योतनाद्वा' देकर बचे हुए को खानेवाले, स्वाध्याय से अपने मस्तिष्क को दीप्त करनेवाले तथा प्रवचन द्वारा औरों तक ज्ञान - ज्योति को पहुँचानेवाले लोग (अग्निम्) = उस अग्रेणी, (वाशीमन्तम्) = आवाज वाले, हृदयस्थ होकर सदा प्रेरणा देनेवाले प्रभु को प्राप्त होते हैं । एवं स्पष्ट है कि प्रभु प्राप्ति के लिये देव बनना आवश्यक है। उन्नति के मार्ग पर चलने के लिये प्रयत्न करनेवाला तथा हृदयस्थ प्रभु की वाणी को सुननेवाला व्यक्ति ही प्रभु को प्राप्त करता है। प्रभु 'अग्नि' हैं, सो उनका भक्त अग्नि बनने का प्रयत्न करता है। प्रभु 'वाशीमान्' हैं, प्रभु भक्त उस (वाशी) = [voice] को सुनने का प्रयत्न करता है।
भावार्थ
भावार्थ- मैं धर्म के मार्ग पर चलता हुआ, देव बनने का प्रयत्न करता हुआ, प्रभु को प्राप्त करूँ। वे प्रभु ही मुझे श्रेष्ठ आनन्द को प्राप्त कराते हैं ।
विषय
यज्ञ और परम पुरुष की उपासना। उनका फल।
भावार्थ
(सः) वह (हवि-यज्ञः) हवि, उत्तम अन्नादि चरु द्वारा किया गया यज्ञ, दान, (क्षेमः हि) कल्याणकारक और प्रजा का रक्षण करने वाला होता है। (अस्य) इसका (गातुः) विद्वान् पुरुष (श्रुष्टी इत्) उत्तम फल शीघ्र ही (एति) प्राप्त करता है। (देवाः) विद्वान् ज्ञान का इच्छुक पुरुष (वाशीमन्तम् अग्निम्) उत्तम वाणी से युक्त, ज्ञानवान् पुरुष की उपासना करते हैं। इति द्वितीयो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:- १ आसुरी त्रिष्टुप्। २, ६ अनुष्टुप्। ३ पादनिचृद्गायत्री। ४, ५, ७ निचृद् गायत्री। ६ गायत्री। ८ विराड् गायत्री। १० त्रिष्टुप्। दशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अस्य गातुः) अस्मै प्रापणशीलस्य परमात्मनो राज्ञो वा “चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि” [अष्टा०२।३।६२] षष्ठी (सः-हविः ‘हविषः’ यज्ञः-हि क्षेमः-श्रुष्टी-इत्) स खलु प्रार्थनारूपो यज्ञः-अध्यात्मयज्ञ उपहाररूपो यज्ञो वा कल्याणसाधकः शीघ्रमेव (अग्निम्-एति) अग्रणायकं परमात्मानं राजानं वा प्राप्नोति, तथा (देवाः-वाशीमन्तम्) उपासकजना वाग्वन्तं स्तुतिमन्तं परमात्मानं प्रार्थनावन्तं राजानं वा प्राप्नुवन्ति “वाशी वाङ्नाम” [निघ०१।११] ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni is the source of peace and well being, receiver of yajnic homage, adorable in yajna. Unimpeded is his course, instant his motion, infinite the ways he goes by and ultimate his light and voice to which the divines reach for bliss.
मराठी (1)
भावार्थ
प्राप्त होण्यायोग्य परमात्मा किंवा राजा यांच्यासाठी जे प्रार्थनावचन किंवा उपहार दिला जातो तो उपासकांचे किंवा प्रजाजनांचे कल्याण साधतो. त्या स्तुतिपात्र प्रशंसापात्र परमात्मा किंवा राजा यांना उपासक किंवा विद्वान प्रजाजन प्राप्त करतात. ॥६॥
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