ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 20/ मन्त्र 9
ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
कृ॒ष्णः श्वे॒तो॑ऽरु॒षो यामो॑ अस्य ब्र॒ध्न ऋ॒ज्र उ॒त शोणो॒ यश॑स्वान् । हिर॑ण्यरूपं॒ जनि॑ता जजान ॥
स्वर सहित पद पाठकृ॒ष्णः । श्वे॒तः । अ॒रु॒षः । यामः॑ । अ॒स्य॒ । ब्र॒ध्नः । ऋ॒ज्रः । उ॒त । शोणः॑ । यश॑स्वान् । हिर॑ण्यऽरूपम् । जनि॑ता । ज॒जा॒न॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
कृष्णः श्वेतोऽरुषो यामो अस्य ब्रध्न ऋज्र उत शोणो यशस्वान् । हिरण्यरूपं जनिता जजान ॥
स्वर रहित पद पाठकृष्णः । श्वेतः । अरुषः । यामः । अस्य । ब्रध्नः । ऋज्रः । उत । शोणः । यशस्वान् । हिरण्यऽरूपम् । जनिता । जजान ॥ १०.२०.९
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 20; मन्त्र » 9
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अस्य) इस परमात्मा या राजा के (यामः) यमनीय-स्वाधीन करने योग्य संसार या राष्ट्रप्रदेश (कृष्णः) आकर्षक (श्वेतः) निर्दोष (अरुषः) आरोचमान (ब्रध्नः) महान् (ऋज्रः) अकुटिल (उत) और (शोणः) प्रगतिप्राप्त (यशस्वान्) अन्नादि भोगवाला है, उसे (हिरण्यरूपम्) चमत्कृत (जनिता) उत्पन्न करनेवाला परमात्मा या सम्पन्न करनेवाला राजा (जजान) उत्पन्न करता है या सम्पन्न करता है ॥९॥
भावार्थ
संसार परमात्मा के अधीन है और राष्ट्र प्रदेश राजा के अधीन होता है। संसार या राष्ट्र प्रदेश आकर्षक, निर्दोष, रोचमान, महान्, अकुटिल, अन्नों भोगों से सम्पन्न और प्रगतिशील होना बनाना चाहिए। इनका उत्पादक परमात्मा है और राजा इनको सम्पन्न करता है ॥९॥
विषय
हिरण्यरूप
पदार्थ
[१] गत मन्त्र का जो नर है (अस्य) = इसका (यामः) = मार्ग (कृष्णः श्वेतः) = काला व सफेद होता है। 'कृष्णः श्वेतः ' यहाँ विरोधाभास अलंकार है । विरोध का परिहार इस प्रकार है कि कृष्णः = आकर्षक है, श्वेतः = शुद्ध व निर्मल है। इस पुरुष को देखकर औरों के मनों में भी इस मार्ग पर चलने की वृत्ति उत्पन्न होती है । (अरुषः) = इनका जीवन मार्ग [अ-रुष] क्रोध से शून्य है अथवा (आरोचमान) = प्रकाशमय है । (ब्रध्नः) = इनका मार्ग महान् होता है ये उदारवृत्ति को लेकर चलते हैं, इनके किसी भी विचार व कर्म में हृदय की संकीर्णता का प्रकटन नहीं होता है (ऋज्रः) = इनका मार्ग ऋजु व सरल होता है, ये कुटिलता से दूर रहते हैं। (उत) = और इनका यह मार्ग (शोण:) = तेजस्विता के सूचक रक्तवर्ण वाला होता है, इनके प्रत्येक कर्म में तेजस्विता टपकती है । और इसीलिये इनका यह मार्ग (यशस्वान्) = यशोयुक्त होता है । [२] इस मार्ग पर चलनेवाले इन व्यक्तियों को (जनिता) = वह उत्पादक प्रभु (हिरण्यरूपम्) = ज्योतिर्मय रूप वाला जजान बनाता है। अथवा हितरमणीयरूप वाला करता है। इन व्यक्तियों के चेहरे से ज्योति व निद्वेषता का आभास मिलता है।
भावार्थ
भावार्थ- हमारा जीवन का मार्ग आकर्षक व शुद्ध हो, आरोचमान विशाल व ऋजु हो, तेजस्विता व यश से पूर्ण हो। हम हिरण्यरूप बनें।
विषय
प्रभु का उत्तम शासन।
भावार्थ
(अस्य) इस प्रभु परमेश्वर का (यामः) जगत् को नियम में रखने वाला नियन्त्रण (कृष्णः) दुष्टों को पीड़ित करने वाला, (श्वेतः) शुभ्र, निर्दोष (अरुषः) दीप्तिमान् (ब्रध्नः) महान्, सूर्य के समान तेजस्वी, जगत् को बांधने वाला, सर्वाधार (ऋज्रः) ऋजु अर्थात् धर्म मार्ग में चलाने वाला (उत) और (शोणः) अति वेगवान् (यशस्वान्) अन्न, धनैश्वर्य से सम्पन्न है। जिसको (जनिता) सर्वोत्पादक प्रभु (हिरण्यरूपं जान) हित और रमणीय, सुखकारी रूप में प्रकट करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:- १ आसुरी त्रिष्टुप्। २, ६ अनुष्टुप्। ३ पादनिचृद्गायत्री। ४, ५, ७ निचृद् गायत्री। ६ गायत्री। ८ विराड् गायत्री। १० त्रिष्टुप्। दशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अस्य) एतस्य परमात्मनो राज्ञो वा (यामः) यमनीयः स्वाधीनीकर्तव्यः संसारो राष्ट्रप्रदेशो वा (कृष्णः) आकर्षकः (श्वेतः) निर्दोषः (अरुषः) आरोचमानः (ब्रध्नः) महान् (ऋज्रः) अकुटिलः (उत) अपि (शोणः) गतिशीलश्चलः प्रगतिप्राप्तो वा (यशस्वान्) अन्नादिभोगवान् “यशोऽन्ननाम” [निघ०२।७] अस्ति, तम् (हिरण्यरूपम्) चमत्कृतम् (जनिता) जनयिता परमात्मा राजा वा (जजान) उत्पादितवान् प्रसाधितवान् वा ॥९॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Black, white and red is the order of this Agni moving the world forward, great bond maker, simple straight and fast, rich in food, wealth and honour, grand and glorious, which the lord creator has adorned with golden beauty and grace.
मराठी (1)
भावार्थ
हे जग परमेश्वराच्या अधीन असते व राष्ट्राचा प्रदेश राजाच्या अधीन असतो. जग किंवा राष्ट्र आकर्षक, निर्दोष, रोचक, महान, कुटिल नसलेले, अन्न इत्यादी भोगांनी संपन्न व प्रगतिशील बनविले पाहिजे. त्यांचा उत्पादक परमात्मा आहे व राजा त्यांना संपन्न करतो. ॥९॥
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