ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 20/ मन्त्र 5
ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
जु॒षद्ध॒व्या मानु॑षस्यो॒र्ध्वस्त॑स्था॒वृभ्वा॑ य॒ज्ञे । मि॒न्वन्त्सद्म॑ पु॒र ए॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठजु॒षत् । ह॒व्या । मानु॑षस्य । ऊ॒र्ध्वः । त॒स्थौ॒ । ऋभ्वा॑ । य॒ज्ञे । मि॒न्वन् । सद्म॑ । पु॒रः । ए॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
जुषद्धव्या मानुषस्योर्ध्वस्तस्थावृभ्वा यज्ञे । मिन्वन्त्सद्म पुर एति ॥
स्वर रहित पद पाठजुषत् । हव्या । मानुषस्य । ऊर्ध्वः । तस्थौ । ऋभ्वा । यज्ञे । मिन्वन् । सद्म । पुरः । एति ॥ १०.२०.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 20; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ऋभ्वा) वह क्रान्तदर्शी अग्नि परमात्मा या मेधावी राजा (यज्ञे) अध्यात्म-यज्ञ में या राजसूययज्ञ में (मानुषस्य) उपासक जन के या प्रजाजन के (हव्या जुषत्) प्रार्थनावचनों को सेवन करता हुआ या उपहारवस्तु को पसन्द करता हुआ (ऊर्ध्वः तस्थौ) शिरोधार्य या मान्य होता है या उच्चासन पर विराजमान होता है। (सद्म मिन्वन्) हृदयसदन को प्राप्त होता हुआ या राजभवन को प्राप्त होता हुआ (पुरः-एति) सम्मुख या साक्षात् प्राप्त होता है ॥५॥
भावार्थ
परमात्मा या राजा अध्यात्मयज्ञ या राजसूययज्ञ में प्रार्थनावचन या उपहारवस्तुओं को स्वीकार करता है, शिरोधार्य होता हुआ उपासकों के हृदय में परमात्मा और राजभवन में राजा विराजमान है ॥५॥
विषय
'यज्ञ-प्रिय' प्रभु
पदार्थ
[१] वे प्रभु (मानुषस्य) = करुणापूर्ण मन वाले मनुष्य के [Humane = मानुष], मनुष्यों का हित चाहनेवाले व्यक्ति के (हव्या) = हव्य पदार्थों का (जुषत्) = सेवन करते हैं । अर्थात् लोकहित की भावना से जब मनुष्य त्यागपूर्वक उपभोग करता है तो वह प्रभु को प्रीणित करनेवाला है । [२] वस्तुतः मनुष्य यज्ञ करता है, तो वे प्रभु (ऊर्ध्वः तस्थौ) = ऊपर खड़े होते हैं, अर्थात् उन यज्ञों की रक्षा कर रहे होते हैं । प्रभुरक्षण से ही तो यज्ञ पूर्ण हो पाते हैं । [३] वे प्रभु यज्ञे इन यज्ञों में ही (ऋभ्वा) = [उरु भाति] खूब देदीप्यमान होते हैं । वस्तुतः जहां यज्ञ, वहीं प्रभु का निवास । अयज्ञिय स्थलों में प्रभु का प्रकाश नहीं होता । [४] इन यज्ञशील पुरुषों के लिये वे प्रभु (सद्म मिन्वन्) = उत्तम देवगृहों का निर्माण करते हैं, अर्थात् इन को उत्तम लोकों में जन्म देते हैं और (पुरः एति) = इनके आगे आगे चलते हैं, अर्थात् इनके लिये मार्गदर्शन होते हैं। प्रभु के नेतृत्व में इन यज्ञशील पुरुषों का सदा कल्याण ही होता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु के लिये यज्ञशील पुरुष ही प्रिय हैं, यज्ञों के रक्षक प्रभु ही हैं। इन यज्ञशील पुरुषों को उत्तम लोकों की प्राप्ति होती है।
विषय
अग्निवत् उत्तम पदस्थ विद्वान् के कर्त्तव्य। पक्षान्तर मे ज्ञानी मुमुक्षु का परम पद की ओर गमन।
भावार्थ
अग्नि जिस प्रकार (यज्ञे मानुषस्य हव्या जुषत् ऊर्ध्वः तस्थौ) यज्ञ में मनुष्य के हवि को ग्रहण करता हुआ ऊपर उठता है उसी प्रकार (ऋभ्वा) सत्य ज्ञानवान्, गुणों में महान्, विद्वान् पुरुष (यज्ञे) यज्ञ, परस्पर संग के अवसर पर (मानुषस्य) मनुष्य के (हव्या) नाना दातव्य अन्नादि पदार्थों को (जुषत्) प्रेमपूर्वक स्वीकार करता हुआ (ऊर्ध्वः तस्थौ) सब से उत्तम आसन पर विराजे, वह (सद्म मिन्वन्) गृह वा आसन को प्राप्त होता हुआ (पुरः एति) आगे आता है, (२) इसी प्रकार ज्ञानी, मुमुक्षु मानुष-अन्नादि को स्वीकार करता हुआ भी (यज्ञे) परमेश्वर के आश्रय से ऊपर उठता है वह (सद्म मिन्वन्) गृहवत् देहबन्धन को दूर फेंक कर भी (पुरः एति) आगे बढ़ता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:- १ आसुरी त्रिष्टुप्। २, ६ अनुष्टुप्। ३ पादनिचृद्गायत्री। ४, ५, ७ निचृद् गायत्री। ६ गायत्री। ८ विराड् गायत्री। १० त्रिष्टुप्। दशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ऋभ्वा) स क्रान्तदर्शी तथाऽग्रणायकः परमात्मा यद्वा मेधावी राजा “ऋभुः-मेधाविनाम” [निघ०३।१५] ऋभुशब्दादाकारादेशश्छान्दसः (यज्ञे) अध्यात्मयज्ञे राजसूययज्ञे वा (मानुषस्य) उपासक-जनस्य प्रजाजनस्य वा (हव्या जुषत्) प्रार्थनावचनानि सेवमानः, उपहारवस्तूनि प्रियमाणो वा (ऊर्ध्वः-तस्थौ) शिरोधार्यो भूतो भवति मान्यो भवति, उच्चासनाधिकारी भवति वा (सद्म मिन्वन्) हृदयसदनं प्राप्नुवन् “मिनोति गतिकर्मा” [निघ०२।१४] राजभवनं प्राप्नुवन् (पुरः-एति) सम्मुखं प्राप्नोति-साक्षाद् भवति ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Accepting with love the homage of humanity, Agni abides in yajna and shines high by flames of fire and, transcending the hall of yajna, goes on vibrating across the spaces.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा किंवा राजा अध्यात्मयज्ञ किंवा राजसूय यज्ञात प्रार्थना वचन किंवा उपहार वस्तूंना स्वीकार करतो. शिरोधार्य होऊन उपासकांच्या हृदयात परमात्मा व राजभवनात राजा विराजमान असतात. ॥५॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal