ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 20/ मन्त्र 8
ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः
देवता - अग्निः
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
नरो॒ ये के चा॒स्मदा विश्वेत्ते वा॒म आ स्यु॑: । अ॒ग्निं ह॒विषा॒ वर्ध॑न्तः ॥
स्वर सहित पद पाठनरः॑ । ये । के । च॒ । अ॒स्मत् । आ । विश्वा॑ । इत् । ते । वा॒मे । आ । स्यु॒रिति॑ स्युः । अ॒ग्निम् । ह॒विषा॑ । वर्ध॑न्तः ॥
स्वर रहित मन्त्र
नरो ये के चास्मदा विश्वेत्ते वाम आ स्यु: । अग्निं हविषा वर्धन्तः ॥
स्वर रहित पद पाठनरः । ये । के । च । अस्मत् । आ । विश्वा । इत् । ते । वामे । आ । स्युरिति स्युः । अग्निम् । हविषा । वर्धन्तः ॥ १०.२०.८
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 20; मन्त्र » 8
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ये के च-अस्मत्-नराः) जो कोई हमारे में स्तोता या प्रशंसक जन हैं, (विश्वा) सब (ते) वे (इत्) ही (वामे) वननीय भजनीय (हविषा) प्रार्थना से (अग्नि) परमात्मा या राजा को प्रशंसित करते हुए (आ-आस्युः) समन्तरूप से आश्रय करें-करते हैं ॥८॥
भावार्थ
सब श्रेष्ठ जन परमात्मा या राजा को प्रार्थनाओं द्वारा प्रशंसाओं द्वारा बढ़ाते हुए उसके आश्रय में रहते हैं ॥८॥
विषय
नर की वाम में स्थिति
पदार्थ
[१] (अस्मत्) = हमारे में से (ये के च) = जो कोई भी (नरः) = [नरम् ] संसार के विषयों में न फँसनेवाले तथा [नृ नये] अपने को उन्नतिपथ पर आगे ले चलनेवाले व्यक्ति हों (विश्वा इत् ते) = वे सब निश्चय से वामे उस सुन्दर वननीय उपासनीय प्रभु में (आस्युः) = सब प्रकार से हों । अर्थात् ब्रह्मस्थ व ब्रह्म का उपासक होने का उपाय यही है कि हम 'नर' बनें इस संसार में नर बनकर कार्य करें। [२] नर बनकर कार्य करनेवाला व्यक्ति आसक्त नहीं होता। इसका जीवन हविरूप होता है । हम इस (हविषा) = हवि के द्वारा - दानपूर्वक अदन के द्वारा (सदा) = सदा यज्ञशेष के सेवन के द्वारा (अग्निम्) = उस अग्रेणी प्रभु का (वर्धन्तः) = वर्धन करनेवाले हों । प्रभु की उपासना हवि के द्वारा ही होती है 'कस्मै देवाय हविषा विधेम' । प्रभु के उपासक सदा 'वामे आस्युः 'सुन्दर सेवनीय पदार्थों में स्थित होते हैं। इन्हें इन पदार्थों की कमी नहीं हो जाती ।
भावार्थ
भावार्थ- दानपूर्वक अदन के द्वारा प्रभु का वर्धन करते हुए हम सदा नर बनें और ब्रह्मनिष्ठ व सब सुन्दर वस्तुओं को प्राप्त करनेवाले हों ।
विषय
उत्तम पुरुषों का कर्त्तव्य, प्रभु की उपासना में रहना।
भावार्थ
(अस्मत् ये के च नरः) हमारे जो भी उत्तम पुरुष हों (ते) वे (अग्निं हविषा वर्धन्तः) ज्ञानस्वरूप प्रभु को स्तुति द्वारा और सेव्य यज्ञाग्नि की हवि से वृद्धि करते हुए (विश्वा इत् वामे) समस्त प्रकार से सेव्य उत्तम प्रभु में (आ स्युः) रमें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:- १ आसुरी त्रिष्टुप्। २, ६ अनुष्टुप्। ३ पादनिचृद्गायत्री। ४, ५, ७ निचृद् गायत्री। ६ गायत्री। ८ विराड् गायत्री। १० त्रिष्टुप्। दशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ये के च-अस्मत्-नरः) ये केचन-अस्माकं पक्षे स्तोतारः प्रशंसका जनाः (विश्वा) सर्वे ‘आकारादेशश्छान्दसः’ (ते-इत्) ते हि (वामे) वननीये भजनीयवस्तुनिमित्ते (हविषा) प्रार्थनया (अग्निं वर्धन्तः) परमात्मानं राजानं वा वर्धयन्तः प्रशंसन्तः (आ-आस्युः) समन्तादाश्रयीकुर्वन्तु ॥८॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Those leading lights of humanity among us who serve and exalt Agni with yajnic offerings of homage may, we pray, enjoy your love and favour.
मराठी (1)
भावार्थ
सर्वश्रेष्ठ लोक परमात्मा किंवा राजाला प्रार्थनेद्वारे व प्रशंसकाद्वारे वृद्धी करून त्याच्या आश्रयाने राहतात. ॥८॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal