ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 20/ मन्त्र 7
ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
य॒ज्ञा॒साहं॒ दुव॑ इषे॒ऽग्निं पूर्व॑स्य॒ शेव॑स्य । अद्रे॑: सू॒नुमा॒युमा॑हुः ॥
स्वर सहित पद पाठय॒ज्ञ॒ऽसह॑म् । दुवः॑ । इ॒षे॒ । अ॒ग्निम् । पूर्व॑स्य । शेव॑स्य । अद्रेः॑ । सू॒नुम् । आ॒युम् । आ॒हुः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यज्ञासाहं दुव इषेऽग्निं पूर्वस्य शेवस्य । अद्रे: सूनुमायुमाहुः ॥
स्वर रहित पद पाठयज्ञऽसहम् । दुवः । इषे । अग्निम् । पूर्वस्य । शेवस्य । अद्रेः । सूनुम् । आयुम् । आहुः ॥ १०.२०.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 20; मन्त्र » 7
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अद्रेः सूनुम्) स्तुतिकर्ता या प्रशंसक के प्रेरक (आयुम्-आहुः) आयुरूप-आयुप्रद उसे कहते हैं (यज्ञसाहम्) अध्यात्मयज्ञ के या राजसूययज्ञ के सहने योग्य (पूर्वस्य शेवस्य) उत्कृष्ट सुख के (दुवः-अग्निम्-इषे) आराधनीय तथा परिचरणीय परमात्मा या राजा को प्रार्थित करता हूँ-चाहता हूँ ॥७॥
भावार्थ
परमात्मा या राजा स्तुतिकर्ता अथवा प्रशंसक को आगे प्रेरित करता है। वह परमात्मा या राजा आयुरूप-आयु देनेवाला होता है। अध्यात्मयज्ञ में परमात्मा आश्रयणीय है। दोनों ही श्रेष्ठ सुख के देनेवाले हैं ॥७॥
विषय
'यज्ञासाह' अग्नि
पदार्थ
[१] (यज्ञासाहम्) = यज्ञों के द्वारा समन्तात् शत्रुओं का पराभव करनेवाले, अर्थात् हमारे में यज्ञवृत्ति को उत्पन्न करके हमारे काम, क्रोध लोभादि को समाप्त करनेवाले, (अग्निम्) = उस अग्रेणी प्रभु को लक्ष्य करके (दुवः परिचरणम्) = उपासना को इषे चाहता हूँ। मेरी कामना यह होती है कि मैं उस यज्ञ पुरुष का उपासक बनूँ जो कि यज्ञाग्नि में हमारे सब मलों को भस्मीभूत कर देते हैं । [२] उस प्रभु को (पूर्वस्य) = सर्वप्रथम व सर्वश्रेष्ठ (शेवस्य) = सुख व आनन्द का (सूनुम्) = प्रेरक (आहुः) = कहते हैं । वे प्रभु उस अवर्णनीय आनन्द को देनेवाले हैं जो आनन्द अन्य सब आनन्दों का अतिशायी है । उस प्रभु को (अद्रेः) = बड़ी कठिनता से विदारण के योग्य, पाँच पर्वों वाली अविद्यारूपी पर्वत का (आयुम्) = [इगतौ] हिला देनेवाला कहते हैं । उस प्रभु की कृपा से यह अत्यन्त दृढ़ अविद्या की चट्टान भी चकनाचूर हो जाती है । एवं प्रभु कृपा से हमारा अज्ञान नष्ट होकर हमें उत्कृष्ट आनन्द प्राप्त होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - यज्ञवृत्ति से सब पाप दूर होते हैं, तब प्रभु हमें अवर्णनीय आनन्द प्राप्त कराते हैं ।
विषय
जीवनप्रद प्रभु की उपासना।
भावार्थ
जिस (अद्रेः सूनुम्) मेघ के प्रेरक को (आयुम् आहुः) सब का जीवन रूप कहते हैं उस (यज्ञ-साहं) महान् यज्ञ को धारण करने वाले (अग्निं) महान् अग्नि, नायक वा सूर्यवत् प्रभु की (पूर्वस्य शेवस्य) सब से उत्कृष्ट सुख की प्राप्ति के लिये (दुवः इषे) उपासना करता हूँ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:- १ आसुरी त्रिष्टुप्। २, ६ अनुष्टुप्। ३ पादनिचृद्गायत्री। ४, ५, ७ निचृद् गायत्री। ६ गायत्री। ८ विराड् गायत्री। १० त्रिष्टुप्। दशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अद्रेः सूनुम्) श्लोककृतः-स्तुतिकर्तुरुपाकस्य प्रशंसकस्य वा “अद्रिरसि श्लोककृत्” [कठ०१।५] प्रेरकम् (आयुम्-आहुः) आयुरूपमायुप्रदं वा कथयन्ति विद्वांसस्तम् (यज्ञसाहम्) अध्यात्मयज्ञस्य राजसूययज्ञस्य वा सोढुं योग्यम् (पूर्वस्य शेवस्य) उत्कृष्टस्य सुखस्य “शेवः सुखनाम” [निघ०३।४] (दुवः-अग्निम्-इषे) आराधनीयम् “दुवस्यति राध्नोतिकर्मा” [निरु०१०।२०] नमस्यं परिचरणीयं सेवनीयं वा “दुवस्यत……नमस्यतेत्येतत्” [श०६।८।१।६] “दुवस्यति परिचरणकर्मा” [निघ०३।५] परमात्मानं राजानं वा प्रार्थये-इच्छामि वा ॥७॥
इंग्लिश (1)
Meaning
I love and adore Agni, the refulgent power that conducts the spiritual and social yajna of the highest order. A celebrity worthy of worship, inexhaustible treasure of eternal joy, inspirer of dedicated devotees, life giver, indeed the very life of existence as they call him.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा किंवा राजा स्तुतिकर्ता किंवा प्रशंसकाला प्रेरित करतो. तो परमात्मा किंवा राजा आयूरूपी-आयू देणारा आहे. अध्यात्मयज्ञात परमात्मा आश्रय घेण्यायोग्य आहे व राजसूययज्ञात राजा आश्रय घेण्यायोग्य आहे. दोघेही श्रेष्ठ सुख देणारे आहेत. ॥७॥
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