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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 27/ मन्त्र 12
    ऋषिः - वसुक्र ऐन्द्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    किय॑ती॒ योषा॑ मर्य॒तो व॑धू॒योः परि॑प्रीता॒ पन्य॑सा॒ वार्ये॑ण । भ॒द्रा व॒धूर्भ॑वति॒ यत्सु॒पेशा॑: स्व॒यं सा मि॒त्रं व॑नुते॒ जने॑ चित् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    किय॑ती । योषा॑ । म॒र्य॒तः । व॒धू॒ऽयोः । परि॑ऽप्रीता । पन्य॑सा । वार्ये॑ण । भ॒द्रा । व॒धूः । भ॒व॒ति॒ । यत् । सु॒ऽपेशाः॑ । स्व॒यम् । सा । मि॒त्रम् । व॒नु॒ते॒ जने॑ चित् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कियती योषा मर्यतो वधूयोः परिप्रीता पन्यसा वार्येण । भद्रा वधूर्भवति यत्सुपेशा: स्वयं सा मित्रं वनुते जने चित् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कियती । योषा । मर्यतः । वधूऽयोः । परिऽप्रीता । पन्यसा । वार्येण । भद्रा । वधूः । भवति । यत् । सुऽपेशाः । स्वयम् । सा । मित्रम् । वनुते जने चित् ॥ १०.२७.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 27; मन्त्र » 12
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (कियती योषा) कोई स्त्री विवाहयोग्य होती है, जो (वधूयोः-मर्यतः) वधू चाहनेवाले वर की (पन्यसा वार्येण परिप्रीता) गुणप्रशंसा वरने योग्य धन आदि से संतुष्ट हो जाती है (भद्रा वधूः-भवति) कल्याण को प्राप्त होनेवाली वह वधू होती है (यत् सुपेशाः स्वयं सा मित्रं जने चित् वनुते) कि जो सुन्दररूप आभूषणयुक्त जनसमुदाय में स्वयं वर को वरती है ॥१२॥

    भावार्थ

    वह वधू भाग्यशालिनी है, जो वधू को चाहनेवाले वर की प्रशंसाभाजन अन्य वस्तुओं द्वारा सन्तुष्ट रहती है और सुभूषित हुई जनसमुदाय में वर को वरती है ॥१२॥

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    विषय

    मित्र न कि योषा

    पदार्थ

    [१] (मर्यतः) = प्रकृति के पीछे मरनेवाले, उसकी प्राप्ति के लिये अत्यन्त लालायित, (वधूयोः) = प्रकृति को अपनी वधू बनाने की कामनावाले के वार्येण (पन्यसा) = वरणीय सुन्दर स्तोत्र से यह प्रकृति (कियती परिप्रीता) = कितनी प्रसन्न हो सकती है ? अर्थात् यदि हम इन प्राकृतिक भोगों के पीछे दौड़ते हैं तो ये प्राकृतिक भोग हमारा देर तक कल्याण नहीं कर सकते। प्रकृति के पीछे मरनेवाले को यह प्रकृति देर तक प्रसन्न नहीं कर सकती। [२] यह तो तभी (भद्रा) = कल्याणकर तथा (वधूः) = [ वहति कार्यधुरं] व हमारे कार्यों का वहन करनेवाली (भवति) = होती है (यत्) = जब कि (सुपेशा:) = सुन्दर आकृति को जन्म देनेवाली सा वह प्रकृति (जने चित्) = लोगों में निश्चय से (स्वयम्) = अपने आप (मित्रं वनुते) = मित्र को सम्भक्त करती है, प्राप्त होती है। हम प्रकृति के पीछे न मरें, प्रकृति वरण के लिये लालायित न हों, प्रकृति ही हमारा वरण करे। जब प्रकृति हमारा वरण करती है तो यह हमारे कल्याण के लिये होती है और हमारे कार्यों की पूर्ति के लिये होती है, हमारे जीवनों को यह सुन्दर आकार देती है [भद्रा-वधू- सुपेशा: ] ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रकृति को हम अपना मित्र बनायें, इसे वधू बनाने के लिये लालायित न हों। यह देर तक हमें सन्तुष्ट न कर सकेगी।

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    विषय

    सौभाग्यवती वरवर्णिनी स्त्री के समान ईश्वराधीन प्रकृति का वर्णन।

    भावार्थ

    (कियती योषा) कितनी स्त्री ऐसी हैं जो (वधूयोः मर्यतः) वधू की कामना करने वाले मनुष्य के (पन्यसा वार्येण परिप्रीता) स्तुतियुक्त वचन और धन से ही खूब सन्तुष्ट होजाती हैं। वस्तुतः (भद्रा वधूः भवति) वही वधू कल्याणकारिणी और सुख सौभाग्यवती होती है (यत् सुपेशाः) जो सुभूषित होकर (सा) वह (जने चित् मित्रं स्वयं वनुते) मनुष्यों के बीच अपने मित्र पुरुष को स्वयं सखा, पति रूप से स्वीकार करती है। अध्यात्म में—वह स्त्रीवत् प्रकृति की कितनी मात्रा है जो मरणशील जीव के वचन और ऐश्वर्य से तृप्त है, अर्थात् उसके वश है। वस्तुतः वह प्रकृति वधूवत् जगत् को धारण करने वाली, सूर्यादि आभूषण धारे, उत्पन्न जगत् के बीच उस प्रभुको ही मित्रवत् सेवती है। वही (भद्रा) सर्वसुखजनक, सर्वेश्वर्यवती है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसुक्र ऐन्द्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ५, ८, १०, १४, २२ त्रिष्टुप्। २, ९, १६, १८ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४, ११, १२, १५, १९–२१, २३ निचृत् त्रिष्टुप्। ६, ७, १३, १७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २४ भुरिक् त्रिष्टुप्। चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (कियती योषा) काचित् स्त्री भवति यत् (वधूयोः-मर्यतः) वध्वाः काङ्क्षिणो जनस्य (पन्यसा वार्येण परिप्रीता) गुणप्रशंसया वरणीयेन धनादिना परिसन्तुष्टा स्यात् (भद्रा वधूः भवति) कल्याणी वधूस्तु सा भवति (यत् सुपेशाः स्वयं सा मित्रं जने चित्-वनुते) यतः सुरूपा स्वयं पतिं वृणुते जनसमुदाये हि ॥१२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Some maiden feels pleased and satisfied with the dear lovable wealth and speech of the man wooing her for a wife or she is herself pleasing and accepted for her speech and riches. But in reality, that wife is good and fortunate who, noble in person and manners, loves and chooses her friend and husband by herself from amongst the youth.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ती वधू भाग्यशाली असते जी वराची प्रशंसा भाजन असून, धन इत्यादी अन्य वस्तूंद्वारे संतुष्ट राहते व सुभूषित होऊन जनसमुदायात वराला वरते. ॥१२॥

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