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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 27/ मन्त्र 23
    ऋषिः - वसुक्र ऐन्द्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    दे॒वानां॒ माने॑ प्रथ॒मा अ॑तिष्ठन्कृ॒न्तत्रा॑देषा॒मुप॑रा॒ उदा॑यन् । त्रय॑स्तपन्ति पृथि॒वीम॑नू॒पा द्वा बृबू॑कं वहत॒: पुरी॑षम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वाना॑म् । माने॑ । प्र॒थ॒माः । अ॒ति॒ष्ठ॒न् । कृ॒न्तत्रा॑त् । ए॒षा॒म् । उप॑राः । उत् । आ॒य॒न् । त्रयः॑ । त॒प॒न्ति॒ । पृ॒थि॒वीम् । अ॒नू॒पाः । द्वा । बृबू॑कम् । व॒ह॒तः॒ । पुरी॑षम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवानां माने प्रथमा अतिष्ठन्कृन्तत्रादेषामुपरा उदायन् । त्रयस्तपन्ति पृथिवीमनूपा द्वा बृबूकं वहत: पुरीषम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    देवानाम् । माने । प्रथमाः । अतिष्ठन् । कृन्तत्रात् । एषाम् । उपराः । उत् । आयन् । त्रयः । तपन्ति । पृथिवीम् । अनूपाः । द्वा । बृबूकम् । वहतः । पुरीषम् ॥ १०.२७.२३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 27; मन्त्र » 23
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    सृष्ट्युत्पत्ति दर्शाते हैं−(देवानां माने प्रथमाः-अतिष्ठन्) देवों के निर्माण समय प्रमुख देव प्रसिद्धि को प्राप्त हुए (कृन्तत्रात्) अन्तरिक्ष से (एषाम्-उपराः-उदायन्) इन मेघों के छेदन-भेदन से उन में उपरत हुए जल बाहर आये-बरसे, इस प्राकर (त्रयः-अनूपाः पृथिवीं तपन्ति) तीन अर्थात् मेघ वायु और सूर्य अनुकूल हुए ‘बरसने, शीत देने और उष्णता बखेरने द्वारा पृथिवी अर्थात् पृथिवीस्थित ओषधियों को पकाते हैं (द्वा बृबूकं पुरीषं वहतः) तथा दो वायु और सूर्य जल को प्राप्त कराते हैं अर्थात् सूर्य अपनी किरणों से जलों को भापरूप में ऊपर खींचता है और वायु उन भापरूप जलों को धारण करता है ॥२३॥

    भावार्थ

    आरम्भ सृष्टि में देवों अर्थात् प्रमुख सूर्य आदि पदार्थों का निर्माण होता है। आकाश में से मेघ जल बरसाते हैं। पृथिवी के वनस्पति आदि पदार्थों को मेघ वायु और सूर्य उत्पन्न तथा पुष्ट करते हैं। सूर्य जलों को भापरूप में ऊपर खींचता है और वायु उन्हें धारण करता है, पुनः वृष्टिरूप में जल वर्षता है ॥२३॥

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    विषय

    ज्ञान प्राप्ति में सर्वप्रथम

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र के अनुसार ऋषि बननेवाले लोग (देवानाम्) = पृथिवीस्थ ग्यारह, अन्तरिक्षस्थ ग्यारह और द्युलोकस्थ ग्यारह, इस प्रकार कुल तेंतीस देवों के (माने) = मापने में, ज्ञान प्राप्त करने में (प्रथमाः अतिष्ठन्) = प्रथम स्थान में स्थित होते हैं, अर्थात् ये लोग देवों का ऊँचे से ऊँचा ज्ञान प्राप्त करते हैं, इनके ज्ञान से ही तो इन्हें महादेव का ज्ञान प्राप्त होगा । [२] इस प्रकार ज्ञान के द्वारा (कृन्तत्रात्) = वासनाओं के काटने के द्वारा (एषाम्) = इनके (उपराः) = निचले प्रदेश [Lower regions] (उद् आयन्) = ऊर्ध्वगतिवाले होते हैं। सबसे नीचे मूलाधार चक्र हैं, यहाँ स्थित कुण्डलिनी शक्ति ऊर्ध्वगतिवाली होती हुई सर्वोत्कृष्ट देश में पहुँचती है। [३] अब (त्रयः अनूपा:) = इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि ये तीनों शरीर में क्रम से प्रविष्ट होकर व्याप्त होनेवाले (पृथिवीम्) = शरीर को (तपन्ति) = खूब दीप्त करते हैं । इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि सभी ज्ञान की वृद्धि के द्वारा शरीर को प्रकाशमय बनाते हैं। [४] (द्वा) = प्राण और अपान ये दोनों (पुरीषम्) = शरीर का पालन व पोषण करनेवाले (बृबूकम्) = जल को, रेतः रूप में स्थित अप् तत्त्व को (वहतः) = धारण करनेवाले होते हैं । प्राणापान की साधना से रेतः कणों की ऊर्ध्वगति होती है, इन रेतः कणों का शरीर में ही धारण होता है। शरीर में धारित रेतः कण सब प्रकार की उन्नति के कारण बनते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम देवों का ज्ञान प्राप्त करें। चक्रों की ऊर्ध्वगति करते हुए शरीर को दीप्त करें, प्राणसाधना द्वारा रेतः कणों को शरीर में ही धारण करें।

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    विषय

    परम कारणरूप परमाणुमय प्रकृति से स्थूल जगत् की उत्पत्ति और जीवों की रक्षण-व्यवस्था

    भावार्थ

    (देवानां माने) दिव्य भावों से युक्त देव, अग्नि, विद्युत् सूर्य, भूमि या वायु आदि और अध्यात्म में इन्द्रिय आदि की तन्मात्राओं के निर्माण करने में (प्रथमाः) सब से प्रथम कारण रूप प्रकृति के परमाणु (अतिष्ठन्) विद्यमान थे। (एषां कृन्तत्रात्) इन कारण परमाणुओं के छेदन भेदन अर्थात् संयोग विभाग से प्रथम (उपराः) मेघ सदृश तत्व जो परम कारण के अति समीपतम, कार्य रूप होते हैं वे (उद् आयन्) उत्पन्न होते हैं। उसके पश्चात् (त्रयः) तीन तत्व अग्नि, विद्युत् और सूर्य (अनूपाः) अनुकूल होकर जीवों की रक्षा करने में समर्थ होकर (पृथिवीम् तपन्ति) विस्तृत भूमि को संतापित करते हैं। जिन में से (द्वा) दो विद्युत् और सूर्यस्थ अग्नि, (बृबूकम्) जल को (वहतः) धारण करते हैं, और (द्वा पुरीषं वहतः) दो मेघस्थ विद्युत् और भूमि मिल कर सर्वपोषक अन्न को धारण करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसुक्र ऐन्द्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ५, ८, १०, १४, २२ त्रिष्टुप्। २, ९, १६, १८ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४, ११, १२, १५, १९–२१, २३ निचृत् त्रिष्टुप्। ६, ७, १३, १७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २४ भुरिक् त्रिष्टुप्। चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    अथोत्पादनमुच्यते (देवानां माने प्रथमाः अतिष्ठन्) देवानां निर्माणे “देवानां निमार्णे” [निरु० २।२२] प्रथमाः प्रमुखाः प्रतमाः देवाः प्रसिद्धिं प्राप्ताः “प्रथम इति मुख्यनाम प्रतमो भवति” [निरु० २।२२] (कृन्तत्रात्) अन्तरिक्षात् “कृन्तत्रमन्तरिक्षम्” [निरु० २।२२] (एषाम् उपराः उदायन्) मेघानां विकर्त्तनेन तत्रोपराः-उपरताः आपः उद्गता बहिरागताः। अत्र विषये (त्रयः-अनूपाः-पृथिवीं तपन्ति) त्रयः “पर्जन्यो वायुरादित्यः” इति च निरुक्तम्। वर्षणेन शीतेनोष्णेन “शीतोष्णवर्षैरोषधीः पाचयन्ति” [निरु० २।२२] पृथिवीं पृथिवीस्थिताः-ओषधीः पाचयन्ति स्वेन स्वेन कर्मणाऽनुवपन्ति-आनुकूल्यं प्रयच्छन्ति (द्वा बृबूकं पुरीषं वहतः) द्वौ वाय्वादित्यौ बृबूकं सोममुदकं वहतः प्रापयतः “बृबूकमुदकं पुरीषं पृणातैः पूरयतेर्वा” [निरु० २।२२] सूर्य औष्ण्येन पृथिवीस्थजलाशयेभ्यो जलमाकृष्य वाष्पीकृत्य वायुश्च स्वाधारे वाष्पीभूतं जलं धारयित्वा ॥२३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    For the formation of the first and basic divine natural causes of cosmic evolution, the original causes already existed in the primordial state of Prakrti. From the disturbance of those primordial causes in that state of unified equilibrium into dynamic state, arose the diversity of subtle and gross elements of material and psychic forms. Three of these (heat, air and water) together mature the earth for life, and two (heat and air) bring the life energy to it.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सृष्टीच्या आरंभी देवांची अर्थात् सूर्य इत्यादी पदार्थांची निर्मिती होते. आकाशातून मेघ जलाची वृष्टी करतात. पृथ्वीवरील वनस्पती इत्यादी पदार्थांना मेघ, वायू व सूर्य उत्पन्न करून पुष्ट करतात. सूर्य जलाची वाफ बनवून वर ओढून घेतो व वायू त्यांना धारण करतो. पुन्हा वृष्टीच्या रूपात जलाचा वर्षाव करतो. ॥२३॥

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