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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 27/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वसुक्र ऐन्द्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यदीद॒हं यु॒धये॑ सं॒नया॒न्यदे॑वयून्त॒न्वा॒३॒॑ शूशु॑जानान् । अ॒मा ते॒ तुम्रं॑ वृष॒भं प॑चानि ती॒व्रं सु॒तं प॑ञ्चद॒शं नि षि॑ञ्चम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यदि॑ । इत् । अ॒हम् । यु॒धये॑ । स॒म्ऽनया॑नि । अदे॑वऽयून् । त॒न्वा॑ । शूशु॑जानान् । अ॒मा । ते॒ । तुम्र॑म् । वृ॒ष॒भम् । प॒चा॒नि॒ । ती॒व्रम् । सु॒तम् । प॒ञ्च॒ऽद॒शम् । नि । सि॒ञ्च॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदीदहं युधये संनयान्यदेवयून्तन्वा३ शूशुजानान् । अमा ते तुम्रं वृषभं पचानि तीव्रं सुतं पञ्चदशं नि षिञ्चम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यदि । इत् । अहम् । युधये । सम्ऽनयानि । अदेवऽयून् । तन्वा । शूशुजानान् । अमा । ते । तुम्रम् । वृषभम् । पचानि । तीव्रम् । सुतम् । पञ्चऽदशम् । नि । सिञ्चम् ॥ १०.२७.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 27; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ते-अमा) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! तेरी सहायता से (यदि-इत्-अहं युधये) यदि तो मैं उपासक युद्ध के लिये उद्यत हो जाऊँ (तन्वा शूशुजानान्) शरीर से जाज्वल्यमान क्रोधित हुए (अदेवयून्) जो तुझे अपना इष्टदेव नहीं मानते, उन ऐसे नास्तिकों को (सम्-नयानि) सम्यक् प्रभावित करता हूँ-तेरे उपासक आस्तिक बनाता हूँ। (तुम्रं वृषभं पचानि) घोर घातक वृषभ समान पाप को खा जाता हूँ-नष्ट करता हूँ (तीव्रं सुतम्-पञ्चदशं नि षिञ्चम्) प्रबल सिद्ध ओज को अपने मन में आत्मा में पूर्ण धारण करता हूँ ॥२॥

    भावार्थ

    परमात्मा की सहायता से उपासक जन बड़े क्रोधी और नास्तिक जनों के साथ आत्मशक्ति से युद्ध करके उनको परमात्मा के उपासक-आस्तिक बनाते हैं और अपने अन्दर के प्रबल पापों को समाप्त करते हैं तथा निज मन और आत्मा में ओज-आत्मिक तेज को धारण करते हैं ॥२॥

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    विषय

    अदेवयु पुरुषों का नाश

    पदार्थ

    [१] प्रभु कहते हैं कि (यत्) = जो (अहम्) = मैं (इत्) = निश्चय से (अदेवयून्) = न देने की वृत्तिवाले पुरुषों को और अतएव आत्मादि होने के कारण (तन्वा शूशुजानान्) = शरीर से खूब फूले हुए हृष्ट- पुष्ट जनों को (युधये संनयानि) = युद्ध के लिये प्राप्त कराता हूँ । इन्हें स्वार्थ- प्रधान वृत्ति के कारण परस्वर लड़नेवाला बना देता हूँ और इन युद्धों में ये परस्पर एक दूसरे का संहार करनेवाले होते हैं। [२] इनके विपरीत जो तू (अमा) = मेरे साथ रहता है, 'ऐन्द्र' बनने का प्रयत्न करता है उस (ते) = तुझे (तुम्रम्) = [strong] बड़े शक्तिशाली व (वृषभम्) = अपनी शक्ति से औरों पर सुखों की वर्षा करनेवाले के रूप में (पचानि) = परिपक्व करता हूँ । तुझे इस प्रकार परिपक्व करता हूँ जो तू लोकहित के लिये (सुतं पञ्चदशम्) = उत्पन्न किये हुए धन के पन्द्रहवें भाग को (तीव्रम्) = तीव्रता से प्रबल इच्छा से (निषिञ्चम्) = सिक्त करनेवाला होता है [सिञ्चति इति ] । एवं प्रभु-भक्त-प्रभु-प्रवण व्यक्ति बलवान्- बल से औरों को सुखी करनेवाला तथा लोकहित के लिये आय के पन्द्रहवें भाग को निश्चितरूप से देनेवाला होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- 'अदेवयु व तन्वाशूशुजान' आपस में लड़ मरते हैं। प्रभु-भक्त बलवान्, परोपकारी व दानी होते हैं।

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    विषय

    इन्द्र पद पर स्थित राजा के प्रति कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (यदि इत्) जब भी (अहं) मैं (युधये) युद्ध करने के निमित्त (तन्वा शुशुजानान्) देह या विस्तृत सेनादि से बढ़ते हुए (अदेवयून्) ईश्वर की पूजा न करने और देवों, विद्वानों को दान न देने वाले दुष्ट जनों को (सं-नयानि) लक्ष्य करके अपने सैन्य बल को एकत्रित करूं तब मैं हे प्रभो ! (ते) तेरे (तुम्रं) अति बलशाली (वृषभम्) वृष्टिकारक मेघ के तुल्य शत्रु पर शरवर्षण और प्रजा पर कृपा-वर्षण करने वाले बल को (पचानि) परिपक्व करूं, उसको खूब सधाऊं। वा उसका विस्तार से वर्णन करूं। और (तीव्रं) अति तीक्ष्ण, (सुतं) अभिषेक योग्य (पञ्च-दशं) १५ वें पद पर स्थित, पूर्ण चन्द्रवत् विराजमान, बलवान् पुरुष को (नि-षिञ्चम्) मुख्य पद पर अभिषिक्त करूं।

    टिप्पणी

    क्ष पञ्चदशः। ऐ० ८। ४॥ तस्माद् राजन्यस्य पञ्चदशः स्तोमः॥ ता० ६। १। ८॥ चन्द्रमा वै पञ्चदशः। एष हि पञ्चदश्यामपक्षीयते पञ्चदश्यामापूर्यते। तै० १ । ५ । १० । ५॥ चतुर्दश ह्येवैतस्यां करूकराणि वीर्यं पञ्चदशम्॥ गो० पू० ५। ३ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसुक्र ऐन्द्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ५, ८, १०, १४, २२ त्रिष्टुप्। २, ९, १६, १८ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४, ११, १२, १५, १९–२१, २३ निचृत् त्रिष्टुप्। ६, ७, १३, १७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २४ भुरिक् त्रिष्टुप्। चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (ते-अमा) हे इन्द्र-ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! तव साहाय्येन (यदि-इत्-अहम् युधये) यदि ह्यहमुपासको युद्धाय खलूद्यतो भवेयम् (तन्वा शूशुजानान्) शरीरेण शूशुचानान् जाज्वल्यमानान् ‘चकारस्थाने जकारश्छान्दसः’ (अदेवयून्) ये त्वां स्वदेवं परमात्मानं न मन्यन्ते तथाभूतान् नास्तिकान् (सम् नयानि) सम्प्रभावयामि त्वदुपासकान्-आस्तिकान् सम्पादयामि (तुम्रं वृषभं पचानि) आहन्तारम् “तुम्रः आहन्ता” [ऋ० ३।५०।१ दयानन्दः] वृषभमिव पापं भक्षयामि-नाशयामि (तीव्रं सुतम्-पञ्चदशं नि षिञ्चम्) प्रबलं निष्पन्नमोजः “ओजो वै पञ्चदशः” [मै० ३।२।१०] निजे मनसि यद्वा-आत्मनि निषिञ्चामि-निधारयामि ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    If I were to collect forces to fight out the selfish, ungenerous and audacious who are such by their sheer physical prowess and brute force in this house of yours, O divine Ruler of existence, I would train a mighty, generous, enlightened leader, warrior and protector, feed him on distilled essences of fourteen branches of knowledge, application and practice being the fifteenth, and thus perfect the ruler.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्म्याच्या साह्याने उपाासक लोक क्रोधी व नास्तिक लोकांबरोबर आत्मशक्तीने युद्ध करून त्यांना परमात्म्याचे उपासक आस्तिक बनवितात व आपल्यामध्ये असलेल्या प्रबल पापांना समाप्त करतात व स्वत:च्या मनात आणि आत्म्यात ओज-आत्मिक तेज धारण करतात. ॥२॥

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