ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 27/ मन्त्र 18
ऋषिः - वसुक्र ऐन्द्रः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
वि क्रो॑श॒नासो॒ विष्व॑ञ्च आय॒न्पचा॑ति॒ नेमो॑ न॒हि पक्ष॑द॒र्धः । अ॒यं मे॑ दे॒वः स॑वि॒ता तदा॑ह॒ द्र्व॑न्न॒ इद्व॑नवत्स॒र्पिर॑न्नः ॥
स्वर सहित पद पाठवि । क्रो॒श॒नासः॑ । विष्व॑ञ्चः । आ॒य॒न् । पचा॑ति । नेमः॑ । न॒हि । पक्ष॑त् । अ॒र्धः । अ॒यम् । मे॒ । दे॒वः । स॒वि॒ता । तत् । आ॒ह॒ । द्रुऽअ॑न्नः । इत् । व॒न॒व॒त् । स॒र्पिःऽअ॑न्नः ॥
स्वर रहित मन्त्र
वि क्रोशनासो विष्वञ्च आयन्पचाति नेमो नहि पक्षदर्धः । अयं मे देवः सविता तदाह द्र्वन्न इद्वनवत्सर्पिरन्नः ॥
स्वर रहित पद पाठवि । क्रोशनासः । विष्वञ्चः । आयन् । पचाति । नेमः । नहि । पक्षत् । अर्धः । अयम् । मे । देवः । सविता । तत् । आह । द्रुऽअन्नः । इत् । वनवत् । सर्पिःऽअन्नः ॥ १०.२७.१८
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 27; मन्त्र » 18
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(वि क्रोशनासः-विष्वञ्चः-आयन्) विविध प्रकार से परमात्मा का आह्वान करते हुए भिन्न-भिन्न मानसिक गतिवाले जीव संसार में आते हैं-जन्म पाते हैं, उनमें (नेमाः पचाति) कोई वर्ग परमात्मज्ञान को अपने अन्दर आत्मसात् करता है (अर्धः-नहि पक्षत्) कोई वर्ग परमात्मज्ञान को आत्मसात् करने में समर्थ नहीं होता, (अयं देवः सविता) यह उत्पादक देव परमात्मा (तत्-मे-आह) उस ज्ञान को मेरे लिये कहता है, (इत्) जो ही (द्र्वन्नः सर्पिरन्नः) जो वनस्पति फल अन्न का खानेवाला तथा घृत दूध आदि का भोक्ता उपासक शुद्धाहारी वह परमात्मा को और उसके ज्ञान को (वनवत्) सम्यक् सेवन करता है ॥१८॥
भावार्थ
भिन्न-भिन्न प्रकार के मानसिक गतिवाले जन विविध प्रकार से परमात्मा को पुकारते हुए या उसकी प्रार्थना करते हुए संसार में जन्म पाते हैं। कुछ परमात्मा और उसके ज्ञान को अपने अन्दर धारण कर पाते हैं और कुछ नहीं। उत्पादक परमात्मा अपने ज्ञान का उपदेश करेगा, ऐसी आशा रखता हुआ कोई आत्मा आता है। दूध घृत वनस्पति फल अन्न का भोक्ता सात्त्विक आहारी जन परमात्मा के ज्ञान को आत्मसात् करता है ॥१८॥
विषय
मामनुस्मर युध्य च ( अमांसभोजन )
पदार्थ
[१] (वि क्रोशनासः) = विशिष्टरूप से उस प्रभु का आह्वान करनेवाले और (विष्वञ्चः) = विविध उत्तम कर्मों में गतिवाले व्यक्ति ही (आयन्) = प्रभु के समीप आते हैं। इस संसार में जीवन यात्रा को उत्तमता से चलाने का मार्ग यही है कि हम प्रभु का स्मरण करें [वि क्रोशानसः] और उत्तम कर्मों में लगे रहें [विश्वञ्चः ] । प्रभु के स्मरणपूर्वक कार्यों को करना कर्मों की पवित्रता को बनाए रखता है। यह प्रभुस्मरण कर्म करने की शक्ति भी देता है। वस्तुतः अपने जीवन को परिपक्व करने के लिये यही प्रकार है कि 'प्रभुस्मरण पूर्वक कर्मों में लगे रहा जाये' । [२] संसार में उत्पन्न हुए- हुए व्यक्तियों में से (नेम:) = आधे ही (पचाति) = अपने जीवन को परिपक्व करते हैं। कुछ ही व्यक्तियों को जीवन के निर्माण का ध्यान आता है। संसार के विषय कुछ ऐसा विचित्र आकर्षण रखते हैं कि मनुष्य को अपने जीवन की साधना का ध्यान ही नहीं आता, वह विषयों में ही फँसा रह जाता है । (अर्धः पक्षत्) = आधे लोग अपना परिपाक करते हैं । वे विषय-वासनाओं से अपने जीवन को सुरक्षित रखते हुए अपने परिपाक के लिये यत्नशील होते हैं। [३] इस जीवन में ठीक परिपाक करने के लिये (अयम्) = इस (सविता देवः) = प्रेरणा देनेवाले दिव्यगुणों के पुञ्ज प्रभु ने (तत् आह) = यह बात कही है कि (द्रु-अन्न:) = [द्रु tree] वानस्पतिक भोजनवाला अथवा (सर्पिरन्नः) = गोघृत आदि का भोजन करनेवाला ही (इत्) = निश्चय से (मे वनवत्) = मेरा उपासन करता है। मांसाहारी प्रभु का उपासक नहीं हो सकता, मांसाहारी अपने मांस के पोषण का ही ध्यान करता है, वह प्रभु की ओर झुकाववाला नहीं हो सकता। प्रभु-भक्त सभी प्राणियों को प्रभु पुत्र समझने के कारण भी उनमें बन्धुत्व का अनुभव करता है और उसके लिये मांस के खाने का सम्भव नहीं रहता । संक्षेप में, जीवन के ठीक परिपाक के लिये मांसाहार अनुकूल नहीं है ।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु स्मरण के साथ अपने विविध कर्त्तव्यों के पालन में लगे रहें । वानस्पति भोजन को अपनाकर अपने जीवन का ठीक से परिपाक करें।
विषय
अग्निवत् आत्मा का वर्णन।
भावार्थ
(क्रोशनासः) उस प्रभु परमात्मा की पुकार करते हुए (विष्वञ्चः) विविध मार्गों में जाने वाले जीवगण (वि आयन्) विविध रूपों में इस लोक में आते हैं। (नेमः) उनमें एक वर्ग तो (पचाति) पकाता है अर्थात् एक तो तपस्या करके ज्ञान साधन आदि करता है और (अर्धः नहि पक्षत्) दूसरा वर्ग तप आदि नहीं करता, वह केवल भोग ही करता है। (अयं) यह (देवः) सर्व सुख दुःखादि कर्म फलों का दाता (सविता) सूर्यवत् तेजस्वी, जगत् का उत्पादक प्रभु ही (मे तत् आह) मुझे उस परम पद का उपदेश करे। वस्तुतः (द्रवन्नः इत्) जिस प्रकार काष्ठ को अन्नवत् खाने वाला अग्नि ही (सर्पिः-अन्नः) द्रुत घृत को भक्षण करने वाला होकर (वनवत्) आहुति के किये पदार्थों को खा जाता है, उसी प्रकार जो जीवगण (द्रवन्नः) नाना वनस्पतियों को अन्न वत् भोग करता है और जो (सर्पिः-अन्नः) सर्पणशील इस जगत् या संसार के जन्म मरण रूप सुख-दुःखों का भोग करता है वही जीव (वनवत्) नाना ऐश्वर्यों का भोग करता है। और जो इस भोगमय जगत् से विरक्त हो जाता है वह फिर कर्म का परिपाक नहीं करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसुक्र ऐन्द्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ५, ८, १०, १४, २२ त्रिष्टुप्। २, ९, १६, १८ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४, ११, १२, १५, १९–२१, २३ निचृत् त्रिष्टुप्। ६, ७, १३, १७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २४ भुरिक् त्रिष्टुप्। चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(वि क्रोशनासः विष्वञ्चः-आयन्) विविधप्रकारेण परमात्मानमाह्वयन्तः-भिन्नभिन्नमानसगतिका जीवा संसारे आगच्छन्ति तेषु (नेमः पचाति) कश्चन वर्गः परमात्मज्ञानं स्वान्तरे पचति-आत्मसात् करोति (अर्धः नहि पक्षत्) अर्धः कश्चन तेषु जीवेषु परमात्मज्ञानं न पचति न पक्तुं समर्थो भवति (अयं देवः सविता) एष उत्पादको देवः परमात्मा (तत् मे आह) तज्ज्ञानं स्वज्ञानं यन्मह्यमुपदिशति (इत्) य एव (द्र्वन्नः सर्पिरन्नः) यो वनस्पतिः-फलान्नभोजी “वनस्पतयो वै द्रुः” [तै० ३।१।८] घृतदुग्धादिभोजी खलूपासकः शुद्धाहारः स तं परमात्मानं तज्ज्ञानं वा (वनवत्) वनति सम्भजते ॥१८॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Souls come into the world from various directions in various ways, chanting the name of divinity. Some one matures, another does not mature, remains half way only. This is what Savita, lord of life, giver of light, says to me: the yajna fire which consumes the fuel wood and oblations of ghrta helps the soul to mature through yajna and self-sacrifice. The man who lives on fruit and milk and butter matures with divine love and yajnic fire.
मराठी (1)
भावार्थ
निरनिराळ्या प्रकारच्या मानसिक गती असणारे लोक विविध प्रकारे परमात्म्याला साद घालतात व त्याची प्रार्थना करत या जगात जन्म घेतात. काही जण परमात्मा व त्याचे ज्ञान आपल्यात धारण करतात तर काही जण करत नाहीत. निर्माता परमात्मा आपल्या ज्ञानाचा उपदेश करील अशी आशा ठेवत एखादा आत्मा येतो. दूध, घृत, वनस्पती, फळ, अन्नाचा भोक्ता, सात्त्विक आहार असणारा मनुष्य परमात्म्याचे ज्ञान आत्मसात करतो. ॥१८॥
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