ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 27/ मन्त्र 6
ऋषिः - वसुक्र ऐन्द्रः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
दर्श॒न्न्वत्र॑ शृत॒पाँ अ॑नि॒न्द्रान्बा॑हु॒क्षद॒: शर॑वे॒ पत्य॑मानान् । घृषुं॑ वा॒ ये नि॑नि॒दुः सखा॑य॒मध्यू॒ न्वे॑षु प॒वयो॑ ववृत्युः ॥
स्वर सहित पद पाठदर्श॑न् । नु । अत्र॑ । शृ॒त॒ऽपान् । अ॒नि॒न्द्रान् । बा॒हु॒ऽक्षदः॑ । शर॑वे । पत्य॑मानान् । घृषु॑म् । वा॒ । ये । नि॒नि॒दुः । सखा॑यम् । अधि॑ । ऊँ॒ इति॑ । नु । ए॒षु॒ । प॒वयः॑ । व॒वृ॒त्युः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
दर्शन्न्वत्र शृतपाँ अनिन्द्रान्बाहुक्षद: शरवे पत्यमानान् । घृषुं वा ये निनिदुः सखायमध्यू न्वेषु पवयो ववृत्युः ॥
स्वर रहित पद पाठदर्शन् । नु । अत्र । शृतऽपान् । अनिन्द्रान् । बाहुऽक्षदः । शरवे । पत्यमानान् । घृषुम् । वा । ये । निनिदुः । सखायम् । अधि । ऊँ इति । नु । एषु । पवयः । ववृत्युः ॥ १०.२७.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 27; मन्त्र » 6
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अत्र) इस बलप्रयोगप्रसङ्ग में (शरवे पत्यमानान्) हिंसक बाण फेंकने के हेतु-आक्रमणकारी (अनिन्द्रान्) मुझ इन्द्र परमात्मा के न माननेवाले-नास्तिक (शृतपान्) दूसरों के मांस रक्तादि पीने खानेवालों को (दर्शम्) मैं देखता हूँ-जानता हूँ। (वा) और (घृषुं सखायम्) उन नास्तिक दुष्टों के साथ संघर्ष करनेवाले सखा-आस्तिक जन को देखता हूँ-जानता हूँ। (ये निनिदुः) जो मेरी निन्दा करते हैं, मेरी स्तुति नहीं करते हैं, कृतघ्नता का आचरण करते हैं, (एषु) इसके ऊपर (उ नु) अवश्य शीघ्र (पवयः-ववृत्युः) मेरे वज्र गिरते हैं ॥६॥
भावार्थ
नास्तिक आक्रमणकारी दूसरों का रक्त, मांस पीने खानेवाले जनों को परमात्मा देखता है-जानता है और उसका विरोध करनेवाले आस्तिक जन को भी जानता है, वह सर्वज्ञ परमात्मा दुष्टों पर प्रहार करता है ॥६॥
विषय
वज्रपतन
पदार्थ
[१] प्रभु कहते हैं कि (नु) = निश्चय से ही (अत्र) = यहाँ इस मानव जीवन में मैं (दर्शम्) = देखता हूँ । उन लोगों को जो (शृतपान्) = भट्ठियों में पकायी गयी शराब को पीनेवाले हैं [शृ पाके], (अनिन्द्रान्) = जो सर्वशक्तिमान् परमैश्वर्यशाली प्रभु के स्मरण से रहित हैं, (बाहुक्षदः) = अपनी भुजशक्ति से भले लोगों को टुकड़े-टुकड़े करने में लगे हुए हैं, (शरवे) = हिंसा के लिये (पत्यमानान्) = जो गति कर रहे हैं, जिनकी क्रियाएँ औरों के ध्वंस के लिये ही होती हैं। (वा) = या (ये) = जो (घृषुम्) = शत्रुओं का संहार करनेवाले (सखायम्) = मित्रभूत मुझे (निनिदुः) = निन्दित करते हैं, उपासना के स्थान में जो मेरा निरादर करते हैं । [२] इस प्रकार के (एषु अधि) = इन लोगों के ऊपर (पवय:) = मेरे वज्ररूप (अस्त्र ववृत्युः) = पड़ते हैं। इनका उन वज्रों व अशनिपातों से संहार हो जाता है, यहाँ 'वज्रपतन' प्रतीक है आधिदैविक आपत्तियों का । इन पर आधिदैविक आपत्तियाँ आती हैं और आधिदैविक आपत्तियाँ आकर इनका अन्त कर देती हैं। [३] यहाँ नाशक्रम इस प्रकार संकलित हो रहा है- [क] शराब पीने लगना, [ख] प्रभु को भूल जाना, [ग] अपनी शक्ति का प्रयोग सज्जनों के पीड़ित करने में करना और [घ] हिंसा प्रधान गतिवाला होना। [ङ] अन्ततः प्रभु की निन्दा करने लगना ।
भावार्थ
भावार्थ - शराब मनुष्य को प्रभु से दूर ले जाती है और हिंसक वृत्ति का बना देती है ।
विषय
राजा के कर्त्तव्य। निन्दकों का दमन।
भावार्थ
मैं (अत्र) इस जगत् में (अनिन्द्रान्) इन्द्र, ऐश्वर्यवान्, परम प्रभु से रहित (शृत-पान्) परिपक्व फल का पान, उपभोग करने वालों को और (बाहु-क्षदः) बाधित या पीड़ित करने वाले साधनों से दूसरों को नाश करने वाले और (शरवे) हिंसाकारी बल को प्राप्त करने के लिये (पत्यमानान्) दौड़ते हुए, वा ऐश्वर्य पाने वालों को भी देखता हूँ। (वा) और उनको भी देखता हूँ (ये) जो (घृर्षु सखायम्) अपने बड़े मित्र, सहायक प्रभु की (निनिदुः) निन्दा करते हैं (एषु) उन पर (उ नु) निश्चय से ही (पवयः अधि ववृत्युः) मेरे वज्र शासन करते हैं, उनका नाश करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसुक्र ऐन्द्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ५, ८, १०, १४, २२ त्रिष्टुप्। २, ९, १६, १८ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४, ११, १२, १५, १९–२१, २३ निचृत् त्रिष्टुप्। ६, ७, १३, १७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २४ भुरिक् त्रिष्टुप्। चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अत्र) अस्मिन् बलप्रयोगप्रसङ्गे (शरवे पत्यमानान्) हिंसकशस्त्रक्षेपणहेतवे प्रयतमानान्-आक्रमणकारिणः (अनिन्द्रान्) इन्द्रं माममन्यमानान् नास्तिकान् (शृतपान्) अन्येषां पक्वानि परिपुष्टानि मांसरक्तादीनि ये पिबन्ति-भक्षयन्ति तान् “शृतं पाके” [अष्टा० ६।१।२७] (दर्शम्) पश्यामि (वा) अथ च (घृषुं सखायम्) तैर्नास्तिकैर्दुष्टैः सह संघर्षयितारं सखायमास्तिकं जनं चापि पश्यामि (ये निनिदुः) ये मां निन्दन्ति-न स्तुवन्ति-कृतघ्नतां कुर्वन्ति (एषु) एतेषु (उ नु) अवश्यं क्षिप्रम् (पवयः-ववृत्युः) मम वज्रा “पविः वज्रनाम” [निघ० २।२०] वर्त्तन्ते-प्रवर्त्तन्ते पतन्ति ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
When I see forces which oppose, contradict or deny Indra, presiding power of world order, people who wrest the food and drink prepared for honest labour, who twist others’ arm for extortion, who pounce upon the innocent to kill, or those who revile a friend for his candid but unflattering warmth, over all such the strokes of the thunderbolt of justice and punishment would fall and ultimately crush them.
मराठी (1)
भावार्थ
नास्तिक, आक्रमणकारी, इतरांचे रक्त, मांस पिणाऱ्या खाणाऱ्या लोकांना परमात्मा पाहतो - जाणतो व त्यांचा विरोध करणाऱ्या आस्तिक लोकांनाही जाणतो. तो सर्वज्ञ परमात्मा दुष्टांवर प्रहार करतो. ॥६॥
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