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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 27/ मन्त्र 8
    ऋषिः - वसुक्र ऐन्द्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    गावो॒ यवं॒ प्रयु॑ता अ॒र्यो अ॑क्ष॒न्ता अ॑पश्यं स॒हगो॑पा॒श्चर॑न्तीः । हवा॒ इद॒र्यो अ॒भित॒: समा॑य॒न्किय॑दासु॒ स्वप॑तिश्छन्दयाते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गाव॑ । यव॑म् । प्रऽयु॑ताः । अ॒र्यः । अ॒क्ष॒न् । ताः । अ॒प॒श्य॒म् । स॒हऽगो॑पाः । चर॑न्तीः । हवाः॑ । इत् । अ॒र्यः । अ॒भितः॑ । सम् । आ॒य॒न् । किय॑त् । आ॒सु॒ । स्वऽप॑तिः । छ॒न्द॒या॒ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गावो यवं प्रयुता अर्यो अक्षन्ता अपश्यं सहगोपाश्चरन्तीः । हवा इदर्यो अभित: समायन्कियदासु स्वपतिश्छन्दयाते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गाव । यवम् । प्रऽयुताः । अर्यः । अक्षन् । ताः । अपश्यम् । सहऽगोपाः । चरन्तीः । हवाः । इत् । अर्यः । अभितः । सम् । आयन् । कियत् । आसु । स्वऽपतिः । छन्दयाते ॥ १०.२७.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 27; मन्त्र » 8
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (प्रयुताः-गावः-यवम्-अक्षन्) उत्तम रुचि से युक्त हो गौवें घास खाती हैं (ताः-सहगोपाः-चरन्तीः-अर्यः-अपश्यम्) गोपाल सहित चरती हुई गौओं को मैं स्वामी-जगदीश देखता हूँ-जानता हूँ (हवाः-इत्-अर्यः-अभितः-सम्-आयन्) वे पुकारने योग्य-पुकारी जाती हुई गौएँ गोपालक स्वामी के सब ओर से पास आ जाती हैं (आसु कियत् स्वपतिः-छन्दयाते) इन गौओं में गोपालक कितने ही स्नेहव्यवहारों को भावित करता है-प्रदर्शित करता है। इसी प्रकार मैं सब का स्वामी परमात्मा स्नेह से समागम लाभ करनेवाले अपने स्तोता जनों को देखता हूँ। वे स्तुति करनेवाले भी स्वामी के आश्रित होते हैं। मैं उन्हें रक्षण प्रदान करता हूँ ॥८॥

    भावार्थ

    गौएँ जैसे चरती हुई अपने गोपाल स्वामी द्वारा पुकारी जाती हुई उसके पास पहुँचती हैं। वह उन्हें अनेक प्रकार के स्नेह भाव प्रदर्शित करता है। उसी प्रकार स्तुति करनेवाले उपासक जन परमात्मा के प्रति स्नेह भाव को रखते हुए उसके स्नेह के भागी बनते हैं ॥८॥

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    विषय

    गौवें ग्वाला व स्वामी

    पदार्थ

    [१] (गावः) = इन्द्रियरूपी गौवें (प्रयुताः) = इस शरीररूप रथ में प्रकर्षेण युक्त हुई हुई (यवम्) = विषयरूप यव को (अक्षन्) = [ भक्षयन्ति] खाती हैं, विषयों का ग्रहण करती हैं । इन्द्रियाँ विषयों में जाती हैं, इसीलिए प्रभु ने इनका निर्माण किया है। [२] (ताः) = इन इन्द्रियरूप गौवों को (सहगोपाः) = ग्वाले सहित, मन ही इनका ग्वाला है, मन इनके साथ विविध विषयों में भटकता है, (चरन्ती:) = विषयों में विचरण करती हुई इन इन्द्रियों को (अर्य:) = इनका स्वामी मैं (अपश्यम्) = इन्हें देखता हूँ [दृश्=look after ] इनका रक्षण करता हूँ। [३] मैं इन इन्द्रियों का स्वामी हूँ । इन्द्रियाँ गौवें हैं, तो मन ग्वाला और आत्मा स्वामी । यहाँ स्वामी ग्वाले सहित गौवों का ध्यान करता है। आत्मा मन सहित इन्द्रियों का निरीक्षण करता है, यही आत्मालोचन कहलाता है। ये इन्द्रियाँ (हवा:) = आह्वान के योग्य हैं। जैसे गौवों को दोहन के लिये बुलाया जाता है इसी प्रकार इन इन्द्रियों को ज्ञान प्राप्ति व कर्मसिद्धि के लिये आत्मा आहूत करता है और ये (इत्) = निश्चय से (अर्यः अभितः) = [अर्यम्] स्वामी के चारों ओर (समायन्) = उपस्थित होती हैं । [४] इन इन्द्रियरूप गौवों के समीप आ जाने पर (स्वपतिः) = अपना पूर्ण प्रभुत्व करनेवाला यह आत्मा (आसु) = इन गौवों में (कियत्) = कितने ही, अर्थात् बहुत अधिक ज्ञान व कर्मरूप दुग्ध को (छन्दयाते) = चाहता है । वह इन्हें खूब ही ज्ञान की प्राप्ति में व यज्ञादि की सिद्धि में व्यापृत रखता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- इन्द्रियाँ गौवें हैं, मन ग्वाला व आत्मा स्वामी है। जब आत्मा इन्हें अपने वश में रखता है तो प्रचुर ज्ञान व कर्मरूप दुग्ध को ये देनेवाली होती हैं।

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    विषय

    जीवों की प्रभु-शासन में गौवों की तरह स्थिति।

    भावार्थ

    (सह-गोपाः गावः चरन्तीः यवम्) जिस प्रकार गोपाल के साथ चरती हुई गौएं यव आदि खाद्य पदार्थ को प्राप्त होती हैं उसी प्रकार (सह-गोपाः) रक्षक के साथ, (गावः) ये भ्रमणशील जीव लोक, (चरन्तीः) गति करते हुए (प्रयुताः) लक्षों वा खूब व्यवस्थित होकर (यवं अक्षन्) अपना कर्मफल भोगते हैं। और मैं (अर्यः) स्वामी के संमान (ताः अपश्यम्) उन सब को देखता हूँ। वे (अर्यः अभितः) स्वामी के चारों ओर (हवाः इत्) बुलाये हुए से (सम् आयन्) एकत्र हो जाते हैं (आसु) उनमें (स्व-पतिः) स्वयं सर्वैश्वर्यवान् प्रभु (कियत् छन्दयाते) कितना ही उनके मनोऽनुकूल आनन्द, सुख प्रदान करता है और स्वयं रमता है, यह देखने योग्य है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसुक्र ऐन्द्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ५, ८, १०, १४, २२ त्रिष्टुप्। २, ९, १६, १८ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४, ११, १२, १५, १९–२१, २३ निचृत् त्रिष्टुप्। ६, ७, १३, १७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २४ भुरिक् त्रिष्टुप्। चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (प्रयुताः गावः-यवम्-अक्षन्) प्रकृष्टभावेन मिश्रिता गावो धेनवो घासं खादन्ति (ताः सहगोपाः चरन्तीः अर्यः अपश्यम्) ता गोपालेन सह चरन्तीरहं स्वामी जगदीशः पश्यामि (हवाः इत् अर्यः अभितः-सम्-आयन्) ता ह्वानार्हा गावः-अयं स्वामिनं सर्वतः समागच्छन्ति (आसु कियत् स्वपतिः-छन्दयाते) आसु गोषु स्वपतिर्गोपतिः कियत् कतिविधं स्नेहकार्यं भावयति, इति तद्वदहमर्यः परमात्मा स्वस्तोतॄन् स्नेहेन गोपरूपेण सम्मेलनं भुञ्जानान् पश्यामि ते स्तोतारोऽपि मां स्वामिनमाश्रिता भवन्ति-इत्यपि खल्वहं रक्षणं ददामि ॥८॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The cows ranged together in the pasture graze and enjoy the grass. I, the master, watch them along with the cowherd. When they are called back they come and stand round the master. The master rejoices in them. Similarly Indra, the master, sees the life around as his cows, rejoices in all life forms, and in the evening of the created world calls them back, and they all abide by and abide in his presence.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    गायी जशा चरत चरत आपल्या गोपाळाकडे हंबरत येतात. तो त्यांना अनेक प्रकारे स्नेहभाव दर्शवितो, त्याच प्रकारे परमेश्वराविषयी स्नेहभाव ठेवून उपासक त्याच्या स्नेहाचे भागीदार बनतात. ॥८॥

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