Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 28 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 28/ मन्त्र 11
    ऋषिः - इन्द्रवसुक्रयोः संवाद ऐन्द्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    तेभ्यो॑ गो॒धा अ॒यथं॑ कर्षदे॒तद्ये ब्र॒ह्मण॑: प्रति॒पीय॒न्त्यन्नै॑: । सि॒म उ॒क्ष्णो॑ऽवसृ॒ष्टाँ अ॑दन्ति स्व॒यं बला॑नि त॒न्व॑: शृणा॒नाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तेभ्यः॑ । गो॒धाः । अ॒यथ॑म् । क॒र्ष॒त् । ए॒तत् । ये । ब्र॒ह्मणः॑ । प्र॒ति॒ऽपीय॑न्ति । अन्नैः॑ । सि॒मः । उ॒क्ष्णः॑ । अ॒व॒ऽसृ॒ष्टान् । अ॒द॒न्ति॒ । स्व॒यम् । बला॑नि । त॒न्वः॑ । शृ॒णा॒नाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तेभ्यो गोधा अयथं कर्षदेतद्ये ब्रह्मण: प्रतिपीयन्त्यन्नै: । सिम उक्ष्णोऽवसृष्टाँ अदन्ति स्वयं बलानि तन्व: शृणानाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तेभ्यः । गोधाः । अयथम् । कर्षत् । एतत् । ये । ब्रह्मणः । प्रतिऽपीयन्ति । अन्नैः । सिमः । उक्ष्णः । अवऽसृष्टान् । अदन्ति । स्वयम् । बलानि । तन्वः । शृणानाः ॥ १०.२८.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 28; मन्त्र » 11
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ये ब्रह्मणः-अन्नैः प्रतिपीयन्ति) जो शरीर में रोग या राष्ट्र में उपद्रवकारी, शरीर में प्राण को और राष्ट्र में ब्रह्मास्त्रवेत्ता राज्यमन्त्री को, अन्नदोषों से या अन्नको निमित्त बनाकर पीड़ित करते हैं, तथा (तन्वः-बलानि स्वयं शृणानाः) शरीर के या राष्ट्रकलेवर के बलों को स्वतः नष्ट करते हुए (सिमः-अवसृष्टान्-उक्ष्णः-अदन्ति) सब शरीर में सङ्गत रस रक्त बहानेवाले यकृतादि पिण्डों को राष्ट्र में सम्बद्ध आदेश विभागों को खाते हैं (तेभ्यः) उनको (एतत्-गोधाः-अयथं कर्षत्) शरीर में ये प्रगतिधारिका नाड़ी या राष्ट्र में विद्युत्तन्त्री अनायास शरीर से या राष्ट्र से बाहर निकाल देती है ॥११॥

    भावार्थ

    शरीर में अन्नदोषों से हुए रोग प्राण को हानि पहुँचाते हैं और शरीर के बलों को नष्ट करते हुए रसरक्त-सेचक पिण्डों को भी गला देते हैं, तथा राष्ट्र में अन्न को निमित्त बना-कर उपद्रवकारी राज्यमन्त्री को पीड़ित करते हैं और राष्ट्र के बलों को उद्दण्ड होकर नष्ट करते हुए राष्ट्र के बढ़ानेवाले विभागों को ध्वस्त करते हैं, उनको बिजली की तन्त्री या अस्त्रशक्ति से राष्ट्र से बाहर निकाल देना चाहिये ॥११॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सात्त्विक अन्न

    पदार्थ

    [१] (गोधाः) = वेदवाणी का धारण करनेवाला प्रभु (तेभ्यः) = उनके लिये (एतत्) = इस (अयथम्) = अयथार्थता को अयथायोग को कर्षत् खेंचकर बाहर कर देता है, दूर कर देता है, (ये) = जो (ब्रह्मणः) = ज्ञान के (अन्नैः) = अन्नों से (प्रतिपीयन्ति) = एक-एक बुराई को हिंसित करनेवाले होते हैं । 'ब्रह्म के अन्न' सात्त्विक अन्न हैं, इनके सेवन से सत्त्वशुद्धि के द्वारा मनुष्य अयोग व अतियोग से बचकर सदैव यथायोग करनेवाला बनता है । [२] ये अयथायोग से बचनेवाले व्यक्ति (सिमः) = [सर्वान्] सब (उक्ष्णः) = शक्तिशाली अथवा वीर्यवर्धक अन्नों का, (अवसृष्टान्) = [अनुज्ञातान् ] उन अन्नों का जिनकी कि वेद में अनुज्ञा दी गई है, (अदन्ति) = भक्षण करते हैं, उन्हीं अन्नों का सेवन करते हैं जो सात्त्विक हैं । [३] इस प्रकार सात्त्विक अन्नों के सेवन से ये (तन्वः) = शरीर के (बलानि) = बलों का (शृणाना:) = [ शृणानाः] परिपाक करते हैं। सात्त्विक अन्न के सेवन से उनकी शरीर की सब शक्तियाँ सुन्दर बनती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु कृपा से हम वस्तुओं का यथायोग करनेवाले होते हैं। ज्ञानवर्धक अन्नों का सेवन करते हैं, उन्हीं पौष्टिक अन्नों का जिनकी कि वेद में अनुज्ञा दी गई है। इस प्रकार ये अपने शरीर के बलों का ठीक परिपाक करते हैं ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ब्राह्मणों और विजार पशुओं के नाशकों को दण्ड हो।

    भावार्थ

    (ये) जो (अन्नैः) अन्नों के कारण (ब्रह्मणः प्रतिपीयन्ति) वेदज्ञ विद्वानों का नाश करते हैं और जा (अव-सृष्टान्) छोड़े गये (सिमः उक्षणः) वीर्य सेचन में समर्थ समस्त सांड़ों को भी (अदन्ति) खाजाते हैं, और (स्वयं तन्वः) अपने ही शरीर के (बलानि शृणानाः) बलों को नाश करते हैं (तेभ्यः) उनके नाश करने के लिये (गोधाः) भूमि या धनुष की डोर को धारण करने वाला वा चर्मधारी लोग (अयथं कर्षत्) खूब धनुष का आकर्षण करे खूब पराक्रम करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    इन्द्रवसुक्रयोः संवादः। ऐन्द्र ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १,२,७,८,१२ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ६ त्रिष्टुप्। ४, ५, १० विराट् त्रिष्टुप् । ९, ११ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (ये ब्रह्मणः अन्नैः प्रतिपीयन्ति) ये रोगा उपद्रवकारिणो वा ब्रह्मणः-ब्रह्म द्वितीयार्थे षष्ठी व्यत्ययेन, शरीरे प्राणम् “प्राणो वै ब्रह्म” [श० १४।६।१०।२] ब्रह्मास्त्रवेत्तारं राष्ट्रे राज्यमन्त्रिणं वा अन्नदोषैरन्नं निमित्तीकृत्य वा हिंसन्ति “पीयति हिंसाकर्मा” [निघं० ४।२५] तथा (तन्वः बलानि स्वयं शृणानाः) शरीरस्य राष्ट्रकलेवरस्य वा बलानि स्वतः नाशयन्तः (सिमः अवसृष्टान् उक्ष्णः अदन्ति) सर्वान् शरीरे सङ्गतान् रक्तसेचकान् पिण्डान्, राष्ट्रे सम्बद्धान्-आदेशविभागान् भक्षयन्ति (तेभ्यः) तान् “द्वितीयार्थे चतुर्थी व्यत्ययेन” (एतत्-गोधाः-अयथं कर्षत्) एषा प्रगतिधारिका नाडी विद्युत्तन्त्री वा-अनायासेन शरीराद्राष्ट्राद्वा बहिर्निष्कर्षयति निस्सारयति ॥११॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    11. The systemic strength in optimum tension spontaneously throws out those who, feeding on the nutriments provided by the system itself, abuse, revile and sabotage the social order, eating into all the creativities of the system and thereby, at the same time, damage the strength of their bodies by themselves.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    अन्नदोषांनी उत्पन्न झालेले रोग शरीरात प्राणाची हानी करतात व शरीराचे बल नष्ट करतात. रस रक्त-सेचक पिंड नाहीसे करतात व राष्ट्रात अन्नाला निमित्त बनवून उपद्रवकारी लोक राज्यमंत्र्याला त्रस्त करतात व राष्ट्राचे बल उदंडपणे नष्ट करतात. राष्ट्राला वाढविणाऱ्या विभागाला ध्वस्त करतात. त्यांना विद्युतच्या उपकरणाने किंवा अस्त्रशक्तीने राष्ट्रातून बाहेर काढले पाहिजे. ॥११॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top