ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 28/ मन्त्र 3
ऋषिः - इन्द्रवसुक्रयोः संवाद ऐन्द्रः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अद्रि॑णा ते म॒न्दिन॑ इन्द्र॒ तूया॑न्त्सु॒न्वन्ति॒ सोमा॒न्पिब॑सि॒ त्वमे॑षाम् । पच॑न्ति ते वृष॒भाँ अत्सि॒ तेषां॑ पृ॒क्षेण॒ यन्म॑घवन्हू॒यमा॑नः ॥
स्वर सहित पद पाठअद्रि॑णा । ते॒ । म॒न्दिनः॑ । इ॒न्द्र॒ । तूया॑न् । सु॒न्वन्ति॑ । सोमा॑न् । पिब॑सि । त्वम् । ए॒षा॒म् । पच॑न्ति । ते॒ । वृ॒ष॒भान् । अत्सि॑ । तेषा॑म् । पृ॒क्षेण॑ । यत् । म॒घ॒ऽव॒न् । हू॒यमा॑नः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अद्रिणा ते मन्दिन इन्द्र तूयान्त्सुन्वन्ति सोमान्पिबसि त्वमेषाम् । पचन्ति ते वृषभाँ अत्सि तेषां पृक्षेण यन्मघवन्हूयमानः ॥
स्वर रहित पद पाठअद्रिणा । ते । मन्दिनः । इन्द्र । तूयान् । सुन्वन्ति । सोमान् । पिबसि । त्वम् । एषाम् । पचन्ति । ते । वृषभान् । अत्सि । तेषाम् । पृक्षेण । यत् । मघऽवन् । हूयमानः ॥ १०.२८.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 28; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
Acknowledgment
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्द्र) हे आत्मन् या राजन् ! (ते) तेरे लिये (अद्रिणा) प्रशंसक वैद्य या पुरोहित से प्रेरित (मन्दिनः) तेरे प्रसन्न करनेवाले पारिवारिक जन या राजकर्मचारी (तूयात् सोमान् सुन्वन्ति) रसमय सोमों को तय्यार करते हैं (तेषां त्वं पिबसि) उनको तू पी और (ते) तेरे लिए (वृषभान् पचन्ति) सुख बरसानेवाले भोगों को तय्यार करते हैं (मघवन् पृक्षेण हूयमानः) हे आत्मन् ! या राजन् ! स्नेह सम्पर्क से निमन्त्रित किया जाता हुआ (तेषाम्-अत्सि) उन्हें तू भोग ॥३॥
भावार्थ
आत्मा जब शरीर में आता है, तब उसे अनुमोदित करनेवाले वैद्य और प्रसन्न करनेवाले पारिवारिक जन अनेक रसों और भोग्य पदार्थों को उसके लिये तय्यार करते हैं और स्नेह से खिलाते पिलाते हैं, जिससे कि शरीर पुष्ट होता चला जावे तथा राजा राजपद पर विराजमान होता है, तब उसके प्रशंसक पुरोहित और प्रसन्न करनेवाले राजकर्मचारी सोमादि ओषधियों के रस और भोगों को तय्यार करते हैं। वह स्नेह से आदर पाया हुआ उनका सेवन करता है ॥३॥
विषय
वृषभ - परिपाक
पदार्थ
[१] गत मन्त्र में प्रभु ने जीव को सुतसोम बनने के लिये कहा था। उसका उत्तर देते हुए वह कहता है कि हे (इन्द्र) = सोम का पान करनेवाले प्रभो! (ते मन्दिनः) = तेरे स्तोता लोग (अद्रिणा) = [अद्रिर्वज्रः] क्रियाशीलता के द्वारा अथवा [न दीर्यते] धर्म मार्ग से न विदृत होने के द्वारा (तूयान्) = विलम्ब न करनेवाले, अर्थात् शीघ्रता से कार्यों को करने की शक्ति को देनेवाले (सोमान्) = सोमों को, शक्ति कणों को (सुन्वन्ति) = उत्पन्न करते हैं । (एषाम्) = इन सोमकणों का (त्वम्) = आप ही (पिबसि) = पान करते हो, अर्थात् इन सोमकणों की मेरे शरीर में ही रक्षा आपकी कृपा से होती है। आपका स्मरण मुझे वासना से ऊपर उठाता है और वासना से ऊपर उठने के कारण मैं सोम को सुरक्षित करने में समर्थ होता हूँ। [२] इस प्रकार (ते) = तेरे ये भक्त (वृषभान् पचन्ति) = अथवा परिपाक शक्तिशाली पुरुष के रूप में करते हैं, शक्तिशाली बनकर ये औरों पर सुखों की वर्षा करनेवाले होते हैं । [३] हे प्रभो! आप (तेषाम्) = उनके मार्ग में आनेवाले विघ्नों का (अत्सि) = संहार करते हैं [अद्=to destroy]। परन्तु यह विघ्नों का संहार आप कब करते हैं ? (यत्) = जब कि (पृक्षेण) = [पृची संपर्के] आपके साथ सम्पर्क से, हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो ! आप (हूयमानः) = पुकारे जाते हैं । ये भक्त प्रातः- सायं आपके साथ अपना सम्बन्ध स्थापित करते हैं और शक्तिशाली बनकर, विघ्नों को दूर करते हुए, आगे बढ़ते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- क्रियाशीलता के द्वारा हम वासना से बचें। सोम के रक्षण से अपने को शक्तिशाली बनाएँ। प्रभु सम्पर्क से शक्तिशाली बनकर, विघ्नों को दूर करते हुए, हम आगे बढ़ें।
विषय
उत्तम शासक के कर्त्तव्य और अनेक वीर पुरुषों के अभिषेक।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन्! हे शत्रुनाशक ! हे ऐश्वर्य सुखों के देने हारे ! (मन्दिनः) स्तुतिशील जन (ते) तेरे ही लिये (अद्रिणा) विदीर्ण न होने वाले, दृढ़ क्षात्र बल से (तूयान्) आशुगामी (सोमान्) वीर पुरुषों का (सुन्वन्ति) अभिषेक करते हैं। (त्वम् एषाम्) तु इनको (पिबसि) पालन करता है। (ते) तेरे लिये ही वे (वृषभान्) बलवान् पुरुषों को (पचन्ति) परिपक्व, दृढ़ करते हैं, तथा उनको विस्तृत ज्ञानोपदेश करते, विद्या से सम्पन्न करते हैं। हे (मघवन्) उत्तम ऐश्वर्यवन्! तू (हूयमानः) आदरपूर्वक बुलाया वा प्रार्थना किया जाकर (तेषां पृक्षेण) उनके ही स्नेहसंपर्क से (अत्सि) इस महान् ऐश्वर्य का भोग करता है, वा उनको प्राप्त होता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
इन्द्रवसुक्रयोः संवादः। ऐन्द्र ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १,२,७,८,१२ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ६ त्रिष्टुप्। ४, ५, १० विराट् त्रिष्टुप् । ९, ११ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्द्र) हे आत्मन् ! राजन् ! वा (ते) तुभ्यम् (अद्रिणा) श्लोककृता प्रशंसकेन वैद्येन पुरोहितेन वा प्रेरिता “अद्रिरसि श्लोककृत्” [काठ० १।५] (मन्दिनः) तव हर्षयितारः पारिवारिका जना राजकर्मचारिणो वा (तूयान् सोमान् सुन्वन्ति) जलमयान् रसमयान् “तूयम् उदकनाम” [निघं० १।९] सोमरसान् सम्पादयन्ति (तेषां त्वं पिबसि) तान् त्वं पिबेः “लिङर्थे लेट्” [अष्टा० ३।४।७] अथ (ते) तुभ्यम् (वृषभान् पचन्ति) सुखरसवर्षकान् “वृषभः यो वर्षति सुखानि सः” [ऋ० १।३१।५ दयानन्दः] “वृषभः वर्षिताऽपाम्” [निरु० ४।८] सम्पादयन्ति (मघवन्) पृक्षेण (हूयमानः) हे आत्मन् राजन् ! वा स्नेहसम्पर्केणाहूयमानो निमन्त्र्यमाणः (तेषाम्-अत्सि) तान् त्वं भुङ्क्ष्व-भुङ्क्षे ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Vasukra: O mighty ruler of wealth and power, Indra, happy performers of the yajnic system, with the best of equipment, extract exciting soma juice and they prepare sanative tonics from vrshabha herbs, of which, when cordially invited, you drink and taste with pleasure to your satisfaction and fulfilment.
मराठी (1)
भावार्थ
आत्मा जेव्हा शरीरात येतो तेव्हा त्याला अनुमोदित करणारे वैद्य व प्रसन्न करणारे पारिवारिक लोक अनेक रस व भोग्य पदार्थ त्याच्यासाठी तयार करतात व स्नेहाने खाऊ पिऊ घालतात. ज्याच्यामुळे शरीर पुष्ट व्हावे व जेव्हा राजा राजपदावर बसतो तेव्हा त्याचे प्रशंसक पुरोहित व प्रसन्न करणारे राजकर्मचारी सोम इत्यादी औषधींचे रस व भोग तयार ठेवतात. त्याला स्नेहयुक्त आदर मिळतो व तो त्याचा स्वीकार करतो. ॥३॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal