ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 28/ मन्त्र 2
ऋषिः - इन्द्रवसुक्रयोः संवाद ऐन्द्रः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स रोरु॑वद्वृष॒भस्ति॒ग्मशृ॑ङ्गो॒ वर्ष्म॑न्तस्थौ॒ वरि॑म॒न्ना पृ॑थि॒व्याः । विश्वे॑ष्वेनं वृ॒जने॑षु पामि॒ यो मे॑ कु॒क्षी सु॒तसो॑मः पृ॒णाति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठसः । रोरु॑वत् । वृ॒ष॒भः । ति॒ग्मऽशृ॑ङ्गः । वर्ष्म॑न् । त॒स्थौ॒ । वरि॑मन् । आ । पृ॒थि॒व्याः । विश्वे॑षु । ए॒न॒म् । वृ॒जने॑षु । पा॒मि॒ । यः । मे॒ । कु॒क्षी इति॑ । सु॒तऽसो॑मः । पृ॒णाति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स रोरुवद्वृषभस्तिग्मशृङ्गो वर्ष्मन्तस्थौ वरिमन्ना पृथिव्याः । विश्वेष्वेनं वृजनेषु पामि यो मे कुक्षी सुतसोमः पृणाति ॥
स्वर रहित पद पाठसः । रोरुवत् । वृषभः । तिग्मऽशृङ्गः । वर्ष्मन् । तस्थौ । वरिमन् । आ । पृथिव्याः । विश्वेषु । एनम् । वृजनेषु । पामि । यः । मे । कुक्षी इति । सुतऽसोमः । पृणाति ॥ १०.२८.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 28; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सः-वृषभः-तिग्मशृङ्गः-रोरुवत्) वह तीक्ष्ण शक्तिवाला-चेतनावाला आत्मा या तीक्ष्ण शस्त्रवाला राजा शरीर में चेतनता का वर्षक, राष्ट्र में सुख का वर्षक भलीभाँति घोषित करता है कि मैं आया-प्राप्त हुआ (पृथिव्याः-वरिमन् वर्ष्मन्-आतस्थौ) शरीर के अतिश्रेष्ठ जीवनरसवर्षक हृदयप्रदेश में विराजमान होता है या राष्ट्रभूमि के सुखवर्षक राज-आसन पर विराजमान होता है। यह परोक्षदृष्टि से आत्मा या राजा का कथन है। अब अध्यात्म दृष्टि से कहा जाता है (यः-मे कुक्षी सुतसोमः पृणाति) जो शरीर में वर्त्तमान उपासनारस को तय्यार करनेवाला प्राण मेरे दो पार्श्वों भोग और अपवर्ग को पूर्ण करता है अथवा राष्ट्र में वर्तमान उपहार देनेवाला राष्ट्रमन्त्री मेरे सभा सेना दो पार्श्वों को पूर्ण करता है (विश्वेषु वृजनेषु एनं पामि) सारे बलप्रसङ्गों में इसकी मैं आत्मा या राजा रक्षा करता हूँ ॥२॥
भावार्थ
शरीर के अन्दर चेतनाशक्तिमान् आत्मा चेतनत्व की अङ्गों में वृष्टि करता हुआ अपने को घोषित करता है-सिद्ध करता है। शरीर के अन्दर सर्वश्रेष्ठ हृदयप्रदेश में विराजमान रहता है। जीवन प्राण उसके भोग और अपवर्ग में साधन बनता है, ऐसे साधनरूप प्राण की वह रक्षा करता है तथा राष्ट्र में शस्त्रशक्तिमान् सुखवर्षक राजा राष्ट्रवासी प्रजाओं में सुख की वृष्टि करता हुआ अपने को प्रसिद्ध करता है। राष्ट्रभूमि के राजशासन पद पर विराजमान होता है। उसका राजमन्त्री सभाभाग और सेनाभाग को परिपुष्ट बनाता है। ऐसे राजमन्त्री की वह रक्षा करता है ॥२॥
विषय
सुतसोम का रक्षण
पदार्थ
[१] (स) = वह, गत मन्त्र के अनुसार जौ व गोदुग्ध का प्रयोग करनेवाला तथा चित्तवृत्ति के निरोध का अभ्यासी पुरुष, (रोरुवद्) = खूब ही प्रभु के नामों का उच्चारण करता है। इस नामोच्चारण से वह अपने में प्रभु की शक्ति के संचार को करता हुआ (वृषभ:) = शक्तिशाली बनता है औरों पर सुखों की वर्षा करनेवाला होता है। (तिग्मशृंगः) = तीक्ष्ण ज्ञान की रश्मियोंवाला होता है, इसकी इन प्रचण्ड ज्ञानरश्मियों में सब मल भस्मीभूत हो जाते हैं । अब यह (पृथिव्याः) = अन्तरिक्ष के, हृदयान्तरिक्ष के (वर्ष्मन्) = वरिष्ठ उन्नत प्रदेश में, द्वेषादि मलों के विध्वंस से निर्मल बने हुए प्रदेश में तथा (वरिमन्) = विशाल प्रदेश में (आतस्थौ) = सर्वथा स्थित होता है । यह अपने हृदय को निर्मल व विशाल बनानेवाला होता है। इसका शरीर शक्तिशाली बना है [वृषभ:], मस्तिष्क- ज्ञानरश्मियों से उज्ज्वल, हृदय उत्कृष्ट व विशाल । [२] प्रभु कहते हैं कि इस प्रकार के जीवनवाला (यः) = जो कोई भी (सुतसोम:) = अपने अन्दर (सोम) = वीर्य को उत्पन्न करनेवाला मे कुक्षी मेरी इन कोखों को (पृणाति) = पालित व सुरक्षित करता है, अर्थात् मेरे दिये हुए इस शरीर की कोखों में सोमरक्षण के द्वारा किसी प्रकार के रोग को उत्पन्न नहीं होने देता। (एनम्) = इसको (विश्वेषु) = सब वृजनेषु संग्रामों में (पामि) = मैं सुरक्षित करता हूँ । काम-क्रोधादि शत्रुओं के साथ चलनेवाले संग्रामों में इसे हारने नहीं देता ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु सुतसोम पुरुष का रक्षण करते हैं ।
विषय
देह का मुख्य शासक आत्मा। मुख्य शासक के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(सः) वह (वृषभः) मेघ के समान प्रजागण पर सुखों और ऐश्वर्यों का वर्षण करने वाला (तिग्म-शृङ्गः) सूर्यवत् तीक्ष्ण शत्रुनाशक साधनों से सम्पन्न होकर (पृथिव्याः) पृथिवी के (वरिमन्) अति विस्तृत (वर्ष्मन्) उन्नत, उत्तम पद पर (आ तस्थौ) आदरपूर्वक विराजे। और प्रतिज्ञा करे कि (सुत-सोमः) ऐश्वर्य अन्नादि का उत्पन्न करने वाला (यः) जो प्रजावर्ग (मे कुक्षी) मेरे दोनों पार्श्वों पर नहीं आवे। विद्यमान सैन्यों को ! (पृणाति) पालन करता है। मैं (एनं) उसको (विश्वेषु वृजनेषु) समस्त मार्गों और संग्रामों में (पामि) रक्षा करूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
इन्द्रवसुक्रयोः संवादः। ऐन्द्र ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १,२,७,८,१२ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ६ त्रिष्टुप्। ४, ५, १० विराट् त्रिष्टुप् । ९, ११ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सः वृषभः तिग्मशृङ्गः-रोरुवत्) स तीक्ष्णशक्तिकश्चेतनावान्-आत्मा यद्वा तीक्ष्णशासको राजा शरीरे चेतनत्ववर्षकः, राष्ट्रे सुखवर्षकः-भृशं घोषयति-यदहमागतः (पृथिव्याः वरिमन् वर्ष्मन् आतस्थौ) शरीरस्य “यच्छरीरं पुरुषस्य सा पृथिवी” [ऐ० आ० २।३।३] यद्वा राष्ट्रभूमेः सुखवर्षकेऽतिश्रेष्ठे “वरिमन् अतिशयेन श्रेष्ठः” [ऋ० ६।६३।११ दयानन्दः] हृदयप्रदेशे राजासने वा तिष्ठति। इति परोक्षेणेन्द्र उक्तः। अथाध्यात्मभावेनोच्यते (यः मे कुक्षी सुतसोमः पृणाति) यः शरीरे प्राणो वसुक्रो मम कुक्षी-उभे पार्श्वे भोगापवर्गौ-उपासनारसो सम्पादितो येन स पूरयति यद्वा राष्ट्रे सभासेने-उभे पार्श्वे दत्तोपहारः पूरयति (विश्वेषु वृजनेषु-एनं पामि) सर्वेषु बलप्रसङ्गेषु “वृजनं बलनाम” [निघ० २।९] एतमहमात्मा राजा वा रक्षामि ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra: I, mighty ruling power, harbinger of showers of plenty and prosperity, commanding sharpest forces of defence and offence, abide on top of the mighty expanse of the earth. Whoever the maker of soma that offers me homage and hospitality to my pleasure and satisfaction, I defend, protect and promote in all battles of life.
मराठी (1)
भावार्थ
शरीरात चेतनशक्तिमान आत्मा शरीरातील अंगात चेतनत्वाची वृष्टी करून आपल्याला सिद्ध करतो. शरीरात सर्वश्रेष्ठ हृदयात विराजमान असतो. प्राण त्याचे भोग व अपवर्गामध्ये साधन बनतो. अशा साधनरूप प्राणाचे तो रक्षण करतो व राष्ट्रात शस्त्रसंपन्न शक्तिमान सुखवर्षक राजा राष्ट्रातील प्रजेत सुखाची वृष्टी करत स्वत:ला प्रसिद्ध करतो. राष्ट्रभूमीच्या राज्यशासन पदावर विराजमान होतो. त्याचा राज्यमंत्री सभा व सेनेला परिपुष्ट करतो व अशा प्रकारे राज्यमंत्र्याचे रक्षण करतो. ॥२॥
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