ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 28/ मन्त्र 6
ऋषिः - इन्द्रवसुक्रयोः संवाद ऐन्द्रः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ए॒वा हि मां त॒वसं॑ व॒र्धय॑न्ति दि॒वश्चि॑न्मे बृह॒त उत्त॑रा॒ धूः । पु॒रू स॒हस्रा॒ नि शि॑शामि सा॒कम॑श॒त्रंय हि मा॒ जनि॑ता ज॒जान॑ ॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । हि । माम् । त॒वस॑म् । व॒र्धय॑न्ति । दि॒वः । चि॒त् । मे॒ । बृ॒ह॒तः । उत्ऽत॑रा । धूः । पु॒रु । स॒हस्रा॑ । नि । शि॒शा॒मि॒ । सा॒कम् । अ॒श॒त्रुम् । हि । मा॒ । जनि॑ता । ज॒जान॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एवा हि मां तवसं वर्धयन्ति दिवश्चिन्मे बृहत उत्तरा धूः । पुरू सहस्रा नि शिशामि साकमशत्रंय हि मा जनिता जजान ॥
स्वर रहित पद पाठएव । हि । माम् । तवसम् । वर्धयन्ति । दिवः । चित् । मे । बृहतः । उत्ऽतरा । धूः । पुरु । सहस्रा । नि । शिशामि । साकम् । अशत्रुम् । हि । मा । जनिता । जजान ॥ १०.२८.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 28; मन्त्र » 6
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 6
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अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(एव हि) इस प्रकार (मां तवसम्) मुझ बलवान् आत्मा व राजा को (वर्धयन्ति) शरीराङ्ग या राज्याङ्ग समृद्ध करते हैं (बृहतः-दिवः-चित्-मे-उत्तरा धूः) महान् द्युलोक से भी उत्कृष्ट मेरी धारणाशक्ति है, जिससे मैं शरीर को या राष्ट्र को धारण करता हूँ। (पुरु सहस्रा साकं नि शिशामि) बहुत सहस्र-असंख्य दोषों को या शत्रुओं को एक साथ क्षीण करता हूँ, विनष्ट करता हूँ (जनिता माम्-अशत्रुं हि जजान) उत्पादक परमात्मा शरीर में मुझ आत्मा को या राष्ट्र में मुझ राजा को शत्रुरहित प्रकट करता है ॥६॥
भावार्थ
शरीर में आत्मा बलवान् होता है। उसे शरीराङ्ग समृद्ध करते हैं। उसकी शरीर को धारण करने की शक्ति द्युलोक से भी उत्कृष्ट होती है, सहस्रों दोषों को क्षीण कर देता है। परमात्मा इसे शत्रुरहित शरीर में प्रकट करता है तथा राष्ट्र में राजा बलवान् होता है। उसे राज्य के अङ्ग समृद्ध करते हैं। उसकी राष्ट्र को धारण करने की शक्ति द्युलोक से भी उत्कृष्ट होती है। वह सहस्रों शत्रुओं को एक साथ नष्ट कर देता है। परमात्मा उसे शत्रुरहित बनाता है ॥६॥
विषय
अ- शत्रु
पदार्थ
[१] (एवा) = इस प्रकार गत मन्त्र में वर्णित प्रकार से बुद्धि के देने के द्वारा (हि) = निश्चय से (तवसम्) = वृद्धिशील मुझको (वर्धयन्ति) = प्रभु की प्रेरणाएँ बढ़ाती हैं और उस प्रेरणा के अनुसार चलने से (मे) = मेरा (धूः) =[wealth] धन (बृहतः दिवः चित्) = इस विशाल द्युलोक से भी उत्तरा - उत्कृष्ट होता है। सबसे नीचे इस पृथ्वीलोक शरीर का धन है, यह धन है 'स्वास्थ्य' । इससे ऊपर अन्तरिक्ष- लोक हृदय का धन 'निर्मलता है, द्वेषादि का अभाव। इससे भी ऊपर द्युलोक = मस्तिष्क का धन है, अपरा विद्या व पराविद्या । प्रकृति विद्या के नक्षत्र व ब्रह्मविद्या का सूर्य मेरे मस्तिष्क रूप द्युलोक में चमकता है। इससे ऊपर मेरा धन 'एकत्वदर्शन' के रूप में होता है, मैं उस अद्वैत स्थिति में पहुँचता हूँ जिसके उपनिषद् में 'शान्तं शिवं अद्वैतम्' कहा है। ज्ञान का यह परिणाम होना ही चाहिए। [२] इस स्थिति में पहुँचा हुआ में (साकम्) = एक साथ ही (पुरू सहस्त्रा) = अनेक हजारों वासनारूप शत्रुओं को (निशिशामि) = [ हिनस्मि ] हिंसित करता हूँ, अपने तीर का निशाना बनाता हूँ। वासनाओं का विनाश करता हूँ। [३] इस प्रकार (जनिता) = उस उत्पादक प्रभु ने (मा) = मुझे (हि) = निश्चय से (अशत्रुम्) = शत्रुरहित (जजान) = कर दिया है। वस्तुतः अन्तःशत्रुओं के नाश से बाह्य शत्रुओं का नाश अपने आप ही हो जाता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु के दिये हुए ज्ञान से मेरी वृद्धि होती है, मैं 'स्वास्थ्य नैर्मल्य व उज्ज्वलता' रूप धनों से भी उत्कृष्ट 'एकत्वदर्शन' रूप धन को प्राप्त कर पाता हूँ । वासनाओं को नष्ट करके 'अशत्रु' हो जाता हूँ ।
विषय
सर्वोपरि शासक का सर्वातिशायी बल।
भावार्थ
(एव हि) इस प्रकार (तवसं मां) बलशाली मुझ को लोग (वर्धयन्ति) बढ़ाते हैं। (बृहतः मे) महान् मेरी (दिवः चित्) सूर्य और आकाश से भी अधिक (उत्तरा धूः) उत्कृष्ट धारण शक्ति है। मैं (पुरु सहस्रा) अनेकों, सहस्रों शत्रुओं को (साकं) एक साथ (नि शिशामि) विनाश कर सकता हूँ। (जनिता) उत्पादक प्रभु मुझे (अशत्रुं जजान) विना शत्रु का करे। इस प्रकार राजा बलवान्, स्तुत्य, शत्रुरहित होने का यत्न करे। इति विंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
इन्द्रवसुक्रयोः संवादः। ऐन्द्र ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १,२,७,८,१२ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ६ त्रिष्टुप्। ४, ५, १० विराट् त्रिष्टुप् । ९, ११ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(एव हि) एवं खलु (मां तवसम्) मां बलवन्तम्-आत्मानं राजानं वा (वर्धयन्ति) समृद्धं कुर्वन्ति शरीराङ्गाणि राज्याङ्गानि वा (बृहतः दिवः चित् मे उत्तरा धूः) महतो द्युलोकादपि ममोत्कृष्टा धारणशक्तिरस्ति, यतोऽहं शरीरं राष्ट्रं वा धारयामि (पुरु सहस्रा साकं नि शिशामि) पुरूणि-बहूनि-सहस्राणि-असंख्यानि दोषाणां शत्रूणां वा सकृदेव तनूकरोमि-चूर्णयामि-विनाशयामि अत्र “शो तनूकरणे” [दिवादि०] ततः “बहुलं छन्दसि” [अष्टा० २।४।७६] इति श्यन्स्थाने श्लुः (जनिता माम्-अशत्रुं हि जजान) जनयिता परमात्मा मां आत्मानं राजानं वा शरीरे राष्ट्रे वा शत्रुरहितं प्रादुर्भावयति ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Thus do they (assistant powers) exalt me, mighty soul, ruler of the system. The foundation, structure, direction and stability of the system, the power I wield to sustain and rule the system is greater than the vast heavens. A thousand foes I eliminate, all at once, with a single stroke. Indeed the creative powers that generate and manifest me as power generate me without enemy and opposition.
मराठी (1)
भावार्थ
शरीरात आत्मा बलवान असतो. त्याला शरीर अवयव समृद्ध करतात. त्याची शरीर धारण करण्याची शक्ती द्युलोकाहूनही उत्कृष्ट असते. तो हजारो दोषांना क्षीण करतो. परमात्मा त्याला शत्रुरहित शरीरात प्रकट करतो. राष्ट्रात राजा बलवान असतो. त्याला राज्याचे अंग समृद्ध करतात. त्याची राष्ट्राला धारण करण्याची शक्ती द्युलोकाहूनही उत्कृष्ट असते. तो हजारो शत्रूंना एकाच वेळी नष्ट करू शकतो. परमात्मा त्याला शत्रूरहित बनवितो. ॥६॥
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