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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 71 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 71/ मन्त्र 11
    ऋषिः - बृहस्पतिः देवता - ज्ञानम् छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ऋ॒चां त्व॒: पोष॑मास्ते पुपु॒ष्वान्गा॑य॒त्रं त्वो॑ गायति॒ शक्व॑रीषु । ब्र॒ह्मा त्वो॒ वद॑ति जातवि॒द्यां य॒ज्ञस्य॒ मात्रां॒ वि मि॑मीत उ त्वः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒चाम् । त्वः॒ । पोष॑म् । आ॒स्ते॒ । पु॒पु॒ष्वान् । गा॒य॒त्रम् । त्वः॒ । गा॒य॒ति॒ । शक्व॑रीषु । ब्र॒ह्मा । त्वः॒ । वद॑ति । जा॒त॒ऽवि॒द्याम् । य॒ज्ञस्य॑ । मात्रा॑म् । वि । मि॒मी॒ते॒ । ऊँ॒ इति॑ । त्वः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋचां त्व: पोषमास्ते पुपुष्वान्गायत्रं त्वो गायति शक्वरीषु । ब्रह्मा त्वो वदति जातविद्यां यज्ञस्य मात्रां वि मिमीत उ त्वः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋचाम् । त्वः । पोषम् । आस्ते । पुपुष्वान् । गायत्रम् । त्वः । गायति । शक्वरीषु । ब्रह्मा । त्वः । वदति । जातऽविद्याम् । यज्ञस्य । मात्राम् । वि । मिमीते । ऊँ इति । त्वः ॥ १०.७१.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 71; मन्त्र » 11
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 6
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    हिन्दी (2)

    पदार्थ

    (त्वः) एक विद्वान् (ऋचां पोषं पुपुष्वान्-अस्ते) ऋङ्मन्त्रों के पोष-ज्ञान को लेकर विराजता है (त्वः) कोई एक (शक्वरीषु गायत्रं गायति) शक्तिवाली ऋचाओं में गातव्य स्तोतव्य परमात्मा को गाता है स्तुति में लाता है (त्वः-उ) कोई एक विद्वान् (यज्ञस्य मात्रां विमिमीते) यजनीय के भाग-अवयव सरणि को विशेषरूप से निर्धारित करता है (त्वः) एक विद्वान् (ब्रह्मा जातविद्यां वदति) चतुर्वेदवेत्ता वेदों में प्रसिद्ध विद्या का प्रवचन करता है ॥११॥

    भावार्थ

    वेदों में निष्णात विद्वान् कोई ऋङ्मन्त्रों के ज्ञान का प्रवचन करता है, कोई गाने योग्य मन्त्रों से परमात्मा का गुणगान करता है, कोई मन्त्रों से यज्ञ की सरणि का विधान करता है और कोई चारों वेदों का वेत्ता वेदों की प्रसिद्ध विद्या का व्याख्यान करता है ॥११॥

    प्रवचन

    भाषार्थ एक स्तोत्रा वेदमन्त्रों के यज्ञीय अनुष्ठान में विधि विधान के प्रयोग सहित विराजमान होता है। दूसरा शक्वरी ऋचाओं में गायत्री आदि छन्दों का सामगान करता है, तीसरा ब्रह्मा नामक विद्वान प्रायश्चित आदि विधान की व्याख्या करता है तथा चौथा अध्वर्यु पुरोहित यज्ञकर्म के नाना विधान कार्यों का विशेष रूप से निर्वाह करता है।

    शृङ्गी ऋषि कृष्णदत्त जी महाराज

    यज्ञ में यज्ञमान, ब्रह्मा, उद्गाता, अध्वर्यु, होता व पुरोहित का स्थान होता है। ऋषि कहता हैं क्या ब्रह्म में वेदा ब्रह्म कृता प्राणी व्रतं अस्वातं, ब्रह्मे अस्वातं वेद का ऋषि यह कहता है, वेद का आचार्य कहता है कि जब यज्ञमान यज्ञशाला में विराजमान होता हैं, होताजनों के सहित आता हैं, जब अग्न्याध्यान करता हैं, तो अग्नि में जब स्वाहा कहता है तो स्वाहा के साथ में, जितने होताजन हैं, आदि देखो, जैसे ब्रह्मा हैं, उद्गाता हैं, अध्वर्यु हैं, पुरोहित है मानो जितने भी होता जन हैं, ऋत्विक हैं, और यज्ञमान हैं, और यज्ञशाला जिस प्रकार के आकार की बनी हुई हैं। उसको स्वाहा के साथ में, अग्नि की धाराओ में, अग्नि की धाराओं में ज्यों का त्यों वह चित्र मेरे प्यारे! प्राप्त हो जाता हैं।

    मेरे प्यारे महानन्द जी ने एक प्रश्न किया, क्या भगवन! यज्ञशाला में विराजमान होने वाला, पठन पाठन करने वाला आचार्य, और जिसे हम उद्गाता कहा करते हैं, और ब्रह्मा ये वेदों का बड़े ऊँचे स्वरों के उच्चारण करते हैं, हमारे यहाँ महानन्द जी ने एक समय ऐसा प्रश्न किया और यज्ञ में आहुति के साथ में वेद मन्त्रों के पठन पाठन की पद्धति क्यों हैं? उस समय बेटा! आज मुझे स्मरण आता चला आ रहा है इनके प्रश्नों का उत्तर और वह यह है कि संसार में बेटा! जब हम यज्ञ कर्म में संलग्न होते हैं, यज्ञ कितने भी प्रकार के होते हैं, एक मानव वाणी का यज्ञ करता है, मानव को वाणी से, मधुर और सत्य उच्चारण करता है, यह जब ही होता है, जब तीनों भावना उसके साथ साथ होती हैं, तो वह एक प्रकार का वाणी का यज्ञ हो रहा हैं। जब वाणी के यज्ञ में उसकी महान प्रगति हो जाती हैं, उसी प्रगति के साथ साथ मानवीय वाक् मानवीय याग उच्चता को प्राप्त होता रहता हैं। तो मेरे आचार्य जनों ने कहा है, मेरे पूज्यपाद गुरुदेव ने कहा है कि वेद जो हैं उसे परमात्मा का ज्ञान कहा जाता हैं, जब हम वेद मन्त्रों की ऋचाओं को उच्चारण करते हैं, मन्त्रों का पठन पाठन करते हैं।

    मेरे प्यारे ऋषिवर! सृष्टि के आदि ब्रह्मा जी का कल्पना करते हुए आचार्यों ने बेटा! यज्ञ की कल्पना की हैं, जैसे यज्ञमान किस स्थान में देखो, कौन सा स्थान यज्ञमान का होना चाहिए? कौन सा स्थान अध्वर्यु का होना चाहिए? कौन सा उद्गाता को होना चाहिए? कौन सा स्थान ब्रह्मा का होना चाहिए? यह सब मुनिवरों! देखो, हमारे आचार्यों ने प्रथम बेटा! इस मन्थन करने के पश्चात वैज्ञानिक रूपों से विज्ञान के आधार पर बेटा! इसके ऊपर अपना विचार व्यक्त करते हुए कहा है। एक समय बेटा! मुझे स्मरण है महर्षि शाण्डिल्य मुनि महाराज के, सत्रहवें बाबा, महर्षि शौनक ही सोमभुक इत्यादि और महर्षि दालभ्य मुनि महाराज के बेटा! देखो, सातवें देखो, सत्रहवें बाबा देखो, महागुरु देखो, बेटा! यह सब आदि ऋषि बेटा! आदित्य ऋषि महाराज के द्वारा जा पंहुचे। आदित्य मुनि महाराज से कहा क्या महाराज हम यह जानना चाहते हैं यज्ञं भूतानि ब्रह्म लोकाः प्रह्व अस्ति हे प्रभु! आज भी जितने आचार्यों ने यज्ञ की कल्पना की हैं, ब्रह्मा का स्थान दक्षिण दिशा में क्यों होना चाहिए? मानो देखो, पश्चिम दिशा में यज्ञमान ही क्यों होना चाहिए? अहा, अध्वर्यु मानो पूर्व की दिशा में क्यों होना चाहिए? इस प्रकार की बेटा! उन्होंने कल्पना की कल्पना करते हुए अहा, ऋषि ने कहा ब्रह्म भूतां ब्रह्मे भूतां मानो उन्होंने कहा है कि आचार्यों तुम्हें यह प्रतीत हैं, क्या यह जो दक्षिण दिशा है यह मृत्यु का स्थान माना गया हैं, मानो देखो, इस स्थान में ब्रह्मा रहता हैं, क्योंकि ब्रह्मा इसीलिए रहता है, वह मृत्यु को विजय करता रहता हैं। मृत्यु को विजय कौन करता हैं? जो ब्रह्म के जानने वाला होता है, जो ब्रह्म को जान लेता हैं, वही संसार में मृत्यु को विजय कर लेता है, बेटा! ऋषियों ने कहा है क्या मृत्युंजय बनने वाला ही ब्रह्मा होता हैं। इसके पश्चात उन्होंने कहा है, मुनिवरों! कहा उद्गाता उदगान गाता है। उदगान कौन गाता हैं जो बेटा! देखो, वह अस्सुतम उत्तरायण में विराजमान होता हैं, वह उदगान गाता हैं, क्या उदगम गाता हैं? वेद का पठन पाठन करता हैं, वेद के स्वरों से बेटा! वह यज्ञ इत्यादि कर्मों में वह सदैव संलग्न होता हैं, उसकी उदगारता वह देवता क्योंकि उद्गाता को जो वेद का देवता है।

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (त्वः) एको विद्वान् (ऋचां पोषं पुपुष्वान्-आस्ते) ऋङ्मन्त्राणां पोषं ज्ञानं प्रवर्धनमनूपतिष्ठते (त्वः) एकः (शक्वरीषु गायत्रं गायति) शक्तिमतीषु गीतिष्वृक्षु “शक्वर्यः शक्तिमत्यः” [यजु० १०।४ दयानन्दः] गातव्यं स्तोतव्यं परमात्मानं गायति स्तौति (त्वः-उ यज्ञस्य मात्रां विमिमीते) एकः खलु विद्वान् यजनीयस्य देवपूजासङ्गतिकरणदानस्य भागमवयवं सरणिं वा विशिष्टतया धारयति (त्वः) एकः (ब्रह्मा जातविद्यां वदति) ब्रह्मा चतुर्वेदवेत्ता “ब्रह्मा चतुर्वेदविज्जनः” [ऋ० १।१६४।३५ दयानन्दः] वेदेषु प्रसिद्धां विद्यां प्रवदति ॥११॥

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Of the devotees of the divine voice of the Veda, one chants, celebrates and maintains the energy and enthusiasm of life vibrating in the Rks, one, the udgata, sings the gayatri verses in the Shakvari hymns of power, the Brahma, presiding high priest, proclaims the verses of universal knowledge from all the Vedas, and another, the adhvaryu, orders and organises the entire programme of the yajna in all details.

    मराठी (1)

    भावार्थ

    वेदात निष्णात विद्वान एखाद्या ऋग्मंत्रांच्या ज्ञानाचे प्रवचन करतो. एखादा गाण्यायोग्य मंत्रांनी परमात्म्याचे गुणगान करतो. एखाद्या मंत्रांद्वारे यज्ञमार्गाचे विधान करतो व एखादा चारही वेदांचा वेत्ता प्रसिद्ध विद्येचे व्याख्यान करतो. ॥११॥

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