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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 71 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 71/ मन्त्र 4
    ऋषिः - बृहस्पतिः देवता - ज्ञानम् छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒त त्व॒: पश्य॒न्न द॑दर्श॒ वाच॑मु॒त त्व॑: शृ॒ण्वन्न शृ॑णोत्येनाम् । उ॒तो त्व॑स्मै त॒न्वं१॒॑ वि स॑स्रे जा॒येव॒ पत्य॑ उश॒ती सु॒वासा॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । त्वः॒ । पश्य॑न् । न । द॒द॒र्श॒ । वाच॑म् । उ॒त । त्वः॒ । शृ॒ण्वन् । न । शृ॒णो॒ति॒ । ए॒ना॒म् । उ॒तो इति॑ । त्व॒स्मै॒ । त॒न्व॑म् । वि । स॒स्रे॒ । जा॒याऽइ॑व । पत्ये॑ । उ॒श॒ती । सु॒ऽवासाः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत त्व: पश्यन्न ददर्श वाचमुत त्व: शृण्वन्न शृणोत्येनाम् । उतो त्वस्मै तन्वं१ वि सस्रे जायेव पत्य उशती सुवासा: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । त्वः । पश्यन् । न । ददर्श । वाचम् । उत । त्वः । शृण्वन् । न । शृणोति । एनाम् । उतो इति । त्वस्मै । तन्वम् । वि । सस्रे । जायाऽइव । पत्ये । उशती । सुऽवासाः ॥ १०.७१.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 71; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (उत त्वः) तथा कोई एक (वाचं पश्यन्) लिपिरूप वाणी को आँख से देखता हुआ (न पश्यति) नहीं देखता है लिपि का ज्ञान न होने से (उत त्वः) तथा कोई एक (एनां शृण्वन्) इस शब्दरूप वाणी को सुनाता हुआ (न शृणोति) नहीं सुनता है, अर्थज्ञान न होने से (उत-उ-त्वस्मै) और किसी एक के लिए (तन्वं विसस्रे) अपने आत्मा को खोल देती है-प्रकट करती है, ज्ञान के कारण से (पत्ये जाया-इव) पति के लिये पत्नी जैसे (उशती सुवासाः) अच्छे वस्त्र धारण किये हुए गृहस्थ धर्म की कामना करती हुई अपने शरीर को खोल देती है, प्रकट करती है ॥४॥

    भावार्थ

    वाणी को लिपिरूप में देखता हुआ भी लिपिज्ञानरहित नहीं देखता है और कोई अर्थज्ञानशून्य कानों से वाणी को सुनता हुआ नहीं सुन पाता, किन्तु ज्ञानवान् मनुष्य के लिए वाणी अपने सार्थ स्वरूप को ऐसे खोल कर रखती है, जैसे सुभूषित स्त्री अपने को खोलकर रख देती है गृहस्थसुख के लिए ॥४॥

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    विषय

    वाणी के ज्ञान में विद्वान् और अविद्वान् का भेद। वाणी और विद्वान् की पतिपत्नी से उपमा।

    भावार्थ

    (उत त्वः) एक तो (वाचं पश्यन् न ददर्श) वाणी को देखता हुआ भी नहीं देखता। (उत त्वः) और दूसरा (एनाम्) उस वाणी को (शृण्वन् न शृणोति) सुनता हुआ भी श्रवण नहीं करता। और वह वाणी (उतो त्वस्मे) एक के आगे (तन्वं) अपने विस्तृत ज्ञानमय रूप को इस प्रकार (वि सस्त्रे) विशेष शोभित रूप वा विविध प्रकार से प्रकट करती है, जिस प्रकार (पत्ये सुवासाः उशती जाया इव) पति के हर्ष के लिये सुन्दर वस्त्र पहने कामना वाली पत्नी अपना सुन्दर मोहक शृंगारित रूप प्रकट करती है। जिस प्रकार ऋतुस्नाता नारी सुन्दर वस्त्रादि पहन कर उत्तम आभूषण आदि से सजकर विविध भावों को प्रकट करती हुई अपने अनेक भाव प्रकट करती है उसी प्रकार विद्वान् के प्रति वाणी अपना विस्तृत ज्ञानमय शरीर प्रकट करती है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बृहस्पतिः॥ देवता—ज्ञानम्॥ छन्दः– १ त्रिष्टुप्। २ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५, ६, ८, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप्। ९ विराड् जगती॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    ज्ञानी व अज्ञानी [वह वेदज्ञान किसी को होता है, किसी को नहीं]

    पदार्थ

    [१] (त्वः) = कोई एक (पश्यन् उत) = देखता हुआ भी (वाचं न ददर्श) = इस वेदवाणी को देखता नहीं, (त्वः) = कोई एक (शृण्वन् उत) = सुनता हुआ भी (एनां न शृणोति) = इस वेदवाणी को नहीं सुनता है। इस वेदवाणी को देखता और सुनता हुआ यदि वह एक तोते की तरह उसका उच्चारण कर लेता है पर उसके अर्थ को नहीं समझता, तो वस्तुतः वह देखते हुए भी नहीं देख रहा, सुनते हुए भी नहीं सुन रहा । केवल बोलना व उच्चारण करना किसी लाभ को न देने के कारण व्यर्थ- सा हो जाता है । 'व्यर्थ' का भाव ही अर्थ से रहित है । अर्थ से रहित पढ़ना व्यर्थ तो हो ही जाता है। [२] सो एक समझदार पुरुष इस वेदवाणी के अर्थ को समझने का प्रयत्न करता है । वेद का पढ़ना-पढ़ाना उसका परम धर्म हो जाता है, वह इसे पढ़ता है और इसे समझने का प्रयत्न करता है, केवल पढ़कर वह चन्दनवाही खर ही नहीं बना रहता । (उत उ) = और निश्चय से (त्वस्मै) = इस वेदवाणी को समझनेवाले पुरुष के लिये यह वेदवाणी उसी प्रकार (तन्वं विसस्त्रे) = अपने स्वरूप को प्रकट करती है (इव) = जैसे (उशती) = हित की कामना करती हुई (सुवासाः) = उत्तम वस्त्रोंवाली (जाया) = पत्नी (पत्ये) = पति के लिये अपने रूप को प्रकट करती है । अर्थज्ञ पुरुष ही वेदवाणी के रूप को ठीक प्रकार देख पाता है। यही उससे उचित आनन्दों को प्राप्त करनेवाला होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- वेदवाणी के अर्थ को न समझनेवाला पुरुष वेदवाणी को देखता हुआ भी नहीं देख रहा होता । यह वेदवाणी के सुन्दर रूप का दर्शन नहीं कर पाता ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (उत त्वः-वाचं पश्यन्-न ददर्श) अपि चैको वाचं लिपिरूपां दृष्ट्या पश्यन् न पश्यति लिपेर्ज्ञानाभावात् “त्वः-एकः” [निरु० १।२०] (उत त्वः-एनां शृण्वन् न शृणोति) अपि चैकः शब्दरूपामेनां वाचं श्रोत्रेण शृण्वन् न शृणोति शब्दानां बोधाभावात् (उतो त्वस्मै तन्वं विसस्रे) अप्येकस्मै स्वात्मानम् “आत्मा वै तनुः” [श० ६।७।२।६] विवृणुते-उद्घाटयति ज्ञानकारणात् (पत्ये जाया-इव-उशती सुवासाः) पत्ये या जाया कल्याणवस्त्रा कामयमाना-गार्हस्थ्य-धर्मस्यावसरे स्वशरीरं विवृणुते-उद्घाटयति। तद्वदित्यर्थः ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    However, even in association, in spite of discussion, someone having seen the language, let us say, in print, or having seen the meaning in practical reality, may not acknowledge it, some one having heard the language by the ear may not hear it in the soul. But Speech to someone, some honest, conscientious dedicated soul, opens up and reveals its hidden meaning as a loving wife beautifully clad opens and reveals herself, her very soul to her loving and faithful husband.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    लिपीरूपी वाणी पाहूनही लिपीज्ञान नसल्यामुळे एखादा ते समजू शकत नाही व अर्थज्ञान नसल्यामुळे एखाद्याला कानाने ऐकूनही त्याचा उलगडा होऊ शकत नाही; परंतु ज्ञानी माणसासाठी वाणी आपल्या सार्थ स्वरूपाला प्रकट करते जशी एखादी वस्त्रालंकारांनी नटलेली स्त्री आपल्या पतीला आपले शरीर दाखविते. ॥४॥

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    हिंगलिश (1)

    Subject

    Develop knowledge based communication skills

    Word Meaning

    (उत त्व: वाचं पश्यन् न ददर्श) कोइ तो अपनी वाणी को मन से अज्ञान के कारण नही परखता (उत त्व: एनां शृण्वन् न शृणोति) दूसरा अपनी वाणी के अर्थ और प्रभाव नही समझता,(उतो त्वस्मै तन्वं वि सस्रे) परन्तु वाणी तो अपने ज्ञान रूप प्रकाश से समाज में इसी प्रकार से शोभा बढाती है ( पत्ये सुवासा: उशती जाया इव) जैसे सुंदर परिधान में अपने पति के सुख के लिए रमणीय पत्नि अनुकूल वातावरण बनाती है.

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