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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 92 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 92/ मन्त्र 13
    ऋषिः - शार्यातो मानवः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    प्र न॑: पू॒षा च॒रथं॑ वि॒श्वदे॑व्यो॒ऽपां नपा॑दवतु वा॒युरि॒ष्टये॑ । आ॒त्मानं॒ वस्यो॑ अ॒भि वात॑मर्चत॒ तद॑श्विना सुहवा॒ याम॑नि श्रुतम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । नः॒ । पू॒षा । च॒रथ॑म् । वि॒श्वऽदे॑व्यः । अ॒पाम् । नपा॑त् । अ॒व॒तु॒ । वा॒युः । इ॒ष्टये॑ । आ॒त्मान॑म् । वस्यः॑ । अ॒भि । वात॑म् । अ॒र्च॒त॒ । तत् । अ॒श्वि॒ना॒ । सु॒ऽह॒वा॒ । याम॑नि । श्रु॒त॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र न: पूषा चरथं विश्वदेव्योऽपां नपादवतु वायुरिष्टये । आत्मानं वस्यो अभि वातमर्चत तदश्विना सुहवा यामनि श्रुतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । नः । पूषा । चरथम् । विश्वऽदेव्यः । अपाम् । नपात् । अवतु । वायुः । इष्टये । आत्मानम् । वस्यः । अभि । वातम् । अर्चत । तत् । अश्विना । सुऽहवा । यामनि । श्रुतम् ॥ १०.९२.१३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 92; मन्त्र » 13
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (विश्वदेव्यः) सब विद्वानों तथा भौतिक देवों का आश्रय (पूषा) पोषणकारी परमात्मा (नः चरथम्) हमारे चरणशील-जङ्गम मनुष्यादिकों को (प्र-अवतु) भलीभाँति सुरक्षित रखे (इष्टये) अभीष्ट साधने के लिये (वायुः) वह जीवनप्रद (अपां नपात्) प्राणों को न गिरानेवाला हो (वस्यः) अतिश्रेष्ठ (वातम् आत्मानम्) जीवनप्रद व्यापक परमात्मा को (अभि-अर्चत) पूजो (तत्) उस (सुहवा) उत्तम प्रार्थना करनेवाले (अश्विना) सुशिक्षित स्त्री-पुरुष (यामनि) अपनी जीवनयात्रा में (श्रुतम्) उसे सुनें, उसका श्रवण करें ॥१३॥

    भावार्थ

    परमात्मा विद्वानों सूर्य आदि का आश्रयदाता, पोषणकर्त्ता, जङ्गम की इष्टसिद्धिकर्त्ता, जीवनप्रद प्राणों का प्रदानकर्त्ता है, उसका श्रवणज्ञान स्त्री-पुरुषों को करना चाहिये ॥१३॥

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    विषय

    आत्मा, वसुओं व वात की ओर

    पदार्थ

    [१] (विश्वदेव्यः) = सब देवों में उत्तम [विश्वेषु देवेषु साधुः ] (पूषा) = पोषण करनेवाला यह सूर्य (न:) = हमारे (चरथम्) = इस शरीर रूप रथ को [chasiot] (प्र अवतु) = प्रकर्षेण रक्षित करे। यह सूर्य तो प्रजाओं का प्राण ही है 'प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः ' [२] (अपां न पात्) = प्रजाओं का पतन न होने देनेवाला (वायुः) = यह गति के द्वारा सब अशुभ का हिंसन करनेवाला वायु (इष्टये) = इष्ट प्राप्ति के लिये अथवा इष्टि यज्ञमय जीवन बिताने के लिए [अवतु = ] रक्षण करे। [३] (आत्मानं अभि अर्चत) = हे मेरे प्राणापानो! [अश्विना] आत्मा का लक्ष्य करके तुम पूजा करनेवाले बनो। (वस्यः) [अभि अर्चत ] = निवास के लिए आवश्यक जो भी श्रेष्ठ तत्त्व है उसका अर्चन करनेवाले बनो । (वातम्) [अभि अर्चत ] = गति के द्वारा अशुभ के संहार की अर्चना करनेवाले बनो । [४] हे (सुहवा) = शोभन आह्वान व प्रभु के आराधनवाले (अश्विना) = प्राणापानो! (यामनि) = इस जीवनयात्रा में (श्रुतम्) = हमारी प्रार्थना को सुनो। हम प्राणापानों से प्रभु का आराधन करें और इस प्रकार प्रकृति की ओर न झुककर आत्मतत्त्व की ओर झुकाववाले हों, विलास की वस्तुओं की ओर न झुककर वसुओं की ओर झुकें तथा अकर्मण्यता को छोड़कर वायु की तरह क्रियाशील हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सूर्य व वायु हमारे शरीर रथ का रक्षण करें। प्राणसाधना हमें आत्मप्रवण करे, वसुओं की प्राप्ति कराये तथा गतिशील बनाये ।

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    विषय

    सर्वपोषक प्रभु से रक्षा की प्रार्थना।

    भावार्थ

    (पूषा) पृथ्वीवत् सब का पोषण करने वाला प्रभु (नः चरथम् प्र अवतु) हमारे चर, प्राणिवर्ग की रक्षा करे। (विश्व-देव्यः) सब देवों का आश्रय, (अपां नपात्) जलों को न गिरने देने वाले (वायुः) वायु के सदृश बलवान् सर्वप्राणप्रद प्रजा को न गिरने देने वाला मुख्य पुरुष (नः अवतु) हमारी रक्षा करे। हे विद्वान लोगो ! आप लोग (वातम्) सर्वव्यापक (आत्मानम्) आत्मा को (वस्यः अभि अर्चत) सर्वश्रेष्ठ रूप में उपासना करो। (तत्) उसी महान् आत्मा के सम्बन्ध में हे (सु-हवा) उत्तम यज्ञाहुति देने वाले स्त्री पुरुषो (यामनि) जीवन के संयमपूर्वक व्यवहार युक्त मार्ग में रह कर (श्रुतम्) ज्ञान का श्रवण किया करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः शार्यातो मानवः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः— १, ६, १२, १४ निचृज्जगती। २, ५, ८, १०, ११, १५ जगती। ३, ४, ९, १३ विराड् जगती। ७ पादनिचृज्जगती। पञ्चदशर्चं सूकम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (विश्वदेव्यः) सर्वदेवाश्रयः (पूषा) पोषयिता परमात्मा (नः चरथम्) अस्माकं चरणशीलं प्राणवन्तं मनुष्यादिकं (प्र-अवतु) प्ररक्षतु (इष्टये) इष्टसाधनाय (वायुः) स जीवनप्रदः (अपां नपात्) प्राणानाम् “प्राणा वा आपः” [ता० ९।९।४] न पातयिता भवतु (वस्यः) अतिश्रेष्ठं (वातम्-आत्मानम्) जीवनप्रदं व्यापकं परमात्मानम् (अभि-अर्चत) पूजयत (तत्) तम् “लिङ्गव्यत्ययः” (सुहवा-अश्विना) उत्तमाह्वानकर्तारौ शोभनप्रार्थनावन्तौ सुशिक्षितौ स्त्रीपुरुषौ “अश्विना सुशिक्षितौ स्त्रीपुरुषौ” [यजुः०३८।१२ दयानन्दः] (यामनि श्रुतम्) जीवनयात्रायां शृणुतम् ॥१३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And may Pusha, divine spirit of nature’s nourishment, protect and promote our living and moving wealth. May the life-giving Vayu energy, sustainer of life’s vitality, and all natural divinities protect and promote us to achieve our cherished desires for well being. O dedicated celebrants of divinity, honour and adore the glorious spiritual energy within the soul, and may the Ashvins, complementary currents of natural life energy in yajnic touch with us, perceive our earnestness on way and bring us blessings of divinity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वर, विद्वान, सूर्य इत्यादींचा आश्रयदाता, पोषणकर्ता जङ्गमचा इष्ट सिद्धिकर्ता, जीवनप्रद प्राणांचा प्रदानकर्ता आहे. त्याचे श्रवणज्ञान स्त्री-पुरुषांनी केले पाहिजे. ॥१३॥

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