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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 92 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 92/ मन्त्र 7
    ऋषिः - शार्यातो मानवः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - पादनिचृज्ज्गती स्वरः - निषादः

    इन्द्रे॒ भुजं॑ शशमा॒नास॑ आशत॒ सूरो॒ दृशी॑के॒ वृष॑णश्च॒ पौंस्ये॑ । प्र ये न्व॑स्या॒र्हणा॑ ततक्षि॒रे युजं॒ वज्रं॑ नृ॒षद॑नेषु का॒रव॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रे॑ । भुज॑म् । श॒श॒मा॒नासः॑ । आ॒श॒त॒ । सूरः॑ । दृशी॑के । वृष॑णः । च॒ । पौंस्ये॑ । प्र । ये । नु । अ॒स्य॒ । अ॒र्हणा॑ । त॒त॒क्षि॒रे । युज॑म् । वज्र॑म् । नृ॒ऽसद॑नेषु । का॒रवः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रे भुजं शशमानास आशत सूरो दृशीके वृषणश्च पौंस्ये । प्र ये न्वस्यार्हणा ततक्षिरे युजं वज्रं नृषदनेषु कारव: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रे । भुजम् । शशमानासः । आशत । सूरः । दृशीके । वृषणः । च । पौंस्ये । प्र । ये । नु । अस्य । अर्हणा । ततक्षिरे । युजम् । वज्रम् । नृऽसदनेषु । कारवः ॥ १०.९२.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 92; मन्त्र » 7
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (शशमानासः) परमात्मा की प्रशंसा करनेवाले (इन्द्रे भुजम्-आशत) ऐश्वर्यवान् परमात्मा में-उसके आश्रय में रक्षण और आनन्द भोग को प्राप्त करते हैं (सूरः-वृषणः-च) जो सूर्य की भाँति तथा वृषभ की भाँति हैं, (तस्य) उसके (दृशीके पौंस्ये) दर्शन और पौरुष में स्थित होते हैं (ये-नु) जो भी (कारवः) स्तुति करनेवाले (अस्य-अर्हणा ततक्षिरे) इसकी पूजा करते हैं (नृसदनेषु युजं वज्रं) विद्वत्सदनों में योजनीय ओज को प्राप्त करते हैं ॥७॥

    भावार्थ

    परमात्मा ज्ञानप्रकाशक और सुखवर्षक है। जो महानुभाव उसकी प्रशंसा करनेवाले होते हैं, वे उसके रक्षण और आनन्दभोग को प्राप्त करते हैं तथा उसके दर्शन और स्वरूप में निमग्न रहते हैं, सभा सम्मेलन स्थानों में उसकी पूजा प्रशंसा करते हुए उत्तम ओज को प्राप्त होते हैं ॥७॥

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    विषय

    सूरो दृशीके, वृषणश्च पौंस्ये

    पदार्थ

    [१] (शशमानासः) = शशक [खरगोश] के समान सदा प्लुतगतिवाले लोग, कर्मशील व्यक्ति (इन्द्रे) = उस परमात्मा में प्रभु के आधार में (भुजम्) = सब भोगों को आशत प्राप्त करते हैं। अपने कर्मों में सदा लगे हुए व्यक्तियों का खान-पान प्रभु कृपा से चलता है वे प्रभु दृशीके दर्शन में (सूरः) = सूर्य के समान हैं, 'ब्रह्म सूर्यसमं ज्योतिः ' ' आदित्यवर्णम्' । (च) = और (पौंस्ये) = बल में (वृषण:) = सब सुखों का वर्षण करनेवाले हैं। प्रभु की शक्ति कल्याण को ही करनेवाली है । [२] (ये) = जो (नु) = अब (अस्य अर्हणा) = इस प्रभु की पूजा के द्वारा इस प्रभु को (युजम्) = अपना साथी तथा (वज्रम्) = शत्रुसंहारक अस्त्र (प्रततक्षिरे) = बनाते हैं वे (नृषदनेषु) = [नर: कर्तृत्येन सीदन्ति येषु तेषु यज्ञेषु सा० ] 'विश्वेदेवाः यजमानश्च सीदत' यज्ञों व यज्ञों की साधन भूतयज्ञवेदियों में (कारवः) = कुशलता से कर्मों को करनेवाले होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - श्रमशील का योगक्षेम प्रभु चलाते हैं । वे प्रभु सूर्य की तरह दीप्त व शक्तिशाली हैं। इसकी पूजा से जीव शत्रुओं को जीतता है और यज्ञों को सिद्ध करता है ।

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    विषय

    सर्वमनोरथ सर्वस्तुत्य रक्षक

    भावार्थ

    (शशमानासः) शम का अभ्यास करने वाले साधक वा स्तुतिकर्ता जन (इन्द्रे) शत्रुहन्ता, तेजस्वी और ऐश्वर्यवान् पुरुष में और उसके आश्रय (भुजं) पालन और रक्षा को (आशत) प्राप्त करते हैं क्योंकि वह (दृशीके) देखने में (सूरः) सूर्य के समान तेजस्वी और (पौंस्ये) पौरुष और बल कर्म में (वृषणः च) बलवान् मेघ, विद्युत् के तुल्य सबके जीवन, ऐश्वर्य, सुख, अन्न, जलादि का वर्षाने वाला है। और (ये नु) जो (अस्य अर्हणा प्र ततक्षिरे) इस प्रभु की नित्य अर्चना और स्तुति करते हैं वे (नृ-सदनेषु) मनुष्यों और प्राणों के विराजने के स्थानों में या नेतृपदों पर (युजं वज्रं कारवः) अन्यों को भी सत्कर्म में लगाने वाले बल को उत्पन्न करने वाले होते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः शार्यातो मानवः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः— १, ६, १२, १४ निचृज्जगती। २, ५, ८, १०, ११, १५ जगती। ३, ४, ९, १३ विराड् जगती। ७ पादनिचृज्जगती। पञ्चदशर्चं सूकम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (शशमानासः) परमात्मनः प्रशंसमानाः “शशमानः शंसमानः” [निरु० ६।८] (इन्द्रे भुजम्-आशत) ऐश्वर्यवति परमात्मनि तदाश्रये रक्षणमानन्दभोगं वा प्राप्नुवन्ति (सूरः-वृषणः-च) यः सूर्य इव वृषभ इव-चास्ति, तस्य (दृशीके-पौंस्ये) दर्शने पौरुषे च स्थिता भवन्ति (ये नु) ये खलु (कारवः) स्तोतारः “कारुः स्तोतृनाम” [निघ० ३।१६] (अस्य-अर्हणा ततक्षिरे) एतस्य परमात्मनः पूजां कुर्वन्ति “तक्षति करोतिकर्मा” [निरु० ४।१९] (नृसदनेषु युजं वज्रं) विद्वत्सदनेषु योजनीयमोजः “वज्रो वा ओजः” [श० ८।४।१।२०] प्राप्नुवन्तीति शेषः ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, cosmic energy, is self-potent, creative and immensely fertile. In Indra, in its splendid self- manifestive power to be observed and pursued with the mind, they find possibilities of human profit, and they, creative and competent craftsmen in elite human institutions, invent usable instruments of power, prosperity and protection.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा ज्ञानप्रकाशक व सुखवर्षक आहे. जे त्याची प्रशंसा करतात त्यांचे तो रक्षण करतो व त्यांना आनंदाचा भोग प्राप्त होतो व जे त्याचे दर्शन व स्वरूप जाणण्यात निमग्न असतात व सभा संमेलनात त्याची स्तुती करतात ते ओजयुक्त होतात. ॥७॥

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