ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 92/ मन्त्र 9
ऋषिः - शार्यातो मानवः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
स्तोमं॑ वो अ॒द्य रु॒द्राय॒ शिक्व॑से क्ष॒यद्वी॑राय॒ नम॑सा दिदिष्टन । येभि॑: शि॒वः स्ववाँ॑ एव॒याव॑भिर्दि॒वः सिष॑क्ति॒ स्वय॑शा॒ निका॑मभिः ॥
स्वर सहित पद पाठस्तोम॑म् । वः॒ । अ॒द्य । रु॒द्राय॑ । शिक्व॑से । क्ष॒यत्ऽवी॑राय । नम॑सा । दि॒दि॒ष्ट॒न॒ । येभिः॑ । शि॒वः । स्वऽवा॑न् । ए॒व॒याव॑ऽभिः । दि॒वः । सिस॑क्ति । स्वऽय॑शाः । निका॑मऽभिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्तोमं वो अद्य रुद्राय शिक्वसे क्षयद्वीराय नमसा दिदिष्टन । येभि: शिवः स्ववाँ एवयावभिर्दिवः सिषक्ति स्वयशा निकामभिः ॥
स्वर रहित पद पाठस्तोमम् । वः । अद्य । रुद्राय । शिक्वसे । क्षयत्ऽवीराय । नमसा । दिदिष्टन । येभिः । शिवः । स्वऽवान् । एवयावऽभिः । दिवः । सिसक्ति । स्वऽयशाः । निकामऽभिः ॥ १०.९२.९
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 92; मन्त्र » 9
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(वः) तुम इस (अद्य) इस अवसर पर (शिक्वसे) शक्तिमान् (क्षयद्वीराय) उपासकों के अन्दर प्राण जिसके द्वारा बसते हैं, ऐसे उस (रुद्राय) दुष्टों को रुलानेवाले परमात्मा के लिए (नमसा) आर्द्रभाव से (स्तोमम्) स्तुतिसमूहों को (दिदिष्टन) समर्पित करो (येभिः) जिन (एवयावभिः) ऐसे परमात्मज्ञान को प्राप्त करनेवालों, परमात्मा को साक्षात् करनेवालों उपासकों (निकामभिः) नित्य परमात्मा को चाहनेवालों के द्वारा प्राप्त करने योग्य है (शिवः) कल्याणकर (स्ववान्) स्वाधारवाला (स्वयशाः) स्वरूप से यशस्वी (दिवः सिषक्ति) अपनी कामना करनेवालों को स्वानन्द से सींचता है ॥९॥
भावार्थ
उपासक प्राणायामादि द्वारा शक्तिसम्पन्न बनानेवाले परमात्मा के लिए आर्द्रभाव से निरन्तर स्तुति करता है तथा जिन लोगों ने परमात्मविज्ञान तथा उसके स्वरूप को साक्षात् किया है, ऐसे विज्ञानियों उपासकों के लिए उनकी कामना के अनुसार आनन्द का सिञ्चन करता है ॥९॥
विषय
'रुद्र शिक्वस् क्षयद्वीर' प्रभु
पदार्थ
[१] (वः) = तुम्हारे (स्तोमम्) = स्तुति समूह को (अद्य) = आज (नमसा) = नमन के साथ रुद्राय सब रोगों के द्रावण करनेवाले (शिक्वसे) = सर्वशक्तिमान्, (क्षयद्वीराय) = वीरों में निवास करनेवाले [क्षि= निवासे] प्रभु के लिए (दिदिष्टन) = अतिसृष्ट करो। नम्रतापूर्वक उस प्रभु का ही स्तवन करो। [२] जो (शिवः) = कल्याण को करनेवाला (स्ववान्) = अपनी शक्तिवाला, (स्वयशाः) = अपने कर्मों से यशस्वी प्रभु (येभिः) = जिन (एवयावभिः) = ऐसे ही गति करनेवाले (निकामभिः) = नितरां प्रिय ज्ञानियों के द्वारा (दिवः सिषक्ति) = ज्ञान से हमारा सेवन करता है, ज्ञान को प्राप्त कराके प्रभु हमारा कल्याण करते हैं । ये ज्ञानी पुरुष 'एवयावा' होते हैं, बिना किसी अपने स्वार्थ के ऐसे ही गति करनेवाले होते हैं। वे केवल लोक-संग्रह के लिए गति करते हैं, प्रभु के ये दूत के समान होते हैं। ऐसे लोगों के द्वारा ही प्रभु हमारे में ज्ञान का स्थापन करते हैं । ये लोग प्रभु के ज्ञानी भक्त कहलाते हैं। ये बड़े प्रेम से ज्ञान का प्रसार करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - हम प्रभु का स्तवन करें। प्रभु ही अपने ज्ञानी भक्तों के द्वारा हमारे ज्ञान का वर्धन करते हुए कल्याण करते हैं। वे प्रभु सब रोगों का द्रावण करनेवाले, सर्वशक्तिमान् व वीरों में निवास करनेवाले हैं।
विषय
सर्वमनोरथ पूर्वक शक्तिशाली प्रभु। उससे विनय।
भावार्थ
(येभिः) जिन (एव-यावभिः) वेग से जाने वाले शक्तिशाली पदार्थों सहित (स्ववान्) स्वयं शक्तिशाली (शिवः) सब का कल्याणकारी (स्व-यशः) स्वयं अपने सामर्थ्य से यशस्वी है उन ही (नि-कामभिः) नितरां कान्तियुक्त जनों से वह (दिवः सिषक्ति) नाना कामनावान् जनों की अभिलाषाओं को पूर्ण करता है। हे विद्वान् पुरुषो ! (अद्य) आज,उसी (रुद्राय) गर्जते-बरसते मेघ के तुल्य, सुखों के वर्षक दुष्टों को रुलाने वाले, (शिक्वसे) शक्तिशाली (क्षयद्-वीराय) वीर पुरुषों को नाश करने वाले, वीर सेनापति के तुल्य एवं (क्षपद्-वीराय) वीरों को बसाने वाले, की (नमसा स्तोमं दिदिष्टन) विनय भाव से स्तुति करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः शार्यातो मानवः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः— १, ६, १२, १४ निचृज्जगती। २, ५, ८, १०, ११, १५ जगती। ३, ४, ९, १३ विराड् जगती। ७ पादनिचृज्जगती। पञ्चदशर्चं सूकम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(वः) यूयम् ‘व्यत्ययेन द्वितीया’ (अद्य) अस्मिन्नवसरे (शिक्वसे) शक्तिमते ‘शिक्वसः शक्तिमन्तः’ [ऋ० ५।५४।४ दयानन्दः] (क्षयद्वीराय) उपासकाभ्यन्तरे निवसन्ति वीराः प्राणा येन तस्मै “क्षयद्वीरस्य क्षयन्तो निवासिता वीरा येन तस्य” [ऋ० १।११४।३ दयानन्दः] (रुद्राय) दुष्टानां रोदयित्रे परमेश्वराय ‘रुद्रः दुष्टानां रोदयिता’ [ऋ० २।१।६ दयानन्दः] ‘रुद्रः परमेश्वरः’ [ऋ० १।१४३।३ दयानन्दः] (नमसा स्तोमं दिदिष्टन) आर्द्रीभावेन ‘नमः आर्द्रीभावे’ [यजु० २।३२ दयानन्दः] दिशत समर्पयत ‘दिश अतिसर्जने’ [तुदादि:०] सतः ‘बहुलं छन्दसि’ [अष्टा० २।४।७६] श्लुः, पुनः ‘तप्तनप्तनथनाश्च’ [अष्टा० ७।१।४५] इति तनप् प्रत्ययः (येभिः-एवयावभिः) यैः-एवं परमात्मविज्ञानं प्राप्नुवद्भिस्तत्साक्षात्कारं कुर्वद्भिरुपासकैः “एव याव्नः-य एवं विज्ञानं यान्ति तान्” [ऋ० २।३४।११ दयानन्दः] एव शब्दोपपदे या धातोः “आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च” [अष्टा० ३।२।७४] वनिप् प्रत्ययः (निकामभिः) नित्यं परमात्मानं कामयमानैः ‘निकामैः नित्यं कामो येषां तैः’ [ऋ० ४।१६।६ दयानन्दः] उपासकैः प्राप्यः (शिवः) कल्याणप्रदः (स्ववान्) स्वाधारवान् (स्वयशाः) स्व स्वरूपतो यशस्वी (दिवः सिषक्ति) स्वकामनाकर्तॄन् स्वानन्देन सिञ्चति “सिषक्ति सिञ्चति” [ऋ० ४।२१।७ दयानन्दः] ॥९॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Offer now a song of praise and adoration with homage to Rudra, mighty lord of justice and dispensation, leader, protector and ruler of the brave, self-existent, self-glorious, lover of peace and well being, commanding bright power and forces moving on their ordered course by which he blesses loving devotees with the fulfilment of their cherished desires.
मराठी (1)
भावार्थ
जो प्राणायाम इत्यादीद्वारे शक्तिसंपन्न बनविणाऱ्या परमात्म्याची आर्द्रभावाने निरंतर स्तुती करतो व ज्या लोकांनी परमात्मविज्ञान व त्याच्या स्वरूपाचा साक्षात्कार केलेला आहे. अशा विज्ञानी उपासकांसाठी त्यांच्या इच्छेनुसार तो आनंदाचे सिंचन करतो. ॥९॥
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