ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 92/ मन्त्र 15
रेभ॒दत्र॑ ज॒नुषा॒ पूर्वो॒ अङ्गि॑रा॒ ग्रावा॑ण ऊ॒र्ध्वा अ॒भि च॑क्षुरध्व॒रम् । येभि॒र्विहा॑या॒ अभ॑वद्विचक्ष॒णः पाथ॑: सु॒मेकं॒ स्वधि॑ति॒र्वन॑न्वति ॥
स्वर सहित पद पाठरेभ॑त् । अत्र॑ । ज॒नुषा॑ । पूर्वः॑ । अङ्गि॑राः । ग्रावा॑णः । ऊ॒र्ध्वाः॑ । अ॒भि । च॒क्षुः॒ । अ॒ध्व॒रम् । येभिः॑ । विऽहा॑याः । अभ॑वत् । वि॒ऽच॒क्ष॒णः । पाथः॑ । सु॒ऽमेक॑म् । स्वऽधि॑तिः । वन॑न्ऽवति ॥
स्वर रहित मन्त्र
रेभदत्र जनुषा पूर्वो अङ्गिरा ग्रावाण ऊर्ध्वा अभि चक्षुरध्वरम् । येभिर्विहाया अभवद्विचक्षणः पाथ: सुमेकं स्वधितिर्वनन्वति ॥
स्वर रहित पद पाठरेभत् । अत्र । जनुषा । पूर्वः । अङ्गिराः । ग्रावाणः । ऊर्ध्वाः । अभि । चक्षुः । अध्वरम् । येभिः । विऽहायाः । अभवत् । विऽचक्षणः । पाथः । सुऽमेकम् । स्वऽधितिः । वनन्ऽवति ॥ १०.९२.१५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 92; मन्त्र » 15
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(जनुषा पूर्वः-अङ्गिराः) जगत् की जन्मक्रिया से पूर्व वर्तमान अङ्गों जगत्पदार्थों में रममाण परमात्मा (अत्र) इस संसार में (रेभत्) परम ऋषियों को उपदेश देता है (ऊर्ध्वाः-ग्रावाणः) ऊँचे विद्वान् (अध्वरम्-अभिचक्षुः) उस अविनाशी को प्रत्यक्ष देखते हैं (येभिः) जिनके द्वारा प्रशंसित (विचक्षणः) वह सर्वद्रष्टा (विहायाः) महान् (अभवत्) है (स्वधितिः) स्वाधार (सुमेकं पाथः) सुष्ठु प्रकाशमान अथवा शोभन एकरूप मार्ग को या सृष्टिकाल को (वनन्वति) रश्मिवाले सूर्य में प्रेरित करता है ॥१५॥
भावार्थ
परमात्मा जगत् की उत्पत्ति से पूर्व वर्त्तमान तथा जगत् के पदार्थों में रममाण है, परमऋषियों को वेद का उपदेश देता है, ऊँचे विद्वान् इसका साक्षात् करते हैं, वह सर्वद्रष्टा महान् है तथा उत्तम प्रकाशवाले या सुन्दर एक मार्ग को सृष्टि के समय को सूर्य के आश्रित करता है, सूर्य के द्वारा प्रत्येक गतिमान् का मार्ग प्रशस्त होता है, या सृष्टि के पदार्थों का काल निर्धारित होता है ॥१५॥
विषय
ज्ञान के अनुसार मार्ग पर चलना [ आगमदीपदृष्ट पथ में प्रवृत्ति ]
पदार्थ
[१] प्रभु अंगिरा हैं 'अगि गतौ 'सम्पूर्ण गति का स्रोत हैं। ये प्रभु सृष्टि से पूर्व होने के कारण 'पूर्व: अंगिराः ' कहे गये हैं । प्रत्येक सृष्टि के प्रारम्भ में ये 'अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिराः ' आदि मानस पुत्रों को जन्म देते हैं और उन्हें वेद के द्वारा सब पदार्थों का ठीक से ज्ञान दे देते हैं । (अत्र) = इस सृष्टि में (पूर्व: अंगिराः) = सृष्टि से पहले ही विद्यमान गति के स्रोत प्रभु (जनुषा) = जन्म से ही, जन्म के साथ ही (रेभत्) = वेद के शब्दों द्वारा सब पदार्थों का ज्ञान प्राप्त कराते हैं ज्ञान के बिना इन पदार्थों के ठीक प्रयोग का संभव ही नहीं है । [२] (ऊर्ध्वा:) = ज्ञान के दृष्टिकोण से उच्च स्थिति में पहुँचनेवाले (ग्रावाणः) = स्तोता लोग (अध्वरम्) = उस हिंसा से ऊपर उठे हुए यज्ञरूप प्रभु को (अभिचक्षुः) = देखनेवाले होते हैं। ये स्तोता वे हैं (येभिः) = जिनसे (विचक्षणः) = वे सर्वद्रष्टा प्रभु (विहायाः) = आकाशवत् व्यापक व महान् (अभवत्) = होते हैं। जितना प्रभु की महिमा का गायन होता है, उतना ही प्रभु विस्तृत और विस्तृत होते जाते हैं । [३] यह प्रभु का स्तवन करनेवाला 'स्व-दिति:'=आत्मतत्त्व का धारण करनेवाला ज्ञानी (सुमेकं पाथः) = जिन जीवन का शोभन रूप में निर्माण करनेवाले मार्ग का (वनन्वति) = सेवन करता है, शुभ मार्ग पर चलता हुआ जीवन को उत्तम बनाता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु सृष्टि के प्रारम्भ में ही सब पदार्थों का ज्ञान देते हैं। उस ज्ञान के अनुसार शुभ मार्ग पर चलता हुआ व्यक्ति सदा कल्याण को सिद्ध करता है । सम्पूर्ण सूक्त का मुख्य भाव यही है कि विचारशील बनकर वासनाओं का संहार करते हुए शुभ मार्ग पर ही चलना है। ऐसा ही व्यक्ति तान्वः = [तनु विस्तारे] अपनी शक्तियों का विस्तार करता है, इसी कारण वह 'पार्थ्यः' कहलाता है [ प्रथविस्तारे] पृथा का पुत्र । यह 'तान्व पार्थ्य' ही अगले सूक्त का ऋषि है। यह कहता है कि-
विषय
सर्वप्रथम उपदेष्टा गुरु परमेश्वर। उसके द्रष्टा विद्वान् जन ही सन्मार्गप्रेरक है।
भावार्थ
(अत्र) इस संसार में (पूर्वः अंगिराः) सब से पूर्व विद्यमान एवं सबका पालक प्रभु ज्ञानवान् होकर (जनुषा) जगत् की उत्पत्ति द्वारा (रेभत्) उपदेश करता है। (ग्रावाणः) उपदेष्टा (ऊर्ध्वाः) उत्तम कोटि के ज्ञानी पुरुष उसी (अध्वरम्) अविनाशी प्रभु का (अभि चक्षुः) सर्वत्र, सब प्रकार से साक्षात् करते हैं। और (अर्ध्वा ग्रावाणः) ऊपर के मेघगण जिस महान् यज्ञ स्वरूप को दर्शाते हैं। (येभिः) जिनसे (विचक्षणः) विश्व का द्रष्टा (विहायाः अभवत्) आकाशवत् व्यापक महान् है। वही (स्व-धितिः) अपने सामर्थ्य से जगत् को धारण करने वाला, (सुमेकं) उत्तम जलसेचक, वर्धक और उत्तम मेघ से युक्त (पाथः) पालनकारी जलयुक्त मेघ को (वनन्वति) जलादि से युक्त मार्ग में प्रेरित करता है। इति पञ्चविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
सुमेकं सुमेधयुक्तं। अथवा मेकशब्दो मुख वचनः। इति केचिद्। आद्यः संवत्सरो, क्रतवो वा इति स्कन्दस्वामी। ऋ० १। ११३। ३॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः शार्यातो मानवः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः— १, ६, १२, १४ निचृज्जगती। २, ५, ८, १०, ११, १५ जगती। ३, ४, ९, १३ विराड् जगती। ७ पादनिचृज्जगती। पञ्चदशर्चं सूकम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(जनुषा पूर्वः-अङ्गिराः) जगतो जन्मक्रियया पूर्व एव (अङ्गेषु जगत्पदार्थेषु रममाणः परमात्मा ‘अङ्गिरा अङ्गेषु रममाणः’ [ऋ० ५।८।४ दयानन्दः] (अत्र) संसारे (रेभत्) परमर्षीन् शब्दयति-उपदिशति (ऊर्ध्वाः-ग्रावाणः) उत्कृष्टाः-विद्वांसः ‘विद्वांसो हि ग्रावाणः’ [श० ३।९।३।१४] (अध्वरम्-अभिचक्षुः) तमविनाशिनं चक्षुरभि, प्रत्यक्षमभिपश्यन्ति (येभिः) यैः प्रशंसितः (विचक्षणः-विहायाः-अभवत्) स सर्वद्रष्टा महान् भवति (स्वधितिः-सुमेकं पाथः वनन्वति) स स्वाधारः सुमेकं सुष्ठु प्रकाशमानम् ‘सुमेकः सुष्ठु प्रकाशमानः’ [ऋ० ४।६।३ दयानन्दः] यद्वा स्वेकम् ‘सुमेकः स्वेकः’ [श० १।७।२।२६] मार्गं सृष्टिकालं वा ‘सुमेकः संवत्सरः स्वेको ह वै’ नामैतद् यत्सुमेक इति’ [श० १।७।२।२६] (वनन्वति) रश्मिवति सूर्ये प्रेरयति ‘वज्रं रश्मिनाम’ [निघ० ३।५३।१५] ॥१५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
By birth, the first and foremost sage Angira sings the song of divinity, the soma makers look up and watch the process of divine creation and all those powers by which the all watching creator waxes great and his omnipotence creates and provides the highest kind of food for humanity for the journey ahead.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा जगाच्या उत्पत्तीपूर्वी वर्तमान असतो व जगाच्या पदार्थांमध्ये रममाण असतो. परम ऋषींना वेदाचा उपदेश देतो. उच्च विद्वान त्याचा साक्षात्कार करतात. तो सर्वदृष्टा व महान आहे. सृष्टीचा काळ सूर्याच्या आधाराने चालतो. सूर्याला प्रकाशयुक्त परमात्माच करतो. सूर्याद्वारे प्रत्येक गतिमान पदार्थाचा मार्ग प्रशस्त होतो किंवा सृष्टीच्या पदार्थांचा काळ निर्धारित होतो. ॥१५॥
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