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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 92 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 92/ मन्त्र 5
    ऋषिः - शार्यातो मानवः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    प्र रु॒द्रेण॑ य॒यिना॑ यन्ति॒ सिन्ध॑वस्ति॒रो म॒हीम॒रम॑तिं दधन्विरे । येभि॒: परि॑ज्मा परि॒यन्नु॒रु ज्रयो॒ वि रोरु॑वज्ज॒ठरे॒ विश्व॑मु॒क्षते॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । रु॒द्रेण॑ । य॒यिना॑ । य॒न्ति॒ । सिन्ध॑वः । ति॒रः । म॒हीम् । अ॒रम॑तिम् । द॒ध॒न्वि॒रे॒ । येभिः॑ । परि॑ऽज्मा । प॒रि॒ऽयन् । उ॒रु । ज्रयः॑ । वि । रोरु॑वत् । ज॒ठरे॑ । विश्व॑म् । उ॒क्षते॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र रुद्रेण ययिना यन्ति सिन्धवस्तिरो महीमरमतिं दधन्विरे । येभि: परिज्मा परियन्नुरु ज्रयो वि रोरुवज्जठरे विश्वमुक्षते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । रुद्रेण । ययिना । यन्ति । सिन्धवः । तिरः । महीम् । अरमतिम् । दधन्विरे । येभिः । परिऽज्मा । परिऽयन् । उरु । ज्रयः । वि । रोरुवत् । जठरे । विश्वम् । उक्षते ॥ १०.९२.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 92; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ययिना रुद्रेण) मेघ में वर्तमान गतिशील विद्युद् रूप अग्नि से (सिन्धवः प्र यन्ति) बहनेवाली वृष्टिजलधाराएँ नीचे गिरती हैं (अरमतिम्-महीम्) विशाल पृथिवी को (तिरः-दधन्विरे) अन्तर्धान कर देती हैं-आच्छादित कर देती हैं (येभिः) जिन मेघस्थ वायुविशेषों के साथ (परिज्मा परियन्) सब ओर जानेवाला विद्युद्रूप अग्नि घूमता हुआ (उरुज्रयः) बहुत वेगवाला होता हुआ (जठरे रोरुवत्) अन्तरिक्ष में शब्द करता है (विश्वम्-उक्षते) सब को जल से सींच देता है ॥५॥

    भावार्थ

    मेघ के अन्दर विद्युत् उपर से बहनेवाली वृष्टिजलधाराओं के नीचे पृथिवी पर बहा देता है, पृथिवी उनसे घिर जाती है, इस प्रकार वह विद्युत् सबको जल से सींच देता है ॥५॥

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    विषय

    नदियाँ, वायु व मेघ

    पदार्थ

    [१] (ययिना) = सम्पूर्ण संसार को गति देनेवाले रुद्रेण संसार के शासक प्रभु के भय से (सिन्धवः) = नदियाँ (तिरः) = टेढ़े-मेढ़े मार्ग से (प्रयन्ति) = प्रकर्षेण गति कर रही हैं। ये नदियाँ (अरमतिम्) = इस पर्यन्तरहित (महीम्) = पृथ्वी को (दधन्विरे) = धारण कर रही हैं। खेतों की सिंचाई का साधन बनकर ये नदियाँ ही अन्नोत्पत्ति का कारण बनती हैं और इस प्रकार पृथ्वीस्थ प्राणियों का धारण करती हैं । [२] (परिज्या) = चारों ओर गतिवाला प्रभु (येभिः) = जिन मरुतों [=वायुवों] के द्वारा (परियन्) = चारों ओर गति करता हुआ (उरुज्रयः) = महान् वेगवाला (जठरे) = इस त्रिलोकी के मध्यभाग अन्तरिक्ष में (रोहवत्) = मेघों के रूप में खूब गर्जना करता है और (विश्वम्) = इस संसार को (उक्षते) = वृष्टिजल से सिक्त करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु के शासन में नदियाँ चल रही हैं। प्रभु ही वायुवों व मेघों द्वारा अन्तरिक्ष में गर्जना कर रहे हैं। वे प्रभु ही वृष्टि द्वारा भूमियों को सिक्त करके अन्नोत्पादन योग्य बनाते हैं।

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    विषय

    विशाल रूप (प्रथम) प्रभु और देह में रुद्र प्राण।

    भावार्थ

    (ययिना रुद्रेण) वेग से जाने वाले ओर गर्जना सहित वेग से जाने वाले मेघ से प्रेरित हुई (सिन्धवः) वेग से बहने वाली जलधाराएं (अरमतिम् महीम्) विशाल भूमि को (तिरः दधन्विरे) आच्छादित करती हैं। (येभिः) जिन मरुद्गणों से (परि-ज्मा) चारों ओर व्यापने वाला मेघ (उरु-ज्रयः) बहुत वेगवान् होकर (जठरे वि रोरुवत्) अन्तरिक्ष में विविध गर्जना करता है। और (विश्वम् उक्षते) समस्त विश्व पर जल वर्षण करता है। उसी प्रकार (सिन्धवः) वेगयुक्त गति वाले प्राणगण वा रुधिर प्रवाह (रुद्रैण) रुद्र रूप आत्मा से प्रेरित होकर (मही तिरः दधन्विरे) इस भूमि के विकार से बने देह को व्यापते हैं। (येभिः) जिन प्राणों से व्याप्त अति वेगवान् होकर हृदय (जठरे रोरुवत्) शरीर के मध्य में ध्वनि करता है और (विश्वम् उक्षते) समस्त देह को सेंचता है। इति त्रयोविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः शार्यातो मानवः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः— १, ६, १२, १४ निचृज्जगती। २, ५, ८, १०, ११, १५ जगती। ३, ४, ९, १३ विराड् जगती। ७ पादनिचृज्जगती। पञ्चदशर्चं सूकम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (ययिना रुद्रेण) गतिशीलेन मेघे वर्त्तमानेन विद्युद्रूपेणाग्निना “अग्निरपि रुद्र उच्यते” [निरु० १०।७] (सिन्धवः-प्र यन्ति) स्यन्दनशीला नद्यो वृष्टिर्जलधाराः प्रगच्छन्ति (अरमतिं-महीं तिरः दधन्विरे) विशालां पृथिवीं तिरोदधति-अन्तर्दधति-आच्छादयन्ति “तिरोदधे-अन्तर्दधाति” [निरु० १२।३२] (येभिः) येभिर्मरुद्भिर्वायुविशेषैर्मेघस्थैः सह (परिज्मा परियन्) परितो गन्ता विद्युद्रूपाग्निः परिभ्रमन् (उरुज्रयः) बहुवेगवान् सन् (जठरे रोरुवत्) मध्यलोके-अन्तरिक्षे शब्दयति “मध्ये वै जठरम्” [शत० ७।१।१।२३] (विश्वम्-उक्षते) सर्वं जलेन सिञ्चति ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Showers of rain and floods of rivers which cover the earth move by the tempestuous currents of cosmic energy of the Maruts, and by the same currents the vast ocean of vapours far traversing across the middle regions roars in the womb of skies and showers and fertilises the world of life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    मेघातील विद्युत वरून वाहणाऱ्या वृष्टिजल धारांना खाली पृथ्वीवर प्रवाहित करते. पृथ्वी त्यांच्यामुळे घेरली जाते. या प्रकारे विद्युत सर्वांना जलाने सिंचित करते. ॥५॥

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