ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 94/ मन्त्र 11
ऋषिः - अर्बुदः काद्रवेयः सर्पः
देवता - ग्रावाणः
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
तृ॒दि॒ला अतृ॑दिलासो॒ अद्र॑योऽश्रम॒णा अशृ॑थिता॒ अमृ॑त्यवः । अ॒ना॒तु॒रा अ॒जरा॒: स्थाम॑विष्णवः सुपी॒वसो॒ अतृ॑षिता॒ अतृ॑ष्णजः ॥
स्वर सहित पद पाठतृ॒दि॒लाः । अतृ॑दिलासः । अद्र॑यः । अ॒श्र॒म॒णाः । अशृ॑थिताः । अमृ॑त्यवः । अ॒ना॒तु॒राः । अ॒जराः॑ । स्थ । अम॑विष्णवः । सु॒ऽपी॒वसः॑ । अतृ॑षिताः । अतृ॑ष्णऽजः ॥
स्वर रहित मन्त्र
तृदिला अतृदिलासो अद्रयोऽश्रमणा अशृथिता अमृत्यवः । अनातुरा अजरा: स्थामविष्णवः सुपीवसो अतृषिता अतृष्णजः ॥
स्वर रहित पद पाठतृदिलाः । अतृदिलासः । अद्रयः । अश्रमणाः । अशृथिताः । अमृत्यवः । अनातुराः । अजराः । स्थ । अमविष्णवः । सुऽपीवसः । अतृषिताः । अतृष्णऽजः ॥ १०.९४.११
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 94; मन्त्र » 11
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 31; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 31; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
पदार्थ
(तृदिलाः) पापदुःखनाशक (अतृदिलासः) स्वयं किसी से भी न हिंसित (अद्रयः) श्लोककर्त्ता-ज्ञानवक्ता (अश्रमणाः) श्रमरहित निरन्तर कार्यसमर्थ (अशृथिताः) शिथिलतारहित-प्रयत्नवान् (अमृत्यवः) मृत्युभय से रहित (अनातुराः) पीड़ारहित अव्याकुल (अजराः) जरारहित (अमविष्णवः) प्रवचन में व्यापी-प्रवचनकुशल (सुपीवसः) सुपुष्ट (अतृषिताः) तृष्णारहित-वासनारहित (अतृष्णजः) तृष्णा न उठने देनेवाले संयमी जितेन्द्रिय (स्थ) हो, वे तुम सेवनीय हो ॥११॥
भावार्थ
जो उत्तम विद्वान् पापदुःखनाशक, अहिंसनीय, ज्ञानवक्ता, न भ्रान्त होनेवाले, कर्मठ, अशिथिल, मृत्युभयरहित, अव्याकुल-शान्त, जरारहित, प्रवचनकुशल, स्वस्थ, वासनारहित, जितेन्द्रिय होते हैं, वे आदर योग्य हैं ॥११॥
विषय
द्वादश गुण
शब्दार्थ
तुम (तृदला:) भेदक (अतृलासः) स्वयं अभेद्य (अंद्रयः) पर्वत और मेघ बनो (अश्रमणाः) अनथक (अश्रृथिताः) अशिथिल (अमृत्यव:) मृत्युरहित (अनातुरा:) रोगरहित (अजरा:) जरारहित (अमविष्णव:) सदा गतिशील (सुपीवस:) हृष्ट-पुष्ट (अतृषिताः) लोभ से रहित, संतोषी (अतृष्णज:) निर्मोही (स्थ) बनो ।
भावार्थ
मन्त्र में निम्न बारह आदेश है - १. हे मनुष्यो ! तुम अविद्या-अन्धकार और अधर्म को छिन्न-भिन्न करनेवाले बनो । २. तुम स्वयं अभेद्य बनो ! संशय, विघ्न और बाधाएँ, नास्तिकता और अधार्मिकता तुममें प्रविष्ट न हो सके । ३. तुम पर्वत- समान उच्च-अचल और मेघ-समान उदार बनो । ४. तुम श्रम से न थकनेवाले बनो । ५. अशिथिल बनो । ढील-ढाल, आलस्य और प्रमाद तुम्हारे पास फटकने न पाए । ६. मृत्युरहित बनो अर्थात् चारित्रिक, नैतिक, धार्मिक मृत्यु न हो ७ तुम रोगरहित और स्वस्थ बनो । ८. तुम जरा-वृद्धावस्था से रहित रहो । खान-पान, नियमित व्यायाम और ब्रह्मचर्य-पालन आदि द्वारा बुढ़ापे को अपने पास मत आने दो । जीवन में युवकों की-सी स्फूर्ति हो । ९. उद्योगी, पुरुषार्थी और प्रगतिशील बनो । १०. हृष्ट-पुष्ट बनो । दुर्बल-तनुः मत रहो । ११. सन्तोषी बनो । १२. मोहरहित, निःस्पृह बनो ।
विषय
कुचलनेवाला-न कुचला जाता हुआ 'चारवः' की व्याख्या
पदार्थ
[१] गत मन्त्र के सोमरक्षक पुरुष (चारवः) = सुन्दर जीवनवाले होते हैं । उस सुन्दर जीवन ही की व्याख्या इस प्रकार करते हैं कि ये (तृदिला) = [tread upon, trample upon ] कामादि शत्रुओं को कुचलनेवाले होते हैं, (अतृदिलासः) = उन शत्रुओं से ये कुचले नहीं जाते। इसी कारण (अद्रयः) = आदरणीय जीवनवाले होते हैं (अश्रमणाः) = ये कार्य करते हुए थक नहीं जाते, कार्यों में ये आनन्द का अनुभव करते हैं। (अशृथिता:) = कभी शिथिल नहीं होते, शतशः विघ्न भी इन्हें ढीला नहीं कर पाते। (अमृत्यवः) = ये रोगादि के कारण असमय में मृत्यु का शिकार नहीं होते । (अनातुराः) = मन में किसी प्रकार की आतुरता व्याकुलता से रहित होते हैं, (अजराः स्थ) = सदा अजीर्ण शक्ति होते हैं । [२] अजीर्ण शक्ति होते हुए ये (अमविष्णवः) = [अमगतौ, विष्= व्याप्तौ] व्यापक कर्मोंवाले होते हैं, सदा कर्मों में व्याप्त रहते हैं। कर्मों में व्याप्त रहने के कारण (सुपीवसः) = खूब हृष्ट-पुष्ट होते हैं। [३] (अतृषिता:) = सांसारिक विषयों की तृषा से ये ऊपर उठ जाते हैं, इन विषयों की इन्हें प्यास नहीं रहती । (अतृष्णजः) = सब सांसारिक ऐश्वर्यों की स्पृहा से भी ये दूर होते हैं । धनवाले होते हुए भी ये धन के भाँति लालचवाले नहीं होते ।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षक पुरुषों का जीवन मन्त्र वर्णित प्रकार से अत्यन्त सुन्दर बनता है ।
विषय
विद्वानों के उत्तम गुण। संशय मेटें, संगठित रहें, अनर्थक काम करें। न घबरावें, सदा निस्पृह हों, सदा काम में लगे रहें।
भावार्थ
हे विद्वान् और वीर लोगो ! आप लोग (तृदिलाः) दुःखों और दुष्टों को तथा संशयों के काटने वाले, और (अतृदिलासः) स्वयं कभी छिन्न भिन्न, न होने वाले, निराशा से रहित, अच्छिन्न, संगठित होवो। और आप लोग (अद्रयः) आदर योग्य (अश्रमणाः) कार्य करते हुए कभी न थकने वाले, बलशाली, (अशृथिताः) सत्कार्य में शिथिल न होने वाले, (अमृत्यवः) मृत्यु से रहित, (अनातुराः) न घबराने वाले, (अजराः) जरा, अर्थात् बुढ़ापे से रहित, (अमविष्णवः) सदा गतिशील, (सुपीवसः) खूब हृष्ट पुष्ट, (अतृषिताः) तृष्णा, लोभ से रहित, (अतृष्णजः) निस्पृह, निर्मोह (स्थ) होवो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिरर्बुदः काद्रवेयः सपः॥ ग्रावाणो देवता॥ छन्द:- १, ३, ४, १८, १३ विराड् जगती। २, ६, १२ जगती त्रिष्टुप्। ८,९ आर्चीस्वराड् जगती। ५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। १४ त्रिष्टुप्। चतुर्दशर्चं सूक्तम॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(तृदिलाः-अतृदिलासः) पापदुःखनाशकाः “तृदिन् हिंसायाम्” (रुधादि०) तत इलच् प्रत्यय औणादिको बाहुलकात् स्वयं केनापि न हिंस्यः (अद्रयः) श्लोककर्त्तारो ज्ञानवक्तारः (अश्रमणाः) श्रमः श्रमणं तद्रहिताः सततकार्यशक्ताः (अशृथिताः) शृथिता-शिथिलता तद्रहिताः प्रयत्नवन्तः (अमृत्यवः) मृत्युभयरहिताः (अनातुराः) पीडारहिताः (अजराः) जरारहिताः (अमविष्णवः) अमे शब्दे प्रवचने व्यापिनः (सुपीवसः) सुपुष्टाः (अतृषिताः) तृष्णारहिताः वासनारहिताः (अतृष्णजः) तृष्णां न जनयन्ति ते जितेन्द्रियाः (स्थ) भवथ, ते सेवनीयाः ॥११॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O revered sages, be ever relentless, inviolable, destroyers of evil, indefatigable, immortal, unafflicted, unaging, steadfast and dynamic, strong and healthy, uninhibited and unfrustrated, and free from greed.
मराठी (1)
भावार्थ
उत्तम विद्वान पापदु:खनाशक, अहिंसक, ज्ञानवक्ता, भ्रांतिरहित, कर्मठ, शिथिलतारहित, मृत्युभयरहित, अव्याकुल शांत, जरारहित,प्रवचनकुशल,स्वस्थ, वासनारहित, जितेंद्रिय असतात, ते आदर करण्यायोग्य असतात. ॥११॥
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