ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 94/ मन्त्र 2
ऋषिः - अर्बुदः काद्रवेयः सर्पः
देवता - ग्रावाणः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
ए॒ते व॑दन्ति श॒तव॑त्स॒हस्र॑वद॒भि क्र॑न्दन्ति॒ हरि॑तेभिरा॒सभि॑: । वि॒ष्ट्वी ग्रावा॑णः सु॒कृत॑: सुकृ॒त्यया॒ होतु॑श्चि॒त्पूर्वे॑ हवि॒रद्य॑माशत ॥
स्वर सहित पद पाठए॒ते । व॒द॒न्ति॒ । श॒तऽव॑त् । स॒हस्र॑ऽवत् । अ॒भि । क्र॒न्द॒न्ति॒ । हरि॑तेभिः । आ॒सऽभिः॑ । वि॒ष्ट्वी । ग्रावा॑णः । सु॒ऽकृतः॑ । सु॒ऽकृ॒त्यया॑ । होतुः॑ । चि॒त् । पूर्वे॑ । ह॒विः॒ऽअद्य॑म् । आ॒श॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एते वदन्ति शतवत्सहस्रवदभि क्रन्दन्ति हरितेभिरासभि: । विष्ट्वी ग्रावाणः सुकृत: सुकृत्यया होतुश्चित्पूर्वे हविरद्यमाशत ॥
स्वर रहित पद पाठएते । वदन्ति । शतऽवत् । सहस्रऽवत् । अभि । क्रन्दन्ति । हरितेभिः । आसऽभिः । विष्ट्वी । ग्रावाणः । सुऽकृतः । सुऽकृत्यया । होतुः । चित् । पूर्वे । हविःऽअद्यम् । आशत ॥ १०.९४.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 94; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(एते) ये वैदिक विद्वान् (शतवत्) सौ संख्या में (वदन्ति) भाषण देते हैं (सहस्रवत्) सहस्र संख्या में हुए (अभिक्रन्दन्ति) मन्त्रों को भलीभाँति उच्चारण करते हैं, (हरितेभिः-आसभिः) मनोहर मुखों से (ग्रावाणः) विद्वान् (सुकृतः) पुण्यकर्मवाले (सुकृत्यया) उत्तम क्रिया कलाप से (विष्ट्वी) प्रवेश करके (होतुः-चित्) यजमान के घर में (पूर्वे) श्रेष्ठ होते हुए (हविः-आशत) अन्न भोजन खाते हैं ॥२॥
भावार्थ
सैकड़ों सहस्रों विद्वान् मिलकर सुमधुर मुख से तथा सुन्दर क्रिया कलाप से प्रवचन और मन्त्रोच्चारण घर-घर और राष्ट्र में किया करें, उनके भोजन की समुचित व्यवस्था गृहस्थों और शासकों की ओर से की जानी चाहिये ॥२॥
विषय
आचार्यों के चार गुण
पदार्थ
[१] (एते) = ये (ग्रावाणः) = उपदेष्टा लोग (शतवत् सहस्रवत्) = सैंकड़ों व सहस्रों शिष्योंवाले होते हुए (वदन्ति) = ज्ञानोपदेश को कहते हैं और (हरितेभिः) = हरित-अशुष्क सरस (आसभिः) = मुखों से (अभिक्रन्दन्ति) = प्रातः - सायं [ क्रदि आह्वाने] प्रभु का आह्वान करते हैं, प्रभु से प्रार्थना करते हैं । आचार्य ज्ञान देते हैं और प्रभु का आराधन करते हैं । [२] (विष्ट्वी) = [कर्मनाम नि० २ । १, कृत्वा नि० ११ । १६] कर्मों को करके (ग्रावाणः) = स्तुति करनेवाले वे लोग कर्मों द्वारा प्रभु की अर्चना करनेवाले ये आचार्य (सुकृत्यया) = उत्तम कर्मों के द्वारा (सुकृतः) = पुण्यशील होते हुए (पूर्वे) = उन्नतिपथ पर सब से आगे बढ़नेवाले अथवा अपना पूरण करनेवाले बनकर [ पृ पूरणे] (चित्) = निश्चय से (होतुः) = उस सब पदार्थों के देनेवाले प्रभु के अद्यं हविःखाने योग्य यज्ञशेषरूप पदार्थों का ही (आशतः) = सेवन करते हैं। अपने कर्त्तव्य पालन के द्वारा प्रभु-स्तवन करते हैं और यज्ञशेष को ही खाते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- आचार्य [क] ज्ञान देते हैं, [ख] रस वाणी से प्रभु का स्तवन करते हैं, कर्मों को करते हुए प्रभु के सच्चे स्तोता बनते हैं, [घ] यज्ञशेष का सेवन करते हैं ।
विषय
सात्विक यजमान के दिये अन्न का भोग करें।
भावार्थ
(एते ग्रावाणः) ये ज्ञान का उपदेश करने वाले (शतवत् सहस्रवत्) सौ २ और सहस्रों शिष्यों वाले (वदन्ति) उपदेश करते हैं और वे (सु-कृतः) उत्तम कर्म करने वाले, (विष्ट्वी) गृहों में प्रवेश करके (हरितेभिः आसभिः) तेजस्वी मुखों से (सु-कृत्यया) उत्तम २ कृत्यों को (अभि क्रन्दन्ति) सर्वत्र उपदेश करते हैं। ऐसे उत्तम जनो ! आप लोग (पूर्वे) हे पूर्व आदर योग्य, विद्या और आयु में वृद्ध जनो ! आप लोग (होतुः चित् हविः-अद्यम् आशत) सात्विक दानशील जन के अन्नादि भोग्य पदार्थ का आदरपूर्वक भोजन करो, उसे स्वीकार करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिरर्बुदः काद्रवेयः सपः॥ ग्रावाणो देवता॥ छन्द:- १, ३, ४, १८, १३ विराड् जगती। २, ६, १२ जगती त्रिष्टुप्। ८,९ आर्चीस्वराड् जगती। ५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। १४ त्रिष्टुप्। चतुर्दशर्चं सूक्तम॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(एते) विद्वांसः (शतवत्) शतसंख्याशो भूत्वा (वदन्ति) भाषन्ते (सहस्रवत्-अभिक्रन्दन्ति) सहस्रसंख्याशो भूत्वा अभित उच्चारयन्ति (हरितेभिः-आसभिः) मनोहरैः “हरितं कमनीयम्” [ऋ० ३।४४।४] मुखैः (ग्रावाणः) विद्वांसः (सुकृतः) पुण्यकर्माणः (सुकृत्यया) पुण्यक्रियाकलापेन (विष्ट्वी) विष्ट्वा (होतुः-चित्) यजमानस्य गृहे प्रविश्य (पूर्वे) श्रेष्ठाः सन्तः (हविः-आशत) अन्नभोजनं प्राप्नुवन्ति ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The sages speak as they do to hundreds and thousands, and proclaim the Word loud and bold with resounding voice. Eloquent sages of long standing, noble performers, sitting on the vedi, speak with noble tongue in sacred language and partake of the yajnic hospitality of the yajamana.
मराठी (1)
भावार्थ
शेकडो हजारो विद्वानांनी मिळून सुमधुर वाणीने व सुंदर क्रियाकलापाने प्रवचन व मंत्रोच्चारण घरोघरी व राष्ट्रामध्ये करावे. त्यांच्या भोजनाची योग्य व्यवस्था गृहस्थ व शासकाकडून झाली पाहिजे. ॥२॥
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