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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 94 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 94/ मन्त्र 13
    ऋषिः - अर्बुदः काद्रवेयः सर्पः देवता - ग्रावाणः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    तदिद्व॑द॒न्त्यद्र॑यो वि॒मोच॑ने॒ याम॑न्नञ्ज॒स्पा इ॑व॒ घेदु॑प॒ब्दिभि॑: । वप॑न्तो॒ बीज॑मिव धान्या॒कृत॑: पृ॒ञ्चन्ति॒ सोमं॒ न मि॑नन्ति॒ बप्स॑तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । इत् । व॒द॒न्ति॒ । अद्र॑यः । वि॒ऽमोच॑ने । याम॑न् । अ॒ञ्जः॒पाःऽइ॑व । घ॒ । इत् । उ॒प॒ब्दिऽभिः॑ । वप॑न्तः । बीज॑म्ऽइव । धा॒न्य॒ऽकृतः॑ । पृ॒ञ्चन्ति॑ । सोम॑म् । न । मि॒न॒न्ति॒ । बप्स॑तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तदिद्वदन्त्यद्रयो विमोचने यामन्नञ्जस्पा इव घेदुपब्दिभि: । वपन्तो बीजमिव धान्याकृत: पृञ्चन्ति सोमं न मिनन्ति बप्सतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत् । इत् । वदन्ति । अद्रयः । विऽमोचने । यामन् । अञ्जःपाःऽइव । घ । इत् । उपब्दिऽभिः । वपन्तः । बीजम्ऽइव । धान्यऽकृतः । पृञ्चन्ति । सोमम् । न । मिनन्ति । बप्सतः ॥ १०.९४.१३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 94; मन्त्र » 13
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 31; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अद्रयः) मन्त्रप्रवचन करनेवाले (विमोचने-यामन्) विमोक्ष मार्ग के निमित्त (तत्-इत्-वदन्ति) उस ही विमोक्षसम्बन्धी उपदेश को बोलते हैं (अञ्जस्पाः-इव घ-इत्) अनायास-स्वभाव से रक्षा करनेवाले (उपब्दिभिः) अपनी वाणियों से संसारमार्ग के निमित्त उपदेश करते हैं (धान्यकृतः) धान्य करनेवाले किसान (बीजम्) बीज को (वपन्तः-इव) भूमि-खेत में बोते हुए के समान (सोमं पृञ्चन्ति) शान्तस्वरूप परमात्मा को अपनी आत्मा में संयुक्त करते हैं (बप्सतः) कर्मफल को भोगनेवाले (न मिनन्ति) कर्मों को नष्ट नहीं करते हैं-लुप्त नहीं करते हैं, किन्तु निरन्तर कर्म करते हैं ॥१३॥

    भावार्थ

    मन्त्रप्रवचन करनेवाले विद्वान् मोक्षमार्ग का उपदेश किया करते हैं, साधारण उपदेशक सांसारिक मार्ग का उपदेश करते हैं। जैसे किसान लोग खेत में बीज बोते हैं-भावी अन्नलाभ के लिए, ऐसे ध्यानीजन भावी अध्यात्मलाभ के लिए शान्तस्वरूप परमात्मा को अपने आत्मा में संगत करते हैं। सांसारिक जन हो या आध्यात्मिक जन हो, उत्तम सुखभोग करने के हेतु साधारण कर्म और अध्यात्म कर्म का लोप नहीं करते हैं ॥१३॥

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    विषय

    'न मिनन्ति बप्सतः '

    पदार्थ

    [१] (अद्रयः) = [these who adore] उपासक लोग (इत्) = निश्चय से (तद् वदन्ति) = उस प्रभु के नामों का ही उच्चारण करते हैं। यह नामोच्चारण ही उनके (विमोचने) = विषयों से विमोचन में निमित्त बनता है । इस नामोच्चारण के कारण ही वे विषयों में फँसने से बचे रहते हैं । (उपब्दिभिः) = इन प्रभु के नामोंच्चारणों से (इत् घा) = ही निश्चय से ये व्यक्ति (यामन्) = इस जीवन मार्ग में (अस्पा इव) = अपने को ठीक-ठीक रक्षित करनेवाले होते हैं। [अञ्जसापान्ति] [२] (इव) = जैसे (धान्याकृतः) = धान्य आदि को उत्पन्न करनेवाले (बीज वपन्तः) = बीज का वपन [ = बोना] करते हैं, इसी प्रकार ये प्रभु नाम-स्मरण करनेवाले लोग गुणों के बीजों को अपने हृदयक्षेत्र में बोते हैं और इस गुणवर्धन के द्वारा हृदयक्षेत्र को सुन्दर बनाते हुए ये लोग (सोमं पृञ्चन्ति) = उस सोम का, शान्त प्रभु का सम्पर्क प्राप्त करते हैं। [३] ये (बप्सतः) = भोजनों को करते हुए (न मिनन्ति) = कभी हिंसा नहीं करते। हिंसालभ्य, मांसादि भोजनों से ये दूर रहते हैं। ये अपने दाँतों को अथर्व के शब्दों में यही प्रेरणा देते हैं कि चावल, जौ, उड़द व तिल का सेवन करो, यही तुम्हारा रमणीयता के लिए भाग नियत है। तुमने हिंसा नहीं करनी, हिंसालभ्य भोजन से दूर ही रहना है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - उपासक प्रभु का स्मरण करते हैं, यह स्मरण उन्हें मार्गभ्रष्ट होने से बचाता है । अपने में गुणों के बीजों को बोते हुए प्रभु से सम्पर्कवाले होते हैं।

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    विषय

    वे उपदेश के दाता हों। कृषकों के तुल्य उत्तम गुणों का बीज बोएं। उत्तम फल प्राप्त करें।

    भावार्थ

    वे (अद्रयः) आदर योग्य, निर्भय जन (विमोचने) विविध संकटों से मोक्ष प्राप्त करने के निमित्त (यामन्) यम नियम पालन रूप सन्मार्ग में (तत् इत्) उसी परमेश्वर का (वदन्ति) उपदेश करें। वे (अञ्जः पा इव) व्यक्त ज्ञान-प्रकाश का रक्षण करने वाले विद्वानों और धान्य की रक्षा करने वाले कृषकों के तुल्य (उपब्दिभिः) उपदेश ध्वनियों से (धान्य-कृतः) धान्य बोने वालों के तुल्य (बीजम् इव वपन्तः) बीजों का वपन करते हुए वा (धान्यकृतः बीजम् इव वपन्तः) धान का खेत काटने वालों के तुल्य वासनामय बीजों का छेदन करते हुए जोका (सोमं पृञ्चन्ति) शिष्य पुत्रवत् आत्मा को वा प्रभु को स्नेह करें और (बप्सतः) स्वयं नाना कर्म फलों का भोग करते हुए भी किसानों के तुल्य ही (न मिनन्ति) अन्नवत् आत्मा, वा जीव के बीज का नाश नहीं करते।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिरर्बुदः काद्रवेयः सपः॥ ग्रावाणो देवता॥ छन्द:- १, ३, ४, १८, १३ विराड् जगती। २, ६, १२ जगती त्रिष्टुप्। ८,९ आर्चीस्वराड् जगती। ५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। १४ त्रिष्टुप्। चतुर्दशर्चं सूक्तम॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अद्रयः) मन्त्रप्रवचनकर्त्तारः “अद्रिरसि श्लोककृत्” [काठ० १।५] (विमोचने यामन्) विमोक्षे मार्गे-विमोक्षमार्गनिमित्तमित्यर्थः ‘निमित्तसप्तमी’ (तत्-इत्-वदन्ति) तदेव यथा मोक्षार्थं वक्तव्यं तदेव (वदन्ति) उपदिशन्ति (अञ्जस्पाः-इव घ-इत्-उपब्दिभिः) यथा-अनायासेन रक्षकाः पितृजनाः स्ववाग्भिः संसारमार्गनिमित्त-मुपदिशन्ति, “उपब्दिः-वाङ्नाम” [निघ० १।११] (धान्यकृतः-बीजं वपन्तः-इव) यथा धान्यकाराः कृषका बीजं वपन्तो भूमौ क्षिपन्ति प्ररोहणायाग्रे बहुधान्यप्रापणाय लौकिकसुखलाभाय तद्वत् (सोमं पृञ्चन्ति) शान्तस्वरूपमुत्पादकं परमात्मानं स्वात्मनि संयोजयन्ति (बप्सतः-न मिनन्ति) कर्मफलं भुञ्जानाः न कर्माणि हिंसन्ति, कर्माणि निरन्तरं कुर्वन्ति हि ॥१३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Veteran sages on way to freedom from the bonds of mortality speak of immortal Indra like bards in a state of ecstasy. As the farmer, having sowed the corn, guards it till ripeness, they, enjoying the soma experience, guard and mature the nectar, they do not violate it, never destroy the taste of immortality.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    मंत्र प्रवचन करणारे विद्वान मोक्षमार्गाचा उपदेश करतात. साधारण उपदेशक सांसारिक मार्गाचा उपदेश करतात. जसे शेतकरी भविष्यातील अन्नासाठी शेतात बीज पेरतात, तसे ध्यानी लोक भावी अध्यात्मलाभासाठी शांतस्वरूप परमात्म्याची आपल्या आत्म्यात संगती करतात. सांसारिक लोक असोत किंवा आध्यात्मिक लोक असोत, उत्तम सुख भोग करण्यासाठी साधारण कर्म व आध्यात्मिक कर्माचा लोप करत नाहीत. ॥१३॥-

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