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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 94 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 94/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अर्बुदः काद्रवेयः सर्पः देवता - ग्रावाणः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    ए॒ते व॑द॒न्त्यवि॑दन्न॒ना मधु॒ न्यू॑ङ्खयन्ते॒ अधि॑ प॒क्व आमि॑षि । वृ॒क्षस्य॒ शाखा॑मरु॒णस्य॒ बप्स॑त॒स्ते सूभ॑र्वा वृष॒भाः प्रेम॑राविषुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒ते । व॒द॒न्ति॒ । अवि॑दन् । अ॒ना । मधु॑ । नि । ऊ॒ङ्ख॒य॒न्ते॒ । अधि॑ । प॒क्वे । आमि॑षि । वृ॒क्षस्य॑ । शाखा॑म् । अ॒रु॒णस्य॑ । बप्स॑तः । ते॒ । सूभ॑र्वाः । वृ॒ष॒भाः । प्र । ई॒म् । अ॒रा॒वि॒षुः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एते वदन्त्यविदन्नना मधु न्यूङ्खयन्ते अधि पक्व आमिषि । वृक्षस्य शाखामरुणस्य बप्सतस्ते सूभर्वा वृषभाः प्रेमराविषुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एते । वदन्ति । अविदन् । अना । मधु । नि । ऊङ्खयन्ते । अधि । पक्वे । आमिषि । वृक्षस्य । शाखाम् । अरुणस्य । बप्सतः । ते । सूभर्वाः । वृषभाः । प्र । ईम् । अराविषुः ॥ १०.९४.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 94; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (एते) ये विद्वान् (अविदन्) जब परमात्मा को जानते तब ही (अना वदन्ति) उसका मुख से उपदेश करते हैं (वृक्षस्य पक्वे) वृक्ष के पके हुए (आमिषि-अधि) सम्भजनीय फल के अन्दर (मधु न्यूङ्खयन्ते) मधुर रस अन्न के समान सेवन करते हैं या अन्न बनाते हैं (सुभर्वाः) शोभन भोजनवाले (वृषभाः) ज्ञानवर्षक (अरुणस्य शाखाम्) आरोचमान  पुष्पित फलित वृक्ष की शाखा पर लगे (वप्सतः) फल के समान ज्ञानफल का भक्षण करते हैं (ईं प्र-अराविषुः) उस परमात्मा को और उसके ज्ञान को बोलते हैं, उपदेश करते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    विद्वान् जन जैसे ही परमात्मा को जानते हैं, तुरन्त उसका उपदेश किया करते हैं। पुष्पित फलित वृक्ष के अन्दर जैसे रस का आस्वादन-भोजन करते हैं, ऐसे ही प्रकाशमान परमात्मा के ज्ञानफल को ज्ञानी जन सेवन करते हैं और अन्य को उपदेश देते हैं ॥३॥

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    विषय

    अति सात्त्विक भोजन व माधुर्य

    पदार्थ

    [१] (एते) = ये आचार्य (वदन्ति) = ज्ञानोपदेश करते हैं और ज्ञानोपदेश करते हुए (अना) = मुख से (मधु अविदन्) = मधु को प्राप्त करते हैं । मधुर शब्दों में ही ज्ञान देते हैं। कभी क्रोध से कटु शब्द नहीं बोलते। [२] (अधिप आमिषि) = [the fleshy past of a fruit] पूर्ण परिपक्व फलों के गूदे का भोजन होने पर ये आचार्य (न्यूङ्खयन्ते) = [make beantiful ckeruering purpes or right] अपने जीवन को बड़ा सुन्दर बनाते हैं। वानप्रस्थ होने के कारण इनका भोजन वन्य कन्द फल मूल ही होते हैं। इस सात्त्विक भोजन से इनका जीवन भी सात्त्विक ही बनता है । [३] (अरुणस्य) = आरोचमान फलों से चमकते हुए, (वृक्षस्य) = वृक्ष की (शाखाम्) = शाखा को, शाखा पर लगनेवाले फलों को (बप्सतः) = खाते हुए (ते) = वे आचार्य (सूभर्वा:) = उत्तम भोजनों से अपना भरण करनेवाले और अतएव (वृषभाः) = शक्तिशाली होते हुए (ईम्) = निश्चय से (प्र अराविषुः) = खूब ही प्रभु के नामों का उच्चारण करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ-आचार्य लोग मधुर शब्दों में ज्ञान देते हैं। इनके माधुर्य का रहस्य इस बात में है कि ये सात्त्विक भोजन करते हैं और प्रभु का स्तवन करते हैं ।

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    विषय

    मुख से मधु रस के तुल्य वे ज्ञान-मधु का संग्रह करें। वेद का निरन्तर अभ्यास करें।

    भावार्थ

    (वृक्षस्य पक्वे आमिषि) वृक्ष के पके फल में जिस प्रकार (मधु अविदन्) मधुर रस आते हैं, वैसे ही उसको (अना) मुख से बतलाते और उसको पाते हैं इसी प्रकार (एते) ये विद्वान् लोग (वृक्षस्य) वृक्ष रूप देह के (आमिषि पक्वे अधि) आयु रूप फल के होने पर अर्थात् आयु के बढ़ने पर (अना) मुख से (मधु) वेद ज्ञान का लाभ करते हैं और उसी का (वदन्ति) उपदेश करते हैं और (नि ऊंखयन्ते) नियम से उसका पुनः २ अभ्यास करते हैं। (ते सूभर्वाः) वे उत्तम सुख जनक फल वा अन्न का भोग करने वाले, (वृषभाः) उत्तम बलवान् जन, (अरुणस्य) तेजोमय, दीप्तियुक्त (वृक्षस्य शाखां बप्सतः) वृक्ष की शाखा का खाजाने वाले अग्नि के तुल्य संसार, वा वेद रूप वृक्ष की (शाखां बप्सतः) शाखा अर्थात् कांड का भोग करने वाले आत्मा वा (वृक्षस्य शाखा वप्सतः) महान् वृक्ष रूप संसार की व्यापक कारण या आश्रय रूप प्रकृति का भोग करने वाले परमेश्वर के विषय में वे (प्र ईम् अराविषुः) खूब अच्छी प्रकार वर्णन करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिरर्बुदः काद्रवेयः सपः॥ ग्रावाणो देवता॥ छन्द:- १, ३, ४, १८, १३ विराड् जगती। २, ६, १२ जगती त्रिष्टुप्। ८,९ आर्चीस्वराड् जगती। ५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। १४ त्रिष्टुप्। चतुर्दशर्चं सूक्तम॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (एते) इमे विद्वांसः (अविदन्) यदा परमात्मानं विदन्ति-जानन्ति तदैव (अना वदन्ति) अन्यते, प्राण्यते प्राणो गृह्यते येन तत्-अन् मुखं तेन मुखेन वदन्ति-उपदिशन्ति (वृक्षस्य पक्वे-आमिषि-अधि) वृक्षस्य पक्वे सम्भजनीये फले “सम्भक्तौ” [भ्वादि०] ततः “अमेर्दीर्घश्च-टिषच् प्रत्ययः” [उणादि० १।४६] तत्फलस्यान्तरे (मधु न्यूङ्खयन्ते) मधुरं रसमन्नमिव सेवन्तेऽन्नं कुर्वन्ति वा “अन्नं वै न्यूङ्खः” [ऐत० ५।३] (सुभर्वाः-वृषभाः) शोभनभोजनाः “सुभर्वं भर्वतिरत्तिकर्मा” [निरु० ९।२३] (ज्ञानवर्षकाः) (अरुणस्य शाखां वप्सतः) आरोचमानस्य पुष्पितफलितस्य वृक्षस्य शाखायां “सप्तम्यर्थे द्वितीया व्यत्ययेन छान्दसी” ज्ञानफलं भक्षयन्तः (ईं-प्र-अराविषुः) तं परमात्मानं तज्ज्ञानं शब्दयन्ति-उपदिशन्ति ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    They speak only when they know the subject by experience, having tasted with relish the honey sweets of the juice in the ripe fruit. Enjoying the fruit of life on the bright branch of the tree of existence they, mighty wise, bearing the knowledge by experience in the mind, speak the word of wisdom and reveal the truth.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वान लोक परमात्म्याला जाणतात व ताबडतोब त्याचा उपदेश करतात. पुष्पित, फलित वृक्षाच्या फलाचे जसे रसास्वादन करतात, तसेच प्रकाशमान परमात्म्याचे ज्ञानफल ज्ञानी जन सेवन करतात व इतरांना उपदेश करतात. ॥३॥

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