ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 94/ मन्त्र 5
ऋषिः - अर्बुदः काद्रवेयः सर्पः
देवता - ग्रावाणः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
सु॒प॒र्णा वाच॑मक्र॒तोप॒ द्यव्या॑ख॒रे कृष्णा॑ इषि॒रा अ॑नर्तिषुः । न्य१॒॑ङ्नि य॒न्त्युप॑रस्य निष्कृ॒तं पु॒रू रेतो॑ दधिरे सूर्य॒श्वित॑: ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒ऽप॒र्णाः । वाच॑म् । अ॒क्र॒त॒ । उप॑ । द्यवि॑ । आ॒ऽख॒रे । कृष्णाः॑ । इ॒षि॒राः । अ॒न॒र्ति॒षुः॒ । न्य॑क् । नि । य॒न्ति॒ । उप॑रस्य । निः॒ऽकृ॒तम् । पु॒रु । रेतः॑ । द॒धि॒रे॒ । सू॒र्य॒ऽश्वितः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सुपर्णा वाचमक्रतोप द्यव्याखरे कृष्णा इषिरा अनर्तिषुः । न्य१ङ्नि यन्त्युपरस्य निष्कृतं पुरू रेतो दधिरे सूर्यश्वित: ॥
स्वर रहित पद पाठसुऽपर्णाः । वाचम् । अक्रत । उप । द्यवि । आऽखरे । कृष्णाः । इषिराः । अनर्तिषुः । न्यक् । नि । यन्ति । उपरस्य । निःऽकृतम् । पुरु । रेतः । दधिरे । सूर्यऽश्वितः ॥ १०.९४.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 94; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 29; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 29; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सूर्यश्वितः सुपर्णाः) सूर्य के समान तेजस्वी ज्ञान से लोगों को उत्तमरूप से पूर्ण करनेवाले विद्वान् (वाचम्-उप-अक्रत) स्तुतिवाणी का उपयोग करते हैं, समर्थ बनाते हैं (द्यवि-आखरे) दिव्य गहन स्थानरूप परमात्मा में (कृष्णाः) परमात्मगुणों का आकर्षण करनेवाले (इषिराः) उसे चाहनेवाले (अनर्तिषुः) नृत्य करते हैं (उपरस्य) संसार से उपरत नित्यमुक्त परमात्मा के (निष्कृतम्) शुभ आनन्द को (न्यक्-नियन्ति) अपने अन्दर नितरां प्राप्त करते हैं (पुररेतः-दधिरे) बहुत अध्यात्मबलों को धारण करते हैं ॥५॥
भावार्थ
सूर्य के समान तेजस्वी ज्ञानी जन अपने ज्ञान से अन्य जनों को ज्ञानपूर्ण बनाते हैं, अपनी स्तुतियों को दिव्य परमात्मा में समर्पित करते हैं, उसके गुणों का आकर्षण करते हुए और उसकी कामना करते हुए आनन्द से नृत्य किया करते हैं तथा संसार से उपरत नियममुक्त परमात्मा को अपने अन्दर प्राप्त करके अध्यात्मबलों को धारण करते हैं ॥५॥
विषय
'सुपर्ण - कृष्ण - इषिर- सूर्यश्वित्'
पदार्थ
[१] (सुपर्णाः) = उत्तमता से अपना पालन व पूरण करनेवाले, शरीर को रोगों से बचानेवाले तथा मन की न्यूनताओं को दूर करके उसका पूरण करनेवाले, ज्ञानी पुरुष (वाचं अक्रत) = इस ज्ञान की वाणी को अपना करने का प्रयत्न करते हैं, स्वाध्याय के द्वारा इसे समझने के लिये यत्नशील होते हैं। इसी दृष्टिकोण से ये (द्यवि उप) = उस प्रकाशमय प्रभु की उपासना करते हैं । (आ-ख-रे) = समन्तात् आकाश की तरह व्यापक होकर गति देनेवाले [री गतौ ] प्रभु में ये (कृष्णाः) = अपनी इन्द्रियों को विषयों से खींच लेनेवाले, प्रत्याहृत करनेवाले (इषिराः) - गतिशील लोग (अनर्तिषुः) = इस जीवन के नृत्य को करते हैं। इनकी सब क्रियाएँ प्रभु में स्थित होकर होती हैं। इनके जीवन-नाटक का सूत्रधार प्रभु होता है । [२] (न्यङ् नियन्ति) = नीचे नम्र होकर ये निश्चय से चलते हैं। इनकी सब क्रियाएँ नम्रता के साथ होती हैं । (उपरस्य) = मेघ के (निष्कृतम्) = निश्चित कार्य को ये [ नियन्ति] प्राप्त होते हैं। जैसे मेघ ऊपर जल को धारण करनेवाला होता है इसी प्रकार ये भी शक्ति का ऊपर धारण करनेवाले बनते हैं, ऊर्ध्वरेता बनते हैं । [३] इस प्रकार मेघ का अनुकरण करते हुए ये (पुरुरेतः) = पालक व पूरक शक्ति को (दधिरे) = अपने में धारण करते हैं । इस शक्ति के धारण से ये लोग (सूर्यश्वितः) = सूर्य के समान प्रकाश से श्वेत व उज्वल हो उठते हैं। सुरक्षित रेतः शक्ति ज्ञानाग्नि का ईंधन बनती है और ये लोग ज्ञान ज्योति से चमकनेवाले होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु के उपासक 'सुपर्ण, कृष्ण, इषिरर व सूर्यश्वित्' होते हैं ।
विषय
सूर्य की किरणों के तुल्य सन्मार्गदर्शी, सदा प्रसन्न, और बल-वीर्यवान् हों।
भावार्थ
(द्यवि) सूर्य में जिस प्रकार (सु-पर्णाः) रश्मिगण (कृष्णाः) जलाकर्षण करने वाले, (अनर्तिषुः) विविध जाते हैं, (सूर्य-श्वितः) सूर्य की वे श्वेत किरण (पुरु रेतः दधिरे) बहुतसा जल धारण करते और (उपरस्य निष्कृतम् नियन्ति) मेघ का रूप धर (वाचम् अक्रत) बिजुली की गर्जना करते हैं उसी प्रकार (द्यवि) तेजोमय (आखरे) सर्वत्र चारों ओर सुखमय परमेश्वर में मग्न (सुपर्णाः) उत्तम मार्ग से जाने वाले, (कृष्णाः) तपस्वी, अपने देह और अन्तःकरण के दोषों का कर्षण करने वाले (इषिराः) शुभ इच्छा वाले, मन्मार्ग से जाने वाले, (वाचम् उप अक्रत) वाणी का उच्चारण करते, उपासना स्तुति प्रार्थना करते, (आ अनर्त्तिषुः) नाना हर्ष-प्रदर्शक क्रीड़ाएं करते हैं और (उपरस्य) मेघ के तुल्य सुखदायक प्रभु के (निष्कृतं नि यन्ति) स्थान को प्राप्त करते हैं, वे (सूर्यश्वितः) सूर्य के समान तेजस्वा जन (पुरु रेतः दधिरे) बहुत २ बल सामर्थ्य धारण करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिरर्बुदः काद्रवेयः सपः॥ ग्रावाणो देवता॥ छन्द:- १, ३, ४, १८, १३ विराड् जगती। २, ६, १२ जगती त्रिष्टुप्। ८,९ आर्चीस्वराड् जगती। ५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। १४ त्रिष्टुप्। चतुर्दशर्चं सूक्तम॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सूर्यश्वितः सुपर्णाः) सूर्य इव तेजस्विना ज्ञानेन सुष्ठु पूरकाः-विद्वांसः (वाचम्-उप-अक्रत) स्तुतिवाचमुपकुर्वन्ति समर्थयन्ति (द्यवि-आखरे) दिव्ये गहनस्थाने परमात्मनि (कृष्णाः-इषिराः-अनर्तिषुः) परमात्मगुणानामाकर्षकाः परमात्मानं कामयमाना नृत्यन्ति (उपरस्य निष्कृतं न्यक्-नियन्ति) संसारत उपरतस्य “उपरासः-उपरताः” [यजु० १९।६८ दयानन्दः] नित्यमुक्तस्य परमात्मनः शुद्धमानन्दं स्वान्तरे नितरां प्राप्नुवन्ति (पुरूरेतः-दधिरे) पुरूणि बहूनि रेतांसि बलानि-अध्यात्मबलानि धारयन्ति ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Birds of imagination fly up to the bounds of heaven and raise their voice of adoration, vibrant clouds dance in the deepest caverns of space and celebrate their joy, the spirits distil the ecstasy of highest realisation and, pure and radiant as sunlight, receive profuse showers of immortal life.
मराठी (1)
भावार्थ
सूर्याप्रमाणे तेजस्वी ज्ञानी लोक आपल्या ज्ञानाने इतरांना ज्ञानपूर्ण बनवितात. दिव्य परमात्म्याला आपल्या स्तुतीने समर्पित होतात व संसारापासून उपरत झालेले नित्यमुक्त परमात्म्याचा आनंद आपल्यामध्ये साठवतात व अध्यात्मबल धारण करतात. ॥५॥
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