ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 13/ मन्त्र 10
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
विश्वेदनु॑ रोध॒ना अ॑स्य॒ पौंस्यं॑ द॒दुर॑स्मै दधि॒रे कृ॒त्नवे॒ धन॑म्। षळ॑स्तभ्ना वि॒ष्टिरः॒ पञ्च॑ सं॒दृशः॒ परि॑ प॒रो अ॑भवः॒ सास्यु॒क्थ्यः॑॥
स्वर सहित पद पाठविश्वा॑ । इत् । अनु॑ । रो॒ध॒नाः । अ॒स्य॒ । पौंस्य॑म् । द॒दुः । अ॒स्मै॒ । द॒धि॒रे । कृ॒त्नवे॑ । धन॑म् । षट् । अ॒स्त॒भ्नाः॒ । वि॒ऽस्तिरः॑ । पञ्च॑ । स॒म्ऽदृशः॑ । परि॑ । प॒रः । अ॒भ॒वः॒ । सः । अ॒सि॒ । उ॒क्थ्यः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वेदनु रोधना अस्य पौंस्यं ददुरस्मै दधिरे कृत्नवे धनम्। षळस्तभ्ना विष्टिरः पञ्च संदृशः परि परो अभवः सास्युक्थ्यः॥
स्वर रहित पद पाठविश्वा। इत्। अनु। रोधनाः। अस्य। पौंस्यम्। ददुः। अस्मै। दधिरे। कृत्नवे। धनम्। षट्। अस्तभ्नाः। विऽस्तिरः। पञ्च। सम्ऽदृशः। परि। परः। अभवः। सः। असि। उक्थ्यः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 13; मन्त्र » 10
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः प्रकारान्तरेण विद्वद्विषयमाह।
अन्वयः
मनुष्या अस्मै कृत्नवे जनाय षड् विष्टिरः पञ्च संदृशः विश्वा रोधना अनु ददुः धनमित्परि दधिरेऽस्य पौंस्यमनुदधिरे स परो धनमस्तभ्ना अभवः स उक्थ्योऽस्यस्ति ॥१०॥
पदार्थः
(विश्वा) सर्वाणि (इत्) एव (अनु) आनुकूल्ये (रोधना) रोधनानि (अस्य) जनस्य (पौंस्यम्) पुरुषार्थम् (ददुः) ददति (अस्मै) (दधिरे) दधति (कृत्नवे) कर्त्तुम् (धनम्) (षट्) (अस्तभ्नाः) स्तभ्नाति (विष्टिरः) ये विशेषेण तरन्ति ते तवः (पञ्च) भूतानि (संदृशः) ये सम्यक् पश्यन्ति ते (परि) सर्वतः (परः) प्रकृष्टः (अभवः) प्रसिद्धो भवसि (सः) (असि) (उक्थ्यः) ॥१०॥
भावार्थः
ये मनुष्या युक्ताहारविहारा जितेन्द्रिया जायन्ते ते सर्वेष्वृतुषु पञ्चभिरिन्द्रियैः सुखानि प्राप्नुवन्ति ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर प्रकारान्तर से विद्वान् के विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
मनुष्य (अस्मै) इस (कृत्नवे) कर्म करनेवाले मनुष्य के लिये (षट्,विष्टिरः) छः जो विशेषता से अपने-अपने समय को पार होती हैं वे तुयें (पञ्च) और पाँच (संदृशः) अपने-अपने विषय को देखनेवाले पृथिवी, अप्, तेज, वायु, आकाश ये भूत वा पाँच कर्मेन्द्रियाँ (विश्वा) सब (रोधना) रुकावटों को (अनुददुः) अनुकूलता से देते हैं और (धनम्) धन को (इत्) ही (परि, दधिरे) सब ओर से धारण करते हैं (अस्य) इसके (पौंस्यम्) पुरुषार्थ को अनुकूलता से धारण करते अर्थात् जानते हैं वह (परः) उत्कृष्ट धन को (अस्तभ्नाः) रोकता है और (अभवः) प्रसिद्ध होता है (सः) वह (उक्थ्यः) अनेक में प्रशंसनीय (असि) है ॥१०॥
भावार्थ
जो मनुष्य युक्त आहार-विहार करनेवाले जितेन्द्रिय होते हैं, वे सब तुओं में पाँचों इन्द्रियों से सुखों को प्राप्त होते हैं ॥१०॥
विषय
'परि-पर' प्रभु
पदार्थ
१. 'रोधना' शब्द चित्तवृत्ति के निरोध के द्वारा शरीर में शक्ति के संयम के लिए प्रयुक्त होता है। (विश्वा रोधना:) = सब चित्तवृत्तियों के निरोध (अनु) = अनुसार (इत्) = निश्चय से (अस्य) = इस साधक के लिए (पौंस्यं ददुः) = शक्ति को प्राप्त कराते हैं। (अस्मै कृत्नवे) = इस कर्मशील के लिए (धनं दधिरे) = धन को धारण करते हैं। चित्तवृत्ति के निरोध से यह शक्ति को प्राप्त करता है और क्रियाशीलता से धन का अर्जन करनेवाला होता है। २. शक्ति और धन को प्राप्त करके आन्तर व बाह्य चिन्ताओं से मुक्त हुआ हुआ यह पुरुष (विष्टिरः) = विशिष्ट विस्तारवाली- प्रबुद्ध शक्तिवाली (षट्) = मनःषष्ठ पाँच ज्ञानेन्द्रियों को (अस्तभ्नाः) = थामता है– इनको विषयों में जाने से रोकता है। विषयों में जाने से इन्हें रोककर यह साधक (पञ्च संदृश:) = पाँचों ज्ञानेन्द्रियों से उत्तम ज्ञान प्राप्त करनेवाला बनता है । हे प्रभो ! आप इस व्यक्ति के (परिपरः) = सर्वथा पारयिता (अभवः) = होते हैं । इसे संसार समुद्र में डूबने से बचाते हैं। (सः) = वे आप (उक्थ्यः) = स्तुति के योग्य- प्रशंसनीय (असि) = हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- संयम से शक्ति तथा क्रियाशीलता से धन का हम अर्जन करें। इन्द्रियों व मन का विरोध करके भवसागर से पार हों।
विषय
परमेश्वर उत्तम शासक ।
भावार्थ
( अस्य ) इस परमेश्वर के ( पौंस्यम् अनु ) महान् पुरुषत्व के अधीन ही (विश्वा इत् रोधना) सब प्रकार की रुकावटें या नियम व्यवस्थाएं हैं। वे (अस्मै) उसके ( पौस्य अनु ददुः) पुरुषत्व का हमें प्रदान करती। हमें बतलाती हैं। सब मनुष्य ( कृत्नवे ) सब कर्मों को करने वाले विश्वस्रष्टा की आराधना के निमित्त ही ( धनम् दधिरे ) उत्तम ऐश्वर्य को धारण करते हैं । वह परमेश्वर ही ( षट् ) छहों ( विष्टिरः ) ऋतुओं को सूर्य के समान छहों विस्तृत दिशाओं को अथवा, द्यौ, पृथिवी, दिन रात्रि, और आपः, ओषधि इन छहों को और ( पञ्च ) पांच ( संदृशः ) देखने वाली इन्द्रियों को देहवान् आत्मा के समान पांचों प्रकार सम्यग् दृष्टि वाले तत्वज्ञ विद्वान् पुरुषों को ( तथा ) अच्छी प्रकार दिखाने वाले पांचों प्रकार के प्रकाशक अग्नियों को ( अस्तभ्नाः ) धारण करता है और जो तू ( परः ) सबका पालक, पूरक और सबसे उत्कृष्ट है ( सः उक्थ्यः असि ) वह तू सबसे श्रेष्ठ प्रशंसनीय है । ( २ ) राजा की सब राज्य व्यवस्थाएं या ( रोधनाः ) शत्रु को थाम करने वाली सेनाएं उसको अधीन रहकर उसके बल प्रदान करती हैं उसी कर्ता के लिये प्रजाऐं सब धन राष्ट्र रखती हैं। वह छहों दिशाओं को या अपने से अतिरिक्त प्रकृतियों को, ६ हों अमात्य, सुदृढ़, कोश दुर्ग और बल इन पांचों तत्वदर्शी साधन, ४ वेद और पांचवां आत्मानुभव इनको निषाद सहित पांचों वर्णों को धारण करता है या अपने वश करता है। वह सर्वोत्कृष्ट पालक होता है । वही प्रशंसा के योग्य है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, २, ३, १०, ११, १२ भुरिक् त्रिष्टुप् । ७, ८ निचृत्त्रिष्टुप् । ९, १३ त्रिष्टुप् । ४ निचृज्जगती । ५, ६ विराट् जगती ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे युक्त आहार विहार करून जितेन्द्रिय बनतात ती सर्व ऋतूत पंच इंद्रियांच्या सुखांना प्राप्त करतात. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
All according to his will and law carry out the acts of his omnipotence for him. They hold the wealth and power of the universe for him, lord of action as he is. Lord of wide extensive power and presence, he commands the six seasons of the year and energises the five senses of perception. He encompasses all, he transcends all. The lord is worthy of homage and adoration in words of faith and piety.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The chapter al out brave people is here added.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
All the six seasons, five organs of action (Karmendriyas) five knowledge organs (Gnanendriyas) which are controlled by the nerves-they all can not hold back a person in accomplishing his assignments, rather they become helpful to him. Wealth falls in their laps and their strong determination and efforts turn the hardships into success. Such a man checks the flow of dishonest or black money and soon earns the reputation and admiration from all.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The persons (in army) who lead a regular life and diet and have control over their senses, they achieve happiness throughout the year with their two sets of five organs.
Foot Notes
(अनु) आनुकूल्ये = In harmony with. (कृत्नवे) कर्त्तुम् । = order to do. (अस्तभ्नाः) स्तभ्नाति = Holds. (परि दधिरे ) सर्वत्र दधिरे। = Hold from all sides (पर:) प्रकृष्ट प्रसिद्धो भवसि = You become very prominent.
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